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अयोध्या: राजनीति के कारण उपेक्षा का शिकार धर्मनिरपेक्ष ऐतिहासिक इमारतें

यह शहर सिर्फ़ मंदिरों ही नहीं मकबरों और स्मारकों से भी भरा हुआ है जो देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब या हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों के आपसी मेल का प्रतीक है। 
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शुजाउद्दौला का मकबरा

विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने भले ही अयोध्या को सांप्रदायिक राजनीति के प्रतीक के रूप में पेश किया हो, लेकिन उत्तर प्रदेश (यूपी) के इस छोटे से शहर को सदियों से भारत की मिश्रित संस्कृति का केंद्र माना जाता है। बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि पर शोर-शराबे वाली बहस के बावजूद, इस शहर के लोग अपने जोगियों और संतों का सम्मान करते हैं।

यह शहर सिर्फ़ मंदिरों ही नहीं मकबरों और स्मारकों से भी भरा हुआ है जो देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब या हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों के आपसी मेल का प्रतीक है। इस्लाम के पैगम्बरों और सूफी संतों की दरगाहों को तब तक आसानी से देखा नहीं जा सकता है जब तक कि आप पुराने समय के स्थानीय लोगों- हिंदू और मुस्लिम दोनों से- शहर के बीच और बाहरी इलाके में मौजूद इन दरगाहों के बारे में जानकारी हासिल न कर लें। 

एक स्थानीय हिंदू गाइड, न्यूज़क्लिक को शहर के सभी धार्मिक और ऐतिहासिक स्थलों का मार्गदर्शन कराता है और दुनिया को यह संदेश देने का दावा करता है कि अयोध्या, राम मंदिर और बाबरी मस्जिद से परे हटकर, दोनों समुदायों की आस्था का केंद्र है।

ऐतिहासिक स्थलों की कहानी बताती है कि कैसे अवध के नवाब शुजा-उद-दौला ने एक बार तत्कालीन इलाके की इस राजधानी पर शासन किया था, जिसे बाद में लखनऊ में स्थानांतरित कर दिया गया था, और कैसे इसकी किंवदंतियों को मलबे के नीचे दफन होने दिया गया था।

सात चरणों में होने वाले विधानसभा चुनाव के पांचवें चरण में 27 फरवरी को अयोध्या में मतदान होगा। विडंबना यह है कि अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के मुद्दे का न तो यहां के राजनीतिक अभियान में उल्लेख किया जाता है और न ही यह मतदाता समझते हैं कि यह चुनावों का मुद्दा हो सकता है। 

सूफी संतों के दरगाहें

हरगरा में सैयद इब्राहिम शाह की दरगाह है, जोकि अयोध्या का सबसे बड़ा तीर्थस्थल, और दोनों धर्मों के लोग अक्सर इसे देखने और दुआ मांगने यहां आते हैं। स्थानीय लोगों के अनुसार, शहर में कम से कम 80 सूफी तीर्थस्थल हैं, जिन्हें मथुरा और वाराणसी के बाद तीसरा सबसे महत्वपूर्ण हिंदू तीर्थ स्थल माना जाता है। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद के दंगों के दौरान कुछ को नष्ट कर दिया गया था- लेकिन उनमें से कई अभी भी बिना किसी खास रखरखाव के मौजूद हैं। 

प्रसिद्ध शेख जमाल 'गुज्जरी', जो फिरदौसिया सूफी संप्रदाय के थे, मुगल काल से पहले के एक अन्य मुस्लिम संत थे, तो अत्यधिक पूजनीय हैं। स्थानीय लोगों के अनुसार, वे अपने सिर पर चावल का एक बड़ा बर्तन लेकर गरीबों और निराश्रितों में बांटते थे।

दिल्ली के 14वीं शताब्दी के सूफी संत ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के अयोध्या में कई आध्यात्मिक उत्तराधिकारी रहे हैं। सूफी शेख नसीरुद्दीन चिराग-ए-दिल्ली, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें राजधानी में दफनाया गया था, उनमें से एक थे। उन्होंने औलिया के साथ रहने के लिए 40 के दशक में शहर छोड़ दिया था। शहर में उनके शिष्यों की कब्रें भी हैं।

