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ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

बनारस के फुलवरिया स्थित कब्रिस्तान में बिंदर के कुनबे का स्थायी ठिकाना है। यहीं से गुजरता है एक विशाल नाला, जो बारिश के दिनों में फुंफकार मारने लगता है। कब्र और नाले में जहरीले सांप भी पलते हैं और बिंदर के बेटे, उनकी पत्नियां और नाती-पोते भी। 
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50 वर्षीय बिंदर मुसहर की जिंदगी में कोई रंग नहीं है। इनके पास न रहने के लिए घर है, न शौचालय और न पीने का साफ पानी। इनका कुनबा कब्रिस्तान में गुजर-बसर करने के लिए मजबूर है। चूहा, सुतही और घोंघा पकड़कर जिंदगी की नैया खेते-खेते हार चुका बिंदर का कुनबा आज भी हाशिये पर खड़ा है। सत्ता के कई रंग लखनऊ की सियासत पर चढ़े। कभी पंजे का जलवा, कभी कमल खिला, कभी हाथी जमकर खड़ा हुआ तो कभी साइकिल सरपट दौड़ी, लेकिन बिंदर की जिंदगी बेरंग ही रही।

यह कहानी बनारस के फुलवरिया इलाके में कब्रिस्तान में रहने वाले उस बिंदर की है, जिस इलाके की नुमाइंदगी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करते हैं। और जिसे आठ साल पहले जापान के शहर क्योटो जैसा बनाने का वादा किया गया था।

फुलवरिया के वरुणापुरी कालोनी पास से गुजरने वाले एक नाले के भीटे पर स्थित है कब्रिस्तान। यह कब्रिस्तान मुसलमानों का नहीं, कबीर पंथ से जुड़े लोगों के अंतिम संस्कार के लिए है। कोटवां मार्ग पर स्थित इस कब्रिस्तान में कई पक्की और कई कच्ची मजारें हैं। इन्हीं मजारों के बीच रहता है बिंदर का कुनबा। इनके चार बेटे हैं- चंदन, संजय, राजू और डाक्टर। साथ में इनकी पत्नियां और बच्चे भी। कब्रिस्तान के बीच सबकी अलग-अलग झोपड़ियां हैं, जो बारिश में टपकती हैं और आंधी में उनके उड़ जाने की आशंका हमेशा बनी रहती है। दोना-पत्तल बनाने और कब्रें खोदकर गुजर-बसर कर रहे बिंदर को दो गज जमीन भी मयस्सर नहीं हो सकी है।

दो बरस पहले बिंदर का परिवार फुलवरिया में रेलवे फाटक संख्या-पांच के पास झोपड़ी बनाकर में रहता था। डबल इंजन की सरकार सत्ता में आई तो एक दबंग ने उन्हें उस जगह से खदेड़ दिया जहां वो लंबे समय से रहते आ रहे थे। पूरी तरह अशिक्षित बिंदर का परिवार अपने साथ हुई नाइंसाफी और जुल्म का मुकाबला नहीं कर सका। रहने के लिए ठौर-ठिकाना नसीब नहीं हुआ तो कब्रिस्तान के बीच अपनी झोपड़ी डाल ली। 

बिंदर कहते हैं,  "महुआ के पत्ते बेचने हम पान दरीबा जाते हैं। देखते हैं कि बनारस घूमने तो पूरी दुनिया आ रही है। हमारे हालात को देखने कोई नहीं आ रहा। न नेता आ रहे और न ही अफसर। हमारे पास कोई ठिकाना नहीं। आधार कार्ड और बैंक में खाता नहीं है। ऐसे में भला मनरेगा का काम हमें कौन देगा? "

