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उत्तर प्रदेश चुनाव: डबल इंजन की सरकार ने शहरी नौजवानों को उनके हाल पर छोड़ा

सरकारी रिपोर्टों के मुताबिक़, उत्तर प्रदेश में 15-29 वर्ष की आयु के शहरी नौजवान घातक बेरोज़गारी का सामना कर रहे हैं। इस बेरोज़गारी की दर पिछले तीन सालों से 20% से ज़्यादा है।
unemployment

विधानसभा चुनाव का आख़िरी बिगुल बज चुका है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और पूरी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपनी सरकार या पार्टी संचालित प्रचार तंत्र के ज़रिये केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी के शासन वाले 'डबल इंजन' की सरकार के होने का फ़ायदा उठा रहे हैं। मगर, सवाल है कि क्या इसका वास्तव में लोगों को कोई फ़ायदा पहुंचा  है? यक़ीनन, यह सरकार रोज़गार के बड़े मुद्दे पर यह काम करती हुई नहीं दिखती है।

यह नाकामी शहरी नौजवानों में तो एकदम साफ़ तौर पर दिखायी दे रही है। सिर्फ़ शहरी रोज़गार को शामिल करने वाले पीरियोडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे (PLFS) की नवीनतम तिमाही रिपोर्ट के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश के शहरी नौजवानों में बेरोज़गारी ठीक 23% से ऊपर थी। इसका मतलब यह है कि 15 से 29 साल की उम्र के तक़रीबन एक चौथाई नौजवानों को बेरोज़गार के तौर पर चिह्नित किया गया है।

जैसा कि नीचे दिये गये ग्राफ़ (पिछली तिमाही रिपोर्टों से लिया गया) से दिखता है कि यह स्थिति पिछले लगभग तीन सालों से बनी हुई है। यह तो महामारी से पहले का है। 2018-19 की तीसरी तिमाही (अक्टूबर से दिसंबर) में उत्तर प्रदेश में शहरी युवा बेरोज़गारी में आयी यह गिरावट 29% की हैरतअंगेज़ दर से गिर रही थी, जो भारत के उस औसत से काफ़ी ज़्यादा थी, जो तक़रीबन 24% के संकटपूर्ण स्तर पर थी। अप्रैल-मई-जून 2020 में पहले लॉकडाउन को छोड़कर उत्तर प्रदेश की युवा बेरोजगारी दर इस अवधि के ज़्यादतर समय के लिए भारत के औसत से ज़्यादा रही है।

इस वार्षिक पीएलएफ़एस में ग्रामीण और शहरी दोनों ही इलाक़ों में फैले तक़रीबन 4.2 लाख लोगों को शामिल करते हुए एक लाख से ज़्यादा परिवारों के नमूना सर्वेक्षण को शामिल किया गया है। यह उस राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सांख्यिकी मंत्रालय के तहत) की ओर से प्रकाशित किया जाता है, जो तिमाही रिपोर्ट भी प्रकाशित करता है, जिसमें 1.7 लाख लोगों के नमूने का सर्वेक्षण किया जाता है।

बेरोज़गारी के ये चौंकाने वाले स्तर तब और ज़्यादा चिंता पैदा करने वाले हो जाते हैं,जब इस बात पर ध्यान जाता है कि ये उससे निकले हैं,जिसे 'करेंट विक्ली स्टेटस' या सीडब्ल्यूएस के रूप में जाना जाता है। इसके तहत उस व्यक्ति को काम पर लगे हुए रूप में परिभाषित किया जाता है,जिसने सर्वेक्षण किये जाने वाले दिन के पहले वाले पूरे सप्ताह में एक घंटे का काम किया हो।

इस परिभाषा से कोई भी बेरोज़गारी की गहराई की कल्पना कर सकता है कि 20% से ज़्यादा युवाओं को एक सप्ताह में एक घंटे का काम भी नहीं मिल रहा है! बाक़ी नौजवान, जो 'नियोजित' के रूप में योग्य हैं, हो सकता है कि उन्होंने सप्ताह में दो घंटे से लेकर पूरे सप्ताह तक किसी भी समय तक के लिए ही काम किया हो।

कुल बेरोज़गारी भी बहुत ज़्यादा

शहरी युवा बेरोज़गारी की उच्च दर उन स्थितियों में मौजूद है, जहां कुल बेरोज़गारी दर भी बहुत ज़्यादा है, जैसा कि नीचे दिया गया ग्राफ़ (पीएलएफएस वार्षिक रिपोर्ट से लिया गया) दिखाता है।

