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यूपीः निषाद समुदाय पर लॉकडाउन का बुरा असर, भुखमरी जैसी स्थिति

लॉकडाउन में कमाई बंद होने के चलते निषाद परिवारों को सरकारी मदद की ज़रूरत महसूस हो रही है। लेकिन बड़े पैमाने पर निषाद परिवारों के पास राशन कार्ड नहीं है। ऐसे में उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
निषाद समुदाय पर लॉकडाउन का बुरा असर

एक तरफ जहां कोरोना के मामले में तेज़ी से वृद्धि हो रही वहीं दूसरी तरफ इसके चलते लागू किए गए लॉकडाउन में धीरे धीरे ढ़ील दी जा रही है। मार्च महीने में लागू लॉकडाउन का असर अब देश की अर्थव्यवस्था पर साफ देखा जा सकता है। बड़ी संख्या में लोगों का रोज़गार छिन गया है। शहर से गांवों की तरफ लोगों का पलायन निरंतर जारी है। गांव में भी उनके लिए काम नहीं है। देश की चरमराई अर्थव्यवस्था को लेकर चर्चा जारी है। लेकिन घुमंतू और निषाद समुदाय इस चर्चा से गायब रहे। इनके सामने रोज़गार का संकट है। इलाहाबाद शहर में गंगा-यमुना नदी पर निर्भर निषाद समुदाय का हाल जानने की कोशिश की।

दारागंज कछार से लेकर संगम घाट तक और संगम घाट से लेकर करैल बाग तक हजारों नावें ठांव से बंधी नज़़र आती हैं। एक साथ बंधी नावें निषाद समुदाय के लोगों के रोज़गार ख़त्म हो जाने की कहानी बयां कर रही हैं। कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन ने उनके सामने रोज़गार का संकट पैदा कर दिया है और उनकी आमदनी का ज़रिया ख़त्म हो चुका है।

उत्तर प्रदेश में निषाद अन्य पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत आने वाला एक जाति समूह है। इस जाति के अंतर्गत बिंद, मल्लाह, केवट जैसी कई जातियां और उपजातियां शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में निषाद पार्टी वर्तमान समय में एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) का हिस्सा है। निषाद पार्टी जिस समुदाय का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है वह लगभग बीस लोकसभा सीटों को प्रभावित करती है। इस समुदाय की आबादी प्रदेश में लगभग 12 फीसदी मानी जाती है। लेकिन सरकार की नीतियों में इस समुदाय का कोई खास हिस्सा नज़र नहीं आता।

रोज़गार का ज़रिया नदी

इलाहाबाद ज़िले में गंगा और यमुना दोनों नदियों के किनारे निषाद समाज की एक बड़ी आबादी रहती है। निषादों की बड़ी आबादी इन्हीं दो नदियों पर पूर्णतयः निर्भर है। यमुना के किनारे रहने वाली आबादी बालू-मोरंग के काम से जुड़ी है, वहीं गंगा नदी जब फ़रवरी के अंत तक सिकुड़ रही होती है तो हज़ारों एकड़ जमीन छोड़ती है जिस पर किनारे बसे लोग खेती करते हैं। गंगा किनारे बसे निषाद समुदाय की आमदनी का मुख्य जरिया सब्जी की खेती, मेला की दुकानों और मछली से होने वाली आय है।

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गंगा धार्मिक आस्थाओं का केंद्र है उस आस्था से रची हुई एक अर्थव्यवस्था जुड़ी है जिसका नाम है- कर्मकांडी अर्थव्यवस्था। कर्मकांडी अर्थव्यवस्था से निषाद समाज के अलावा भी अन्य जाति-समुदाय से आने वाले लोगों का जीविकोपार्जन होता है। इस अर्थव्यवस्था की शुरुआत पितृपक्ष के आगमन के साथ होती है। पितृपक्ष में हिन्दू श्रद्धालु बड़ी संख्या में पिंड दान करने संगम पर आते हैं। सावन मास में कांवड़िया गंगा नदी से जल भरकर ले जाते हैं और चढ़ावा भी चढ़ाते हैं। ऐसे कई छोटे-छोटे धार्मिक अवसर आते रहते हैं जब श्रद्धालु गंगा स्नान करने आया करते हैं। सामान्य दिनों में भी लोग यहां हर रोज आया करते हैं। घाट पर फूल-माला की दुकान लगाने वाले मिट्ठू बिंद (30) बताते हैं कि "पहले कुछ नहीं तो हज़ारों लोग रोज़ाना आ ही जाते थे। सुबह चार बजे से ही लोग स्नान करने लगते थे। लेकिन अब कोरोना के डर से कोई नहीं आ रहा है।