बिंदर

बिंदर बताते हैं, "कब्रिस्तान के सन्नाटे और वीरानी की आदत सी हो गई है मुझे। हमारा पारंपरिक पेशा कब्र खोदना नहीं, दोना-पत्तल बनाना है, मगर क्या करें? हम ऐसी जगह रहने पर मजबूर हैं जहां लोग रोते-बिलखते आते हैं। मुर्दों के लिए कब्र खोदने के लिए कहते हैं। हम चाहकर भी मना नहीं कर पाते। फुलवरिया के कब्रिस्तान में रहने के बाद एहसास हुआ इस काम की दुश्वारियों का। पहले ऐसा लगता था जैसे सिर्फ उनको नहीं, उनके साथ अपनी खुशियां और अपनी जिंदगी भी मिट्टी में दफन कर रहा हूं। सोचता हूं तो लगता है कितना अजीब काम है हमारा? कब्रिस्तान तो इंसान की आखिरी मंजिल होती है। कई बार लोग इतने गमजदा होते हैं कि वह अपनों के कब्र में उतारने का हौसला भी नहीं कर पाते। जब मुर्दे को आखिरी विदाई की बारी आती है तब लगता है कि यह मंजर किसी की जिंदगी में कभी न आए। तब मैं ही उनकी मदद करता हूं। उन्हें कभी समझाता हूं तो कभी गले भी लगा लेता हूं। मुझसे ज्यादा और कौन समझेगा मौत की सचाई को। लोग अपनी जिंदगी की मसरुफियत में भूल जाते हैं कि जिंदगी मिली है तो मौत आना तय है, लेकिन मुझे हर पल इसका एहसास होता है।"

फुलवरिया का कब्रिस्तान है बिंदर मुसहर का स्थायी ठिकाना।

बिंदर की बदरंग जिंदगी कितनी चुनौती भरी है, फुलवरिया के कब्रिस्तान में उनसे मिलने के बाद पता चलता है। कब्रिस्तान के बीच बिंदर और उनके कुनबे की झोपड़ियां कोटवां रोड से आने-जाने वाले हर किसी को दिखती हैं। वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी तीन जून को लखनऊ में ग्राउंड सेरेमनी में जीबीसी- 3 को संबोधित करते हुए दुनिया भर के उद्यमियों को बनारस आने का न्योता दिया। मोदी ने यह भी कहा, "देश-दुनिया के नामचीन लोग समय निकालकर काशी को देखने आएं। यह नगरी बहुत कुछ बदल गई है। अपनी पुरातन सामर्थ्य के साथ नए रंग-रूप में सज गई है।" ऐसे जुमले सुनकर हमें हंसी आती है और दुख भी होता है। क्या डबल इंजन की सरकार सिर्फ गोदौलिया इलाके को समूचा बनारस मानती है? क्या काशी विश्वनाथ कारिडोर का विकास ही बनारस का विकास है। बनारस शहर के फुलवरिया के कब्रिस्तान का नंगा सच सत्तारूढ़ दल को आखिर क्यों नहीं दिखता? कब्रिस्तान में कई जिंदगियों का ठौर-ठिकाना ही क्या काशी की नई पहचान हैं? भला कब्रिस्तान भी कोई रहने की जगह होती है?"

यह है प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र में विकास का एक सच।

चकनाचूर हो गए सपने

फुलवरिया पहले बनारस का एक ऐसा गांव हुआ करता था जहां सिर्फ फूलों की खेती होती थी। अब यह बनारस का ऐसा डेंजर जोन है जो जहां बारिश के दिनों में डेंगू के मच्छर मौत का परवाना लेकर पहुंचते हैं। पिछले साल इसी बस्ती में डेंगू ने आधा दर्जन लोगों को मौत की नींद सुला दिया था। शहर से सटे होने के बावजूद फुलवरिया कुछ साल पहले तक गांव था। 2020 में इसे शहर में जोड़ा दिया गया। बनारस के फुलवरिया स्थित कब्रिस्तान में बिंदर के कुनबे का स्थायी ठिकाना है। यहीं से गुजरता है एक विशाल नाला, जो बारिश के दिनों में फुंफकार मारने लगता है। कब्र और नाले में जहरीले सांप भी पलते हैं और बिंदर के बेटे, उनकी पत्नियां और नाती-पोते भी। बांस और सूखी घास से बनी अपनी झोपड़ी के सामने नंग-धड़ंग बच्चों के साथ हताशा में डूबे इनके चेहरों से ही झलकती है उदासी और फटेहाली। माथे की शिकन भी बता देती है कि कितना मुश्किल भरा है इनका जीवन?

