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आर्थिक मंदी को भी समझिए नहीं तो लाखों नौकरियों का वादा चुनावी जुमला बनकर रह जाएगा!

अर्थव्यवस्था के आंकड़े और चुनावी जीत में विपरीत संबंध दिख रहा है। भाजपा शासित केंद्र सरकार की नीतियों की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे कुएं में चली गई है और चुनावी राजनीति में भाजपा चौके छक्के लगा रही है।
आर्थिक मंदी
Image courtesy: SocialCops

किताबों में लिखा रहता है कि राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज तीनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। इन तीनों के बीच जब परस्पर संतुलन की खींचतान होती है तो सबका भला होता है। लेकिन अब ऐसा नहीं है। राजनीति में चुनावी राजनीति बहुत अधिक हावी हो चुकी है। चुनावी राजनीति में जिसकी जीत है वही सब कुछ है। भले अर्थव्यवस्था और समाज रसातल में क्यों ना चला जाए?

ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि हाल फिलहाल आए अर्थव्यवस्था के आंकड़े और चुनावी जीत में इसी तरह का संबंध दिख रहा है। भाजपा शासित केंद्र सरकार की नीतियों की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे कुएं में चली गई है और चुनावी राजनीति में भाजपा चौके छक्के लगा रही है।

आरबीआई की मासिक रिपोर्ट आई है। रिपोर्ट कहती है कि भारत की अर्थव्यवस्था तकनीकी तौर पर रिसेशन यानी मंदी के हालात से गुजर रही है। भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर मौजूदा समय में 0 से तकरीबन 8.6 फ़ीसदी नीचे है। जीरो से कम की विकास दर तकनीकी तौर पर कांट्रेक्शन यानी अर्थव्यवस्था के सिकुड़ने की स्थिति कही जाती है। वित्त वर्ष साल 2020-21 में लगातार दो तिमाही में भारत की अर्थव्यवस्था शून्य से नीचे रही है।

आरबीआई का कहना है कि भारत के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि भारत की अर्थव्यवस्था लगातार दो तिमाही में शून्य से नीचे की दर से बढ़ रही है। अब आरबीआई का साफ-साफ कहना है कि लगातार दो तिमाही में शून्य से नीचे की भारतीय अर्थव्यवस्था तकनीकी तौर पर मंदी यानी रिसेशन के दौर में पहुंच चुकी है।

इससे पहले नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस के द्वारा 31 अगस्त को अप्रैल से लेकर जून तक के अर्थव्यवस्था के हालात पर आंकड़े जारी किए गए थे। इन आंकड़ों के मुताबिक भारत के अर्थव्यवस्था की रफ्तार - 23.9 फ़ीसदी आंकी गई थी। इसके बाद अब जाकर आरबीआई द्वारा जुलाई से लेकर सितंबर तक के अर्थव्यवस्था के हालात पर आंकड़े जारी किए गए हैं।

जिसके मुताबिक भारत की अर्थव्यवस्था टेक्निकली मंदी के दौर से गुजर रही है। अर्थव्यवस्था की भाषा में जब लगातार दो तिमाही तक अर्थव्यवस्था की रफ्तार जीरो से कम यानी कॉन्ट्रक्शन के दौर से गुजरती है तो अर्थव्यवस्था को तकनीकी तौर पर मंदी से गुजर रही अर्थव्यवस्था मान लिया जाता है।

हालांकि आरबीआई का कहना है कि अक्टूबर से दिसंबर महीने में भारत की अर्थव्यवस्था 0 से ऊपर चले जाने की संभावना बनती दिख रही है। कोरोना की वजह से दुनिया और भारत की अर्थव्यवस्था में आई खतरनाक किस्म की उथल-पुथल धीरे-धीरे ठीक हो रही है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अर्थव्यवस्था को अपने हाल पर छोड़ दिया जाए। अभी भी ऐसे बहुत सारे कारक हैं जो अर्थव्यवस्था को शून्य से नीचे की विकास दर वाली स्थिति में रख सकते हैं।

अर्थव्यवस्था से जुड़े इन खबरों को पढ़कर लोगों की पहली प्रतिक्रिया होती है कि अर्थव्यवस्था का बुरा हाल कारोना की वजह से हुआ है और सरकारी संस्थाएं जैसे कि आरबीआई कह रही है कि धीरे-धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा। ज्यादा चिंता की बात नहीं है लेकिन ऐसा नहीं है।

चिंता की बात जरूरी है। इसलिए जरूरी है ताकि हम जान सके कि चुनावी माहौल में 10 लाख और 19 लाख नौकरियां देने का जो जुमला पक्ष और विपक्ष की तरफ से बोला जाता है, वह कभी पूरा क्यों नहीं हो पाता? या ऐसे जुमलो की पूरे होने की संभावना बहुत कम क्यों लगती है?

याद कीजिए कोरोना के पहले की खबर कि कार से बाज़ार भरे हैं लेकिन उन्हें कोई खरीदने वाला नहीं है। पारले जी के बिस्कुट दिख नहीं रहे हैं। लेकिन सरकार यह मानने से साफ इंकार कर रही थी कि अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही है। बेकारी की दर 45 साल में सबसे अधिक होकर 6.1 फ़ीसदी हो चुकी है और यह रुकने का नाम नहीं ले रही। फरवरी 2019 में यह 8.75 फ़ीसदी के रिकॉर्ड पर पहुंच गई।

साल 2013 से लेकर 2020 के बीच प्रति व्यक्ति खर्च बढ़ोतरी दर 7 फ़ीसदी सालाना रही और प्रति व्यक्ति आय बढ़ोतरी दर 5.5 फ़ीसदी रही। यानी खर्चा कमाई से ज्यादा हो रहा था। बचत कम हो रही थी। कर्ज का बोझ बढ़ रहा था। बैंक टूट रहे थे। एक दशक पहले जो कर्ज चुकाने के लिए पर्याप्त बचत हुआ करती थी वही बचत पिछले 10 सालों में कम पड़ लगी और कर्ज का आकार दोगुना हो गया।