सोहनलाल निषाद (58) वर्षों से घाट पर सौन्दर्य-प्रसाधन की दुकान लगाते हैं। वे बताते हैं "दिनभर सन्नाटा छाया रहता हैं, बोहनी तक नहीं होती। बच्चों का खर्च भी नहीं निकल पाता है। पहले जहां चार-पांच सौ रुपये कमा लिया करते थे सो अब सौ रुपये भी कमाना मुश्किल हो गया है।"

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लॉकडाउन में कमाई बंद होने के चलते निषाद परिवारों को सरकारी मदद की ज़रूरत महसूस हो रही है। लेकिन बड़े पैमाने पर निषाद परिवारों के पास राशन कार्ड नहीं है। ऐसे में उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। बुदुन्नी निषाद कहती हैं "कोटेदार से उचित राशन नहीं मिला। बताइये इससे कैसे चार लोगों का पेट भरेगा?"

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शहर में सब्ज़ियों के खरीदार नहीं

कछार स्थित सब्ज़ी की खेतों में इक्के-दुक्के किसान सब्ज़ी तोड़ते दिखाई पड़ रहे हैं। महिलाएं सड़कों के किनारे सब्ज़ी की दुकानें लगाकर ग्राहक का इंतज़ार कर रही हैं। सामान्य दिनों में सब्ज़ियां शहर से बाहर भी जाती थी लेकिन लॉकडाउन से बाहरी खपत पर ब्रेक लग गई। लॉकडाउन में बड़ी संख्या में लोग शहर छोड़कर गांव चले गए। जिससे इसकी खपत और कम हो गई। सुनील निषाद मछली पकड़ने और कछार में सब्ज़ी की खेती करने का काम करते हैं। सुनील का कहना है कि "सब्ज़ी के लिए ख़रीदार नहीं है, कोरोना की वजह से 500 का बोझा अब 200 का हो गया है।

मछली की बिक्री भी नहीं हो रही है। पेट चलाना मुश्किल हो गया है। गंगा मईया बढ़ रही हैं अब सब्जी की खेती भी डूब जाएगी"। नाव खेने वाले नाविक नाव पर बैठकर नदी में कंटिया लगाकर मछली के फंसने का इंतज़ार कर रहे हैं। मानसून की पहली बारिश से नदी का बहाव तेज़ हो चुका है। ऐसे में हज़ोरों एकड़ सब्ज़ी के खेत में अब गंगा का पानी भर जाएगा।

रविशंकर बिंद ने कछार में लगभग एक बीघा से अधिक क्षेत्र में नेनुआ की खेती की है। लगभग दस हज़ार ख़र्च किया है लेकिन अभी तक कुल चार हज़ार की कमाई हो पाई है। रविशंकर कहते हैं "माघ मेले के बाद खेती करते हैं, पूरा परिवार इसी में लगा रहा, सब्जी उगाया किया लेकिन लॉकडाउन हो गया लागत भी न निकल पाई"। रविशंकर सरकार से मदद न मिलने की भी बात कह रहे हैं। रविशंकर का कहना है कि वे कई बार बैंक का चक्कर लगाए लेकिन उनके खाते में कोई सरकारी रकम नहीं आई।

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भुखमरी के शिकार

लॉकडाउन के चलते श्रद्धालुओं और पर्यटकों का संगम क्षेत्र में आना बंद हो गया है। सूरज निषाद कीटगंज में रहते हैं और उनका छः लोगों का परिवार है। नाव से होने वाली कमाई से परिवार का खर्च चलाते हैं। सूरज निषाद का बेटा इंटर में पढ़ रहा है और पैसे के चलते बेटी को इंटर के बाद पढ़ाना बंद कर दिया है। सूरज निषाद कहते हैं "हम भुखमरी की कगार पर हैं। राशन पानी नहीं है, नांव बंधी है, पैसा नहीं है तो जीवन बेकार है।" निषाद के पास परिवार का ख़़र्च चलाने के लिए पैसा नहीं है।