बिंदर का पुत्र राजू कहता है, "योगी बाबा सत्ता में आए थे तो लगा था कि हमारा कायाकल्प होगा। हमने सपने भी बुने थे कि अपना घर होगा और सरकारी सुविधाएं भी मिलेंगी, लेकिन हमारी आर्थिक और सामाजिक स्थिति पहले से भी ज्यादा बदतर हो गई है। पहले दोना-पत्तल बनाते थे और जिंदगी आसानी से कट जाती थी। जब से कागज के दोने-पत्तल आ गए हैं, तब से जिंदगी बदरंग हो गई है। अब कब्रें खोदते हैं और रसोई गैस के सिलेंडर ढोते हैं, तब हमारे 17 लोगों के परिवार को नसीब हो पाती है रूखी-सूखी रोटियां।"

बिंदर मुसहर की पत्नी कांति

चेहरे पर मोटी झुर्रियां और रंग-बिरंगी साड़ी पहने बिंदर की पत्नी कांति के चेहरे पर खीझ और गुस्सा साफ-साफ झलकता है। वह कहती हैं, "हमारा छुआ दलित भी नहीं खाते, क्योंकि हम दलित, नहीं महादलित हैं। कई बार शादी-विवाह के मौके पर बचे हुए भोजन से ही हमारा पेट भरता है। चुनाव आता है और पास-पड़ोस में नेता भी आते हैं। सबको दिलासा दे जाते हैं कि स्थितियां बदलेंगी,  लेकिन हमारे हालात तो आज तक नहीं बदले। हमारी माली हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती जा रही है। हमारे पास न शौचालय है, न डाक्टर हैं और न ही रोज़गार। लॉकडाउन ने हम पर बहुत कहर बरपाया। दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी मुहाल हो गया था उन दिनों।"

बिंदर की बहू छबीला भूरी आंखों में एक सख़्त उदासी नजर आती है। उसे इस बात की चिंता अभी से है कि बारिश के दिनों में वह कहां जाएगी?  बिना सवाल पूछे वह कहने लगीं, "हमारी झोपड़ी में झांककर देख तो लीजिए। क्या वह तेज बारिश झेल पाएगी? हमें तो कई दिनों से नींद ही नहीं आ रही है क्योंकि इसी महीने मानसून आएगा और बारिश भी होगी। हमारे पास तो कोई काम भी नहीं है। सभी मर्द और महिलाएं खाली हाथ बैठे हैं। कोरोना चला गया, लेकिन हमें भूख दे गया। दो वक्त की रोटी मयस्सर नहीं है। किसी तरह से कट रही है हमारी जिंदगी।"

कब्रिस्तान में रहने वाले बिंदर के कुनबे में औरतों के पिचके हुए गाल और बच्चों को देखकर कोई भी कह सकता है कि वे कुपोषण का शिकार हैं। बिंदर की बहू राधिका के बेटे की पिछले साल बीमारी और कुपोषण से मौत हो गई थी। बच्चों के साथ एक कब्र पर बैठी राधिका के पैरों में न तो चप्पल थी, न जिंदगी में कोई रंग। कहने लगीं, " हमें तो सरकारी राशन भी नहीं मिलता। हमारे पास न काम है, न पैसा। सब्जी तो हमारे नसीब में ही नहीं है।"

अंधविश्वास में फंसी राधिका कहती है, "कब्रिस्तान में रहते हुए हमें भूतों से बहुत डर लगता है। भूतों से बचने के लिए हमें महाबली देवता को छौना (सूअर का बच्चा) की बलि चढ़ानी पड़ती। मीट-मछली तो हमारे नसीब में है ही नहीं। मुर्गे की पाखी और लादी-पचौनी उबालकर खाते हैं। धान कटने के बाद ताल और खेतों से चूहे पकड़ते हैं। ये चूहे ही हमारी जिंदगी के खेवनहार हैं। हमारे बच्चों का स्कूल में दाखिला नहीं हुआ है। मिड डे मील योजना हमारे नसीब में नहीं है। कोरोना के बाद से तो रोपाई-कटाई के लिए भी कोई किसान हमें मजूरी देने के लिए नहीं बुलाता है। महीनों से हमारे पास कोई काम नहीं है। पहले जब काम मिलता था तो आदमी-औरत सब काम करते थे। हर किसी को रोज़ की सौ-दो सौ रुपये दिहाड़ी जरूर मिल जाया करती थी, लेकिन अब कुछ नहीं। बीमारी से हम भले ही नहीं मरे,  लेकिन बेरोज़गारी ने जिंदगी पहाड़ बना दी है।"