बड़ी बुआ की कहानी

अयोध्या में महिला सूफी संतों के कुछ लोकप्रिय दरगाहों में से एक बड़ी बुआ की दरगाह है, या बड़ी बीबी, शेख नसीरुद्दीन चिराग-ए दिल्ली की बहन है। उनकी याद में बीबी की कब्र के पास बना एक अनाथालय अनाथों को शरण देता है और उन्हें मुफ्त शिक्षा प्रदान करता है।

बड़ी बुआ अनाथालय

सुंदरता के कारण निकाह के कई प्रस्ताव मिलने के बावजूद, उन्होंने खुद को गरीबों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया था। लोगों के मुताबिक, स्थानीय मौलवियों ने बीबी के निकाह से इंकार करने के कारण उन्हे बहुत परेशान किया था।

बड़ी बुआ का मकबरा

कोतवाल, जो बीबी की ओर आकर्षित हुए थे, ने उन्हें एक दूत के माध्यम से निकाह का प्रस्ताव भेजा। जब उसने दूत से बात करने से मना कर दिया और सीधे कोतवाल से मिलने की जिद की तो वह उसके घर पहुंच गया। जब कोतवाल से पूछा कि वे उनसे शादी क्यों करना चाहते हैं, तो कोतवाल ने कहा कि उसे उसकी आँखों से प्यार है। किंवदंती है कि उसने अपनी आँखें बाहर निकाल लीं और कोतवाल हैरान रहे गए। यह महसूस करते हुए कि बीबी कोई साधारण महिला नहीं हैं, बल्कि खुदा की सच्ची भक्त हैं, वे उनके चरणों में गिर गए और दया की भीख माँगी।

अयोध्या में इस्लाम के दो पैगम्बर हजरत नूह और हजरत शीश की दरगाह भी है। हजरत नूह ने पृथ्वी पर भारी बाढ़ से जीवन को बचाया और हजरत शीश हजरत आदम के पुत्र थे, जो पृथ्वी पर पहले व्यक्ति थे और पैदा होने वाले पहले बच्चे थे जो लगभग 1,000 सालों तक जीवित रहे।

हज़रत नूह की दरगाह 

अयोध्या पुलिस स्टेशन के पीछे स्थित हज़रत नूह की कब्र नवविवाहितों, विशेष रूप से हिंदुओं में बहुत लोकप्रिय है, जो एक सुखी वैवाहिक जीवन के लिए उनका आशीर्वाद लेने आते हैं। मुस्लिम और हिंदू दोनों भक्त हर गुरुवार को उनकी कब्र पर इबादत करते हैं। दुर्भाग्य से, शहर में इतिहासकारों की कमी है और यह बताने के लिए कोई शोध नहीं है कि वे भारत में कैसे पहुंचे और उन्हें यहां क्यों दफनाया गया था।

हजरत शीश की दरगाह

हज़रत नूह की कब्र की देखभाल करने वाले, जिसे नवगाज़ी के नाम से जाना जाता है, ने कहा कि विभिन्न धर्मों के लोग आध्यात्मिक उपचार के लिए दरगाह जाते हैं, खासकर तब जब उनके "अपने प्रियजनों पर बुरी आत्माओं का साया आता है"। उन्होंने कहा कि 1990 और 1992 में दंगाइयों ने कब्र पर हमला करने की कोशिश की थी, लेकिन आसपास के इलाके में आग की लपटों के बावजूद उन्हें इसके प्रवेश द्वार से लौटना पड़ा। उनके अनुसार तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने एक बार वादा किया था कि उनकी सरकार दुनिया भर से भक्तों को आकर्षित करने के लिए इस क्षेत्र का विकास करेगी। उन्होंने आरोप लगाया कि, "लेकिन मुलायम सिंह भी दक्षिणपंथी ताकतों की धमकी के आगे झुक गए।"