काम की यह अवधि पूरी आबादी, यानी कि 15 साल से ऊपर के सभी लोगों, और फिर यह सीडब्ल्यूएस के लिए भी है ,यानी प्रति सप्ताह एक घंटे का काम। पिछले तीन सालों से लगातार कामकाजी उम्र की आबादी के 8-9% लोगों के बेरोज़गार होते जाने के चलते परिवार अभूतपूर्व आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं। ग़ौरतलब है कि इसमें कृषि क्षेत्र भी शामिल है, जो कि एक वरदान की तरह रहा है। इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में लोग बेरोज़गार हुए हैं।इन बेरोज़गारों में लॉकडाउन के दौरान वापस हुए प्रवासी मज़दूर भी शामिल है। बड़े पैमाने पर भुखमरी को रोकने वाले इस तरह के आधार के बावजूद यूपी जैसे बड़े राज्य में 8-10% बेरोज़गारी डबल इंजन वाली सरकार की एक स्पष्ट नाकामी है।

फ़ेल हुआ डबल इंजन

जैसा कि दिये गये ग्राफ़ से पता चलता है कि मोदी हों या योगी, बेरोज़गारी की स्थिति जस की तस बनी हुई है। ये दो इंजन शहरी नौजवानों को ग़रीबी और अपमान की यातना की ओर ले जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें जीवित रहने के लिए या तो अपने बुज़ुर्ग माता-पिता पर निर्भर रहना पड़ रहा है या फिर दोस्तों और रिश्तेदारों से उधार लेना पड़ रहा है। यही उस बड़े "जनसांख्यिकीय हिस्से" की बदनसीबी ही है, जिसके बारे में कई लोग दावा करते हैं कि कामकाजी उम्र की यह नौजवान आबादी देश की उत्पादकता के लिहाज़ से अहम है।

इसमें चकित करने वाली कोई बात नहीं है कि योगी और मोदी दोनों ने अपनी-अपनी सरकारों को एक ही रास्ते पर चलाया है। आख़िर वे एक ही आर्थिक नीतियां भी तो अपनाते रहे हैं। नई दिल्ली में अपने उस्ताद से सीख लेते हुए योगी आदित्यनाथ ने राज्य में निजी निवेश को लुभाने की ख़ातिर लखनऊ में भव्य निवेशक शिखर सम्मेलन आयोजित किये हैं, इस सरकार ने निजी क्षेत्र को प्राथमिकता देते हुए कल्याणकारी योजनाओं पर सरकारी ख़र्च को बेहद कम कर दिया है, पैसे बचाने के लिए काम को आउटसोर्सिंग और अनुबंधित कर दिया है, श्रम क़ानूनों को कमज़ोर कर दिया है (वास्तव में यूपी सरकार ने महामारी के बाद सभी औद्योगिक कानूनों को निलंबित कर दिया है), गन्ना जैसे कृषि उत्पादों के समर्थन मूल्य बढ़ाने को लेकर अनिच्छा दिखायी है, और हज़ारों सरकारी पदों को खाली छोड़ रखा है। योगी आदित्यनाथ की ये तमाम चीज़ें काफ़ी हद तक पीएम मोदी की उनकी आर्थिक नीतियों से मिलती-जुलती हैं।

इन आर्थिक नीतियों से न सिर्फ़ बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी पैदा हुई है, बल्कि महामारी से हुई तबाही में भी अनकहे संकट पैदा किये हैं। स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की कमी के साथ-साथ पोषण कार्यक्रम और अपर्याप्त सामाजिक सुरक्षा लगभग न के बराबर रह गये है, लोगों को बहुत हद तक उनके ख़ुद के हाल पर छोड़ दिया गया है।

पिछली जनगणना (2011) में यूपी के शहरीकरण की दर तक़रीबन 22% थी। 2021 में इसकी अनुमानित आबादी लगभग 23 करोड़ की थी,जिसका मतलब है कि तक़रीबन 5.1 करोड़ लोग शहरी क्षेत्रों में रह रहे थे। इन शहरी क्षेत्रों का विस्तार बड़े शहरों (जैसे लखनऊ, वाराणसी, कानपुर, मेरठ, गोरखपुर, आदि) से लेकर छोटे-छोटे शहरों और 'नगर पंचायत' तक हो सकता है। बेशक, यह किसी भी राज्य की सबसे बड़ी शहरी आबादी है, हालांकि कुल आबादी के एक हिस्से के रूप में ऐसा नहीं है। इस मुखर और आकांक्षी तबके में उच्च बेरोज़गारी का मतलब होगा-इस 'डबल इंजन' की सरकार से मोहभंग का बढ़ना, क्योंकि केंद्र और राज्य, दोनों ही सरकारों ने वोट मांगते समय बड़ी संख्या में नौकरियों का वादा किया था। ऐसे में आने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा को शहरी क्षेत्रों में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

UP Elections: Double Engine Has Left Urban Youth Stranded

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