सत्ता को मुंह चिढ़ा रहीं कई बस्तियां

फुलवरिया में सिर्फ बिंदर का कुनबा ही नहीं, कई बस्तियां हैं जो आज भी डबल इंजन की सरकार का मुंह चिढ़ाती हैं। मुसहर समुदाय के सभी टोलों की कहानी एक जैसी ही है। फुलरिया में ट्रांसपोर्ट कंपनियों के तमाम गोदाम हैं। इन्हीं के बीच एक बस्ती है जो झुग्गियों में रहती है। फुलवरिया पेट्रोल पंप के सामने इस बस्ती में नंग-धड़ंग बच्चे और अधनंगे पुरुषों की फटेहाली बनारस की असली तस्वीर बयां कर देती हैं। यहां भी ज्यादातर बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इसी बस्ती में मुसहरों के आठ घर हैं जो सालों से खानाबदोशों की तरह जीवनयापन कर रहे हैं।

विकास के नाम पर मुसहर बस्ती के नसीब में इकलौता हैंडपंप।

फूलचंद, मुंशी, रमेश, संतोष, सुरेश, मुन्नू और राजा के परिवार के 40 लागों के पास अपना घर नहीं है। सरकारी सुविधाएं इनकी झुग्गियों में नहीं पहुंच पाई हैं। सरकारी सुविधाओं के नाम पर बस्ती में सिर्फ एक हैंडपंप है। सुरेश के आठ बच्चे इसी बस्ती में पलते हैं, जिनमें कोई स्कूल नहीं जाता। यहां पहुंचने पर लगता है कि स्कूल चलो अभियान सिर्फ मजाक भर है। बस्ती के ज्यादतर लोग सुबह काम पर निकल जाते हैं। घर में सिर्फ औरतें रहती हैं और बच्चे। कई ऐसे बच्चे जो जन्म तो लेते हैं, लेकिन नाम और पहचान मिलने से पहले ही परलोक सिधार जाते हैं।

फुलवरिया मुसहर बस्ती के भूरे की डेढ़ साल पहले बीमारी से मौत हो गई। घर की जिम्मेदारी पत्नी के कंधों पर आ गई। कहा जाता है कि इसी बीच रवि नामक युवक से उसके संबंध हुए। महिला पांच महीने की गर्भवती थी, तभी रवि उसे छोड़कर लापता हो गया। 15 मई 2022 को महिला ने एक बच्ची को जन्म दिया। इलाज के अभाव में महिला की मौत हो और बच्ची अनाथ। इन अनाथ बच्ची को बस्ती की विधवा रही हैं।

फूलचंद

बीमारी और अभाव के चलते फूलचंद अपना दिमागी संतुलन खो बैठा है। शरीर पर हड़्डियों का सिर्फ ढांचा है। हर आते-जाते लोग इस बस्ती को देखते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। बनारस की सरकार भी और आला अफसर भी।

बद से बदतर ज़िंदगी

दलितों में भी महादलित कहे जाने वाले मुसहर समुदाय के तक़रीबन 9.50 लाख लोग,  सदियों से यूपी के अलग-अलग हिस्सों में रहते हैं। सब के सब हाशिये पर हैं। ज्यादातर लोग भूमिहीन और उनकी जिंदगी बद से बदतर है। इस समुदाय के लोग दशकों से शिक्षा, पोषण और पक्के घरों जैसी मूलभूत सुविधाओं से महरूम है। यह कहानी पूर्वांचल के कुशीनगर, महाराजगंज, गाजीपुर, मऊ, आजमगढ़, बलिया, जौनपुर, चंदौली, प्रतापगढ़, सोनभद्र, मीरजापुर और इलाहाबाद की उन सभी मुसहर बस्तियों की है जहां हर आदमी जिंदा रहने के लिए जंग करता नजर आता है।

कहां है उज्ज्वला योजना की रसोई गैस?