पास वाली नाव में बैठकर कंटिया से मछली पकड़ रहे राजेश निषाद कहते हैं, "जीवन यापन करना मुश्किल हो गया है। मछली मारने पर भी रोक लग गई है। पुलिस वाले पकड़ लेते हैं तो गाली-गलौज करते हैं और जाल नदी में फेंक देते हैं। हम कुछ बोल भी नहीं पाते हैं।"

निषादों की नाव और उनके खेत के बीमा का कोई प्रावधान नहीं है। कछार की खेती बर्बाद हो जाती है तो किसी प्रकार के सरकारी मुआवज़े का प्रावधान नहीं है। कछार की कुछ जमीन पर ऊंची जातियों का कब्जा है कुछ निषाद परिवार किराए पर जमीन लेकर सब्ज़ी उगाते हैं। नाव टूट जाए या डूब जाए तो उसका भी कोई बीमा नहीं होता है। इस संदर्भ में राजेश निषाद कहते हैं कि "लाइफ बीमा और बोट बीमा होना चाहिए लेकिन कुछ नहीं है। किसानों को सरकार छः हज़ार रुपये दे रही है, हमें कुछ नहीं मिल रहा है। वो हल जोतते हैं हम पानी जोतते हैं। लेकिन सरकार ध्यान नहीं देती"।

नदी में मछली मारना निषादों का पारम्परिक पेशा है। लेकिन धीरे-धीरे इस पेशे पर संकट गहराता जा रहा है। नदी में कुछ सालों से मछली मिलना कम हो गया है। प्रशासन भी आए दिन मछली मारने वालों पर सख्त रुख अपनाता है। प्रशासन के डर से मछली मारने वाले निषाद रात में जाल डालकर मछली पकड़ते हैं। जो निषाद विभिन्न अवसरों पर पुलिस मित्र होते हैं उन्हें ही प्रशासन आए दिन परेशान करता रहता है। दीपक निषाद (22) गोताखोर हैं और मछली पकड़ने का काम भी करते हैं। दीपक कहते हैं "कोई डूबता रहता है तो पुलिस वाले कभी नहीं बचाते, हम ही पानी में कूदकर उन्हें बचाते हैं, नाम पुलिस वालों का होता है"।

मुकेश निषाद झूंसी क्षेत्र में कुछ लोगों के साथ मछली पकड़ रहे थे। अचानक पुलिस पहुंच गई उनके साथ गाली-गलौज की। सभी मछुआरे बोट और जाल छोड़कर भाग गए और पुलिस बोट अपने क़ब्ज़े में ले ली। मुकेश बताते हैं "चार-पांच पुलिस वाले आये और गाली-गलौज करने लगे, हम लोग बोट बांधकर भाग गए। पुलिस वाले बोट अपने क़ब्ज़े में ले लिए हैं। बोट को सील कर दिया है अब बोट छुड़ाने के लिए कचहरी जाना पड़ेगा"।

गोविंद निषाद इलाहाबाद के निषाद समाज पर शोध कर रहे हैं। निषादों की स्थिति पर वे कहते हैं कि "मल्लाह समुदाय सदियों से अपनी आजीविका नदियों से जुटाता रहा है, लेकिन लाकडाउन के दौरान जब अचानक से सब कुछ बंद कर दिया गया तो उनकी आजीविका पर ग्रहण लग गया। मल्लाह समुदाय कोरोना काल में सर्वाधिक प्रभावित समुदायों मे से एक है लेकिन सरकार की तरफ से इन समुदायों को कोई आर्थिक मदद नहीं मिली। किसी बड़े राजनीतिक दल के समर्थन के अभाव में यह समुदाय अपनी मांगों को सरकार के सामने मज़बूती से नहीं रख पाते हैं"।

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