खुर्द मक्का 

एक प्रचलित कहानी के अनुसार अयोध्या में खुर्द मक्का (मिनी मक्का) नामक स्थान है। एक मुस्लिम शासक पवित्र काबा की नक़ल बनाना चाहता था, लेकिन अज्ञात कारणों से निर्माण पूरा नहीं हो सका। 

जब न्यूज़क्लिक ने स्थानीय लोगों से इस "अधूरे ढांचे" के बारे में बताने को कहा, तो उन्होंने कहा कि सड़क न होने के कारण वहां पहुंचना असंभव है। बहुत समझाने पर, स्थानीय लोग न्यूज़क्लिक के साथ उस स्थान पर जाने को तैयार हो गए, जो घने जंगल के अंदर है। सदियों पुरानी कुछ टूटी हुई कब्रों को छोड़कर ऐसी कोई संरचना वहां नहीं थी।

पुराने समय के लोगों ने कहा कि अयोध्या का इस्लाम और मुसलमानों से जुड़ाव 16वीं शताब्दी में बाबरी मस्जिद के निर्माण से बहुत पहले का है। अयोध्या एक धन्य शहर है और मुसलमान इसे खुर्द मक्का मानते हैं, उन्होंने कहा कि इसका एक बहुलवादी चरित्र है।

शुजा-उद-दौला की विरासत

घाघरा नदी के तट पर स्थित अयोध्या, जिसे पहले फैजाबाद के नाम से जाना जाता था, ये अवध के नवाबों से भी जुड़ा हुआ है। शुजा-उद-दौला, जो 1754 से 1775 तक नवाब थे, ने बक्सर की लड़ाई में अंग्रेजों द्वारा पराजित होने के बाद यहां दिलकुशा का निर्माण किया था।

दिलकुशा महल, जो दर्शाता है वह यह कि अपनी हार के बाद भी वे इस क्षेत्र को नियंत्रित कर रहे थे, उनकी मृत्यु तक यह उसका निवास था। 4.5 एकड़ में मुगल शैली की वास्तुकला में निर्मित, इसकी दीवारों को लाखोरी ईंटों और मिट्टी का इस्तेमाल करके बनाया गया था। संरचना के अधिकांश हिस्से खंडहर हैं। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो द्वारा दवाओं के निर्माण के लिए ड्रग लाइसेंस जारी करने के लिए इसके एक हिस्से का इस्तेमाल शुरू करने के बाद महल को अब अफीम कोठी के नाम से जाना जाता है।

दिलकुशा, अब अफीम कोठी, जो कभी शुजाउद्दौला का ठिकाना था

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा संरक्षित एकमात्र विरासत गुलाब बारी (गुलाबों का बगीचा) है, जो विभिन्न प्रकार के फूलों और एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल के लिए जाना जाता है। इसमें शुजा-उद-दौला का एक शानदार मकबरा भी है।

नवाब के शासनकाल के दौरान महत्वपूर्ण धार्मिक कार्यों की मेजबानी के लिए गुलाब बारी का इस्तेमाल किया जाता था। वास्तुकला की इस्लामी शैली में निर्मित, भव्य मकबरा यूपी में सबसे अच्छी तरह से डिजाइन किए गए स्मारकों में से एक है।

प्रवेश द्वार पर राष्ट्रीय प्रतीक के साथ एक बड़ा स्तंभ है। एक सुव्यवस्थित पैदल मार्ग, जिसके दोनों ओर लहराते नारियल के पेड़ लगे हैं, जो एक प्राचीन धनुषाकार प्रवेश द्वार की ओर जाता है। बगीचे में एक सुंदर मस्जिद और एक छोटा सा प्रहरीदुर्ग भी है जो इसके ठीक बगल में खड़ा है। मकबरे के धनुषाकार मार्ग से घूमने पर एक आकर्षक अनुभव होता है।