बनारस के कोईरीपुर, दल्लीपुर, रमईपट्टी, औराब, सरैया, कठिरांव, असवारी, हमीरापुर, मारूडीह, नेहिया रौनाबारी, जगदीपुर, थाने रामपुर, बरजी, महिमापुर, सिसवां, परवंदापुर, सजोई, पुआरी खुर्द, मेहंदीगंज, शिवरामपुर, लक्खापुर सहित लगभग सभी मुहसर बस्तियों में वनवासी समुदाय के हजारों लोग जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं। इनका जीवन तो ख़ासतौर पर कभी न खत्म होने वाली अनगिनत चुनौतियों का एक अंतहीन सिलसिला है। इन बस्तियों में गरीबी है...भुखमरी है...और जीने की छटपटाहट भी है...।

बनारस की जिस किसी मुसहर बस्ती में जाएंगे, देखने से ही पता चल जाएगा कि वहां रहने वालों की जिंदगी कितनी बदतर है। जिस झोपड़ी में इनका पूरा परिवार रहता है, उसी में उनकी भेड़-बकरियां भी पलती हैं और भोजन भी बनता है। बारिश के दिनों में इनके घर टपकने लगते हैं, जिसे बनाने के लिए इनके पास पैसे ही नहीं हैं। ऐसा नहीं कि नाउम्मीदी सिर्फ़ कुछ ही मुसहर समुदाय के हाथ आती है। वह तो समूचे पूर्वांचल के मुसहर टोले में पसरी हुई है। पूर्वांचल में मुसहरों की बड़ी आबादी सिर्फ 50 रुपये से भी कम की आमदनी पर जिंदा हैं। किसी भी सरकारी योजना के इनके चौखट तक पहुंचने की कहानी दुर्लभ है। इन्हें हर दिन अगले दिन के भोजन के लिए संघर्ष करना पड़ता है। कुष्ठ रोग, टीबी जैसी बीमारियां तो इनके जीवन में रोजमर्रा की सच्चाई हैं।

दरअसल, पूर्वांचल की दलित जातियों में शामिल मुसहर जाति की अपनी विचित्र गाथा है। वे भूमिहीन हैं और सामाजिक रूप से बहिष्कृत भी। आए दिन वे राज्य सत्ता के निशाने पर रहते हैं। एक्टिविस्ट श्रुति नागवंशी कहती हैं, "मुसहर समुदाय की पीड़ा का दस्तावेजीकरण आज तक नहीं किया गया। यहां तक कि दलित साहित्य में भी वे हाशिये पर हैं। आज़ादी के दशकों बाद भी वे लोकतंत्र में सबसे निचले पायदान पर हैं। प्रायः सभी गांवों में मुसहर समुदाय आबादी की जमीन पर रहता है। जब जमीनों की कीमतें बढ़ने लगती हैं तो दबंग उन्हें वहां से हटाकर दूसरी जगहों पर बसने को विवश करना शुरू कर देते हैं। वो चाहते हैं कि मुसहर उनसे दूर और निछद्दम में रहें। पूर्वांचल के लोगों को पता है कि जौनपुर जिले के मुंगरा बादशाहपुर इलाके के गरियाव गांव में मुसहर बस्ती से सड़क गुजरी तो जमीन महंगी हो गई। आजादी के पहले से बसे मुसहरों को वहां से हटाने के लिए सामंतों ने एक दलित के खिलाफ दूसरी दलित जातियों को खड़ा किया और एक व्यक्ति की जीभ कटवा दी। पुलिस आई तो मुसहरों ने वही गवाही दी, जो वहां के दबंग सामंत चाहते थे।"

"गरीबी और मजबूरी से लेकर खान-पान में सब एक ही राह के राही हैं। इनके अंदर इस घेरे से निकलने की तड़प तो दिखती है, लेकिन उम्मीद की किरण नजर नहीं आ रही है। हर चुनाव में मुसहर बस्तियों में नेता पहुंचते हैं और आश्वासन की पंजीरी बांटकर चले जाते हैं। इनके सामाजिक-आर्थिक व शैक्षणिक परिवेश की बेहद धीमी रफ्तार इस बात का सुबूत देती है। यह हाल-फिलहाल का नहीं, दशकों का दंश है।"

