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यूपी: डूबती भाजपा को तालिबान का सहारा!

भाजपा को चुनाव में तालिबान के मुद्दे का सहारा लेना पड़ रहा। इससे साफ़ है कि उसे अपनी जमीनी स्थिति का अंदाजा हो गया है।
यूपी: डूबती भाजपा को तालिबान का सहारा!
प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार: The Financial Express

तालिबान के बहाने गोदी मीडिया जिस तरह से भारतीय मुसलमानों पर सवाल खड़े कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को खाद-पानी देने की कोशिश में जुट गया है, उससे लगता है कि सरकार को अपने कामकाज पर भरोसा नहीं है और वह किसानों के आंदोलन से दहली हुई है। दूसरे कोरोना काल में जान-माल का भारी नुकसान झेल चुकी आम जनता अब बेतहाशा बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी त्रस्त है। भविष्य में भी उसे अपनी तकलीफें कम होती नजर नहीं आ रही हैं। सरकार और भाजपा के रणनीतिकार इस जमीनी सच्चाई को अच्छी तरह समझ रहे हैं।

ध्यान रहे कि जब से किसानों ने यह घोषणा की है कि वे चुनाव के दौरान यूपी के गांव-गांव में अपना अभियान शुरू करेंगे, तब से गोदी मीडिया में उन सभी गैरजरूरी मुद्दों पर बहस तेज हो गई है, जो ध्रुवीकरण की राजनीति के लिए जमीन तैयार करते हैं।

पिछले तीन माह के दौरान छोड़े गए शगूफों पर एक नजर डालें तो पूरी तस्वीर अपने आप साफ हो जाती है। मसलन जून के पहले हफ्ते में सहारनपुर में एक हैंडपंप को हिंदू- मुस्लिम का विवाद बना दिया गया और इस पर खूब हंगामा हुआ। फिर इसी बीच गाजियाबाद में एक बुजुर्ग दाढ़ी काटने की घटना हुई और साथ ही साथ यूपी में रोहिंग्या घुसपैठ का भी मामला उछाला गया। इसके बाद उमर गौतम और मुफ्ती जहांगीर कासमी नाम के दो लोगों की गिरफ्तारी हुई और धर्मांतरण पर जोरशोर से बहस शुरू हो गई। दावा किया गया कि धर्मांतरण का रैकेट बहुत बड़ा है, जिसमें 100 लोग शामिल थे और करीब 1,000 लोगों का धर्म परिवर्तन कराया गया है, लेकिन वे कौन लोग थे और इस मामले की जांच में क्या निकला? किसी को पता नहीं है। वैसे धर्मांतरण व लव जिहाद गोदी मीडिया के प्रिय व सदाबहार मुद्दे हैं, जिन पर हर तीसरे-चौथे दिन एक सोची-समझी रणनीति के तहत टीवी डिबेट कराई जाती है।

बहरहाल, इसके बाद जुलाई के पहले हफ्ते में यूपी एटीएस ने काकोरी में दो लोगों को पकड़ा जिनके बारे में बताया गया कि अलकायदा से जुड़े आतंकवादी हैं। ठीक इसी समय पर जनसंख्या नीति का ड्राफ्ट भी आ गया और फिर इन दोनों मुद्दों पर जोरशोर से खबरों व डिबेट्स का सिलसिला शुरू हो गया। इसमें कोई दो राय नहीं कि यदि आतंकवादी या डाकू पकड़े जाते हैं या कोई अन्य घटना होती है तो उसकी खबरें देना और विश्लेषण करना मीडिया का काम व उसका अधिकार है, लेकिन जब उसकी आड़ में राजनीतिक एजेंडा चलाया जाता है और वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिए समाज के किसी वर्ग को निशाना बनाया जाता है तो उससे सामाजिक एकता तो चोट पहुंचती है। वर्तमान में तो तालिबान मुद्दा है, लेकिन करीब 3 माह पहले फिलिस्तीन था।

मई में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जब देश में आक्सीजन के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई थी तो ठीक उसी समय इजरायल ने हमास को निशाना बनाने के बहाने फिलिस्तीन पर बड़े हमले किए थे, जिसमें वहां के कई मासूम नागरिकों और बच्चों की भी जाने गई थीं। उस समय भारत में कुछ टीवी चैनल निहत्थे फिलिस्तीनियों को आतंकवादी और इजरायलियों को महान व शूरवीर साबित करने में जुटे थे। वे यह भी भूल गए कि फरवरी 2018 में ही पीएम मोदी ने फिलिस्तीन का दौरा किया था, जिसमें दोनों देशों के रिश्तों को और मजबूत बनाने की बात हुई थी। दूसरे आज तक किसी फिलिस्तीनी की जुबान से भारत के खिलाफ एक भी शब्द नहीं सुना गया है। फिर फिलिस्तीनियों को प्रति नफरत का यह भाव क्यों?