भव्य मोती महल, जो शुजा-उद-दौला की पत्नी बहू बेगम का घर था, भी देखने लायक है। एक सुव्यवस्थित बगीचे से घिरा, महल मुगल वास्तुकला के एक बेहतरीन नमूने के रूप में खड़ा है और अयोध्या की रियासत के अतीत के बारे में बताता है। उनका मकबरा जवाहर बाग में स्थित है और इसे अवध की सबसे अच्छी इमारतों में से एक माना जाता है। उस वक्त इसके निर्माण में करीब 3 लाख रुपये की लागत आई थी।

बौद्ध धर्म के निशान

बौद्ध भी अयोध्या को अपना पवित्र शहर होने का दावा करते हैं। इसे पहले कोसल या साकेत के रूप में जाना जाता था, बौद्ध परंपरा के अनुसार, अयोध्या भगवान बुद्ध के पिता शुद्धोधन के शासनकाल के दौरान प्रमुख शहरों में से एक हुआ करता था।

कहा जाता है कि चीनी यात्री फा-हियान ने पांचवीं शताब्दी में अयोध्या का दौरा किया था और उन्हें शहर में भगवान बुद्ध की एक दांत की छड़ी मिली थी जो कि सात हाथ जितनी लंबाई की थी। एक अन्य चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनसांग ने दो सदियों बाद अयोध्या का दौरा किया और कुछ 3,000 बौद्ध भिक्षुओं को देखा, जिनमें शहर के अन्य निवासियों की एक छोटी संख्या अन्य धर्मों का पालन करती थी। कहा जाता है कि उस समय अयोध्या में करीब 100 बौद्ध मठ और 10 बड़े बौद्ध मंदिर थे।

अवध की सामजस्यपूर्ण संस्कृति खत्म हो गई?

अयोध्या: सिटी ऑफ फेथ, सिटी ऑफ डिसॉर्डर के लेखक वलय सिंह ने कहा कि राम जन्मभूमि-बाबरी विवाद ने "अवध की समन्वित संस्कृति को पूरी तरह से ढंक दिया है". उन्होंने आगे कहा कि "यह हमारा कर्तव्य है कि हम इस सह-अस्तित्व को याद रखें और भावी पीढ़ियां के लिए इसका जश्न मनाएं।"

"इसमें विरोधाभास हैं। लेकिन अगर हम एक प्रगतिशील समाज बनना चाहते हैं, तो हमें साझा विरासत पर जोर देना होगा। यह चौंकाने वाली बात है कि हमने अयोध्या और फैजाबाद जैसे स्थलों को बढ़ावा देने के बारे में नहीं सोचा जो गंगा-जमुनी संस्कृति के प्रतीक हैं। सिंह ने बताया कि, इसका संभावित कारण विरासत के संरक्षण के प्रति उदासीनता और अल्पकालिक राजनीतिक लाभ के कारण ऐसे साझा विरासत स्थलों को विकसित करने की अनिच्छा हो सकती है - यह विशेष रूप से 1980 के दशक के बाद सच है।”

सिंह ने कहा कि हिंदू राष्ट्र के विचार ने इतिहासलेखन और संरक्षण को गडबड़ा दिया है। "हालांकि, एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में, यह महसूस करना चाहिए कि आगे का रास्ता वह है जिसे साझा किया जाना चाहिए जो कि सार्वभौमिक है। एएसआई को खुद का गैर-राजनीतिकरण करना चाहिए और हमारी विरासत को संरक्षित और बढ़ावा देना चाहिए, न कि केवल जो सरकार को सूट करता है वह करे।” 

सिंह ने आगे कहा- आखिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में यह दर्ज़ किया गया है कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि बाबरी मस्जिद बनाने के लिए राम की जन्मभूमि को नष्ट कर दिया गया था।

न्यूज़क्लिक ने अयोध्या के भूले हुए ऐतिहासिक स्थलों पर उनकी टिप्पणियों के लिए एएसआई अधिकारियों से संपर्क किया, लेकिन उनमें से कोई भी टिप्पणी करने को तैयार नहीं था।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें: 

UP Elections: Preservation of Ayodhya’s Secular Culture Takes Backseat

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