बनारस के आयर में रहते हुए अपने गांव की मुसहर बस्ती में रहने वाले मुसहरों की जिंदगी बेहद करीब से देखने वाले पत्रकार राम दुलार यादव कहते हैं, "मुसहर! टाइटल जो हो, पर पहचान यही है। जहां तक चूहे खाने की बात है तो इसके पीछे गरीबी ही रही होगी। धीरे-धीरे यह कल्चर में शामिल हो गया। नई पीढ़ी इस पहचान से बाहर निकलना चाहती है, पर गरीबी आज भी वैसी ही है। थोड़ा बदलाव है, पर अभी बहुत वक्त लगेगा। भारतीय समाज में जाति ऐसी स्थिर वस्तु मानी गई है, जिसमें व्यक्ति की सामाजिक मर्यादा जन्म से तय होकर आजीवन अपरिवर्तनीय रहती है।"

सोनभद्र के वरिष्ठ पत्रकार शिवदास बताते हैं," पूर्वांचल के ज्यादातर मुसहर बस्तियों में सरकारी विकास से पहले शराब का ठेका पहुंच जाता है। नतीजा,  ज्यादातर लोग शराब के नशे की जद में आ जाते हैं और तबाही नई-नई पटकथाएं लिखती चली जाती है। सामाजिक स्तर पर इनका न तो उत्पीड़न रुकता है, न ही पुलिसिया दमन। मशीनीकरण के चलते दोना-पत्तल और डोली-बहंगी उठाने का काम छिना तो ईंट-भट्ठों पर मजूरी करना सीख गए, लेकिन लॉकडाउन के बाद से ज्यादतर लोगों के हाथ खाली हैं। बहुतों के पास अपना घर नहीं है।"

दलित बस्तियों को कैमरे की नजर से देखने वाले छायाकार अनुराग मौर्य कहते हैं, "उत्तर प्रदेश में मुसहरों को अनुसूचित जाति (एससी) के रूप में मान्यता प्राप्त है। वे अलग-अलग बस्तियों हाशिये पर जीवित रहते हैं। उनका पारंपरिक पेशा था चूहों को खेतों में दफनाना। बदले में उन्हें मिलता था चूहे के छेद से बरामद अनाज और उस अनाज को चाक पर रखने की मंजूरी। सूखे के समय ये चूहे ही इनके जीवन के खेवनहार बनते थे। बनारस के तमाम मुसहर परिवार आज भी ईंट भट्टों और कालीन के कारखानों में बंधुआ मजदूर के रूप में काम करते हैं।"

भूख को नकार देती है सरकार

उत्तर प्रदेश के वाराणसी, चंदौली और कुशीनगर के मुसहर समुदाय के दर्द का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां से 'भूख से मौत' से जुड़ी विवादित ख़बरों का आना सामान्य बात है। मुसहर समुदाय के उत्थान के लिए काम करने वाले नागरिक अधिकार कार्यकर्ता मंगला राजभर कहते हैं, "साल 2019 में कुशीनगर में पांच मुसहरों की मौत 'भूख' से हुई, लेकिन प्रशासन ने उनकी मौत का कारण 'बीमारी' बता दिया और 'भूख' को मौत की वजह मानने से इनकार कर दिया। जबकि भाजपा के विधायक रहे गंगा सिंह कुशवाहा ने 'कुपोषण और दवाओं की कमी' को इनकी मौत के लिए ज़िम्मेदार माना था।" वह यह बताते हैं, "28 दिसंबर 2016 को इसी जिले में मुसहर समुदाय के सुरेश और गंभा नाम के दो सदस्यों की मौत हो गई थी। बनारस में पिंडरा के रायतारा मुसहर बस्ती कहानी भी कुपोषण के इस इतिहास से अछूती नहीं है।"

मुसहर समुदाय के उत्थान के लिए काम करने वाले बनारस के जाने एक्टिविस्ट डॉ. लेनिन कहते हैं, "शोषण और उत्पीड़न अधिक होने के बावजूद उनके पक्ष में बहुत ऊंची आवाज नहीं उठाई जा सकी है। वे राजनीतिक रूप से कमजोर हैं और नेतृत्व की इसी कमी ने उनकी बातों को बड़ा सवाल बनने में बहुत बड़ी बाधा खड़ी की है। यूपी में मुसहरों पर फर्जी मुकदमे लादे जाते रहने और अनेक बार झूठी मुठभेड़ों के नाम पर पुलिस द्वारा हत्या कर दिए जाने के बावजूद शासन-प्रशासन में एक सतत चुप्पी देखने को मिलती है। चुनाव कोई भी हो, मुसहर बस्तियों में न कोई सियासी रंग दिखता है, न ही उत्साह।"