वैसे यह मसला सिर्फ मुसलमानों व अन्य धर्मिक अल्पसंखयकों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका एक उदाहरण दलितों और विशेषरूप से भीमा कोरेगांव के मामले में भी देखा जा सकता है। स्थिति तो अब यहां तक पहुंच गई है कि कानपुर में रिक्शा चालक की पिटाई हो य़ा दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुई भड़काऊ नारेबाजी, इस जैसी घटनाएं इतनी आम हो गईं हैं कि अब लोग भी इन पर ज्यादा ध्यान भी नहीं देते हैं। जिलों व जगहों के नाम बदलना तो रूटीन के कार्यक्रम जैसा हो गया है। कहा जा रहा है कि सज्जाद नौमानी और शफीकुर्ररहमान बर्क जैसे लोगों ने अपनी दुकान चमकाने के लिए जो निजी टिप्पणियां की है, उससे मामले ने तूल पकड़ लिया है। वैसे इन दोनों लोगों ने कुछ न भी बोला होता तो भी इस चुनावी मौसम में किसी न किसी रूप में तो इसे होना ही था।

उपरोक्त मुद्दे भले ही पुराने व घिसे-पिटे लगते हों, लेकिन यह ध्रुवीकरण की राजनीति को बढ़ाने के लिए ‘टूलकिट’ की तरह काम करते हैं, हालांकि कुछ राज्यों में यह विफल भी हुए हैं। दिल्ली और प. बंगाल विधानसभा चुनाव इसका बड़ा उदाहरण हैं। दिल्ली में चुनाव प्रचार के दौरान ‘गोली मारो...’ जैसे नारे लगे और बटन दबाकर शाहीनबाग आंदोलन को करंट का झटका देने समेत तमाम किस्म की बातें कहीं गई, लेकिन जनता ने वही किया जो उसे बेहतर लगा। इसी तरह प. बंगाल के चुनाव में भी ध्रुवीकरण के लिए भरसक प्रयास किए गए, लेकिन जनता ने उसे उस पर कोई तवज्जों नहीं दी। अब यूपी जैसे बड़े और महत्वपूर्ण राज्य में चुनाव होने वाला है, जिसमें पीएम मोदी, सीएम योगी समेत समूची भाजपा की साख दांव पर लगी हुई है। यदि यहां वह चुनाव हार जाती है और अन्य राज्यों में भी उसकी सीटें घटती हैं, तो वर्ष 2022 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए के प्रत्याशी की राह मुश्किल हो जाएगी।

यही कारण है कि पार्टी ने राज्य में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। भाजपा ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग में भी कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी है। एक तरफ उसने यूपी के कुछ ओबीसी व दलित नेताओं को केंद्र में मंत्री पद दिया है तो यूपी की योगी कैबिनेट को लेकर कुछ इसी तरह की तैयारी है। चर्चा है कि कुछ ब्राह्मण चेहरों को भी कैबिनेट में जगह दी जाएगी, ताकि इस वर्ग के वोटरों की नारजगी दूर हो सके। ओबीसी आरक्षण से संबंधित कानून भी पारित करवा दिया है। टीवी व अखबार से लेकर रेलवे और बस स्टेशनों पर 4 लाख नौकरी, मुफ्त राशन व वैक्सीन और यूपी नं-1 के नारे वाले के विज्ञापनों की भरमार है। यहां तक दूसरे राज्यों में भी यूपी सरकार की होर्डिंग लगवा दी गई हैं। इतना सब कुछ होने के बावजूद यदि भाजपा को चुनाव में तालिबान के मुद्दे का सहारा लेना पड़ रहा तो इससे साफ है कि उसे अपनी जमीनी स्थिति का अंदाजा हो गया है।

रहा सवाल अफगानिस्तान के घटनाक्रम का तो उसे लेकर भारत समेत पूरी दुनिया में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, बहुलवाद, सह-अस्तित्व और सहिष्णुता में विश्वास रखने वाला हर व्यक्ति तालिबान के बारे में चिंतित है। इसके इतिहास को देखते हुए कोई भी यह मानने को तैयार नहीं है कि तालिबान अभी बदलने वाला है। पूरी दुनिया देख रही है कि वह अफगानों, विशेषकर महिलाओं और देश की विविध आबादी के साथ कैसा व्यवहार करता है, जो निश्चित रूप से इसके उदय का विरोध करेंगे।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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