यानी अर्थव्यवस्था पहले से ही डूबी हुई थी और इस डूबी हुई अर्थव्यवस्था में कोरोना महामारी आई और अर्थव्यवस्था को वहां ले गई जहां वह साल 1980 के बाद से अब तक नहीं थी।

अर्थव्यवस्था के जानकारों का कहना है कि आर्थिक शब्दावली में कहा जाए तो भारतीय अर्थव्यवस्था रिसेशन के दौर में पहुंच चुकी है। आसान शब्दों में समझा जाए तो भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह से सिकुड़ चुकी है और जहां से इसकी शुरुआत होती है उससे भी गहरी खाई में गिर चुकी है। यानी नकारात्मक स्थिति में पहुंच चुकी है। दुनिया की किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए लगातार दो तिमाही तक कॉन्ट्रक्शन की यह स्थिति बहुत खराब होती है।

तकरीबन 8 फ़ीसदी के गिरावट का साफ मतलब है कि पहले अगर भारत में 100 रुपये का सामान उत्पादित होता था तो अब केवल 92 रुपये का सामान उत्पादित हो रहा है। इसलिए सबसे पहले तो 100 रुपये के उत्पादन पर आना होगा उसके बाद आगे बढ़ने की बात होगी। इसलिए यह स्थिति बहुत खराब है।

अर्थव्यवस्था में 1 से 2 फ़ीसदी की बढ़ोतरी लाने के लिए निवेश की कितनी योजनाएं सामने आती हैं, निवेश को लेकर कितनी चर्चाएं होती हैं तो जरा सोचिए कि अगर अर्थव्यवस्था अपनी शुरुआती बिंदु से 8 फ़ीसदी नीचे गिर चुकी हो तब कितने निवेश की जरूरत होगी। यह ज़मीन में धंस जाने की तरह है।

कोविड-19 से पहले भारत की विकास दर तकरीबन 3 फ़ीसदी के आसपास थी। यहां तक पहुंचने के लिए इस साल की हर तिमाही में तकरीबन 29 से 30 फ़ीसदी के विकास दर की जरूरत होगी। जोकि पूरी तरह से असंभव दिख रहा है।

अब सवाल यह भी उठता है कि 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज का अर्थव्यवस्था को कुछ फायदा हुआ या नहीं। आंकड़ों से साफ है कि 20 लाख करोड़ के नाम पर लोगों को देने के लिए प्रावधान किए गए दो से तीन लाख करोड़ रुपए का भारतीय अर्थव्यवस्था को कोई फायदा नहीं पहुंचा है। एमएसएमई, लोन मेला और कॉर्पोरेट छूट देकर अर्थव्यवस्था के इंजन को चलाने में कोई कामयाबी नहीं मिली है।

उल्टे बड़े जटिल सवाल पैदा हो गया है कि आखिर भारत की अर्थव्यवस्था उबरेगी कैसे? उबरने का एक तरीका है कि खूब निवेश हो, खूब मांग हो, खर्च हो और उत्पादन कर्ता को मुनाफा दिखे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा है। लोगों को अपनी नौकरियां जाने का डर है। खर्चे पहले से भी कम किए जा रहे हैं। पैसे नहीं हैं तो निवेश भी नहीं हो रहा है। और इस तरह की स्थिति में उत्पादक को अपना मुनाफा भी नहीं दिख रहा है। इसलिए सब कुछ गड़बड़ दिख रहा है।

अर्थव्यवस्था के जानकारों का कहना है कि सरकार वहां पैसा डाले जहां पैसा मिलते ही वह बाजार में जाकर खर्च में तब्दील हो जाता है। ऐसे जगहों में सरकार को पैसे डालने चाहिए। सबसे आम आदमी की जेब में जब पैसा पहुंचेगा। वही पैसा बाजार को चलाएगा।

मौजूदा समय में सरकार के बजट की हालत यह है कि केंद्र के सकल राजस्व में इस साल 4.32 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होना है जो इस साल सार्वजनिक उपक्रम वि‍निवेश लक्ष्य (2.10 लाख करोड़ रु.) का दोगुना है। इस वित्त वर्ष में केंद्र और राज्यों का राजकोषीय घाटा जीडीपी का 10-12 फीसद होगा। यानी कि 8 फीसद की न‍कारात्मक विकास दर पर दस फीसद से ज्यादा का घाटा।

बकौल सीएजी, केंद्र सरकार ने अपना कर्ज छिपाया है, इसके बावजूद सकल कर्ज (केंद्र और राज्य) जीडीपी का 85 फीसद होगा। केंद्र इस साल 12 लाख करोड़ रु. का कर्ज (बीते साल से दोगुना) उठाएगा। अर्थव्यवस्था और घाटों की जो हालत है उसमें न तो बैंक सरकारों को एक सीमा से ज्यादा कर्ज दे सकते हैं और न ही सरकारें कर्ज का बोझ उठा सकती हैं।

ऐसे में जरा सोच कर देखिए सरकार खर्चे कहां से पूरा करेगी। सरकारी नौकरियां कैसे देगी? राजनीति से जब अर्थव्यवस्था गायब हो जाएगी तो अर्थव्यवस्था को सही तरीके से चलाने के लिए दबाव कौन डालेगा? और अगर अर्थव्यवस्था लगातार पिछड़ी हुई रहेगी तो बेरोजगारी की समस्या हल करने के लिए छोड़े गए जुमले हकीकत में कैसे बदलेंगे?

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