"साल 1952 में किराय मुसहर ने पड़ोसी राज्य बिहार में सोशलिस्ट पार्टी से मधेपुरा से चुनाव लड़ा और जीता भी। उसके बाद मिसरी सदा, नवल किशोर भारती, जीतन राम मांझी, भगवती देवी इस समुदाय से प्रभावशाली नेता के तौर पर सामने आए, लेकिन इस समुदाय के जीवन में कोई महत्वपूर्ण और व्यापक बदलाव ला पाने में वो असफल रहे। मुसहर समुदाय की जिंदगी में अभी बहुत अंधेरा है और अपनी गरीबी के कारण ये पुलिस और दबंगों के सबसे आसान शिकार हैं। इन्हें खेती और आवास के लिए जमीन देना सरकार का बड़ा कमिटमेंट था। सीलिंग की जिस जमीन के पट्टे दिए गए, उस पर कब्जे नहीं दिए, जिसके लिए इन्हें बेवजह जुल्म-ज्यादती का शिकार होना पड़ रहा है।"

मुसहरों की जिंदगी को काफी करीब से देखने वाली एक्टिविस्ट नीलम पटेल कहती हैं, "मुसहर समुदाय इतना पिछड़ा है कि सरकारी आंकड़ों में भी यह दर्ज नहीं कि उनकी संख्या कितनी है? जबकि बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि पूरे देश में इस समुदाय के 80 लाख लोग हैं। पूर्वांचल में इनकी संख्या लाखों में है। मुसहर जाति के लोग जहां भी ज्यादा संख्या में हैं वहां भेदभाव, अलगाव और गंदगी दिखाई देती है। ज्यादातर लोग खेतिहर मजदूर के रूप में काम करते हैं जिन्हें फसल न होने पर खेतों से चूहे और घोंघे पकड़कर खाना पड़ता है। पहले पूर्वांचल का समाज इनके जीवन-यापन का इंतजाम करता था। शादी-विवाह और अन्य अवसरों पर दोना-पत्तल का इंतजाम इनके ही जिम्मे था। अब बड़े-बड़े कैटरर्स ने इनकी जिंदगी को बदरंग कर दिया है। बची-खुची कसर कागज-प्लास्टिक का बर्तन बनाने वालों ने पूरी कर दी। ये जंगली पेड़ों की पत्तियों से बना दोना-पत्तल लेकर ये जाएं तो किसके पास जाएं।"

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 12 सितंबर 2018 को सोनभद्र की तीन ताली मुसहर टोले में पहुंचकर ऐलान किया था कि मुहिम चलाकर इस समुदाय के लोगों की जिंदगी बदली जाएगी। सबके पास घर होगा और सरकारी सुविधाएं भी। पांच साल गुजर जाने के बाद क्या सरकारी सुविधाएं मुसहरों के घर पहुंचीं?  बनारस में मुसहर समुदाय के लोगों का वह जख्म अभी तक नहीं भरा है जब पिछली दिवाली में सरकारी नुमाइंदों ने करसड़ा बस्ती पर बुलडोजर चलवा दिया था। जिस जमीन पर मुसहर समुदाय के लोग सालों से रह रहे थे और जो जमीन सरकारी नहीं थी उसे उजाड़ने के लिए सरकारी अमला करसड़ा पहुंच गया। मुसहरों के घर तो तोड़े ही गए, उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए खोला गया, स्कूल का कमरा भी ढहा दिया गया। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने मई 2022 में बजट में मुसहर समुदाय के लिए 508 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। मऊ के घोसी इलाके में 25 मई 2022 को मुसहर, नट और डोम-धरकार समुदाय के लोगों ने पहली मर्तबा धरना-प्रदर्शन करते हुए अपनी एकजुटता का परिचय दिया। इनकी अगुवाई कहते हुए अवधेश बागी ने कहा, "योगी सरकार हमें धोखा देती आ रही है। हर चुनाव में मुसहरों के वोटों की कीमत कुछ स्थानीय छुटभैये नेता वसूल लेते हैं। आजादी के बाद इनके उत्थान के लिए ठोस योजनाएं नहीं बनाई गईं। जो बनीं भी वह धरातल पर नहीं उतरीं।"

(बनारस स्थित लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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