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समझिये क्यों लेबर लॉ का ख़ात्मा अर्थव्यवस्था को और अधिक बर्बाद कर देगा?

भाषण के अलावा भाजपा और कांग्रेस दोनों का मज़दूरों के लेकर रवैया एक ही जैसा है, यह श्रम कानूनों के स्थगन से ही साबित हो जाता है। इस संकट के समय में भी दोनों दलों की सरकारों को सबसे पहले श्रम कानून ही स्थगित करने का ख़्याल आया।
 लेबर लॉ
Image courtesy: Business

सरकार की असल पहचान उसकी नीतियों से होती है, उसके द्वारा उठाए गए ठोस कदमों से होती है। बाकी सारी छिटपुट बातें होती हैं, जो सरकार की सही मंशा को नहीं दर्शाती। कोरोना के संकट में अगर सरकार गरीब मज़दूरों की हितैषी होती तो कभी भी लेबर लॉ यानी श्रम कानूनों में बदलाव नहीं करती। उन कानूनों को स्थगित नहीं करती, जिनको मज़दूरों के अधिकारों के लिए सुरक्षा कवच के तौर पर बनाया गया था। लेकिन सरकार मज़दूरों की हितैषी नहीं है, सरकार अर्थव्यवस्था को दर्शाने वाले उन खोखले आंकड़ों की हितैषी है, जिनमें इंसानों को तवज्जो नहीं दी जाती।

हालांकि आंकडों का सच्चा हितैषी भी इंसानों की कद्र करेगा, क्योंकि वह जानता है कि इंसानों की वजह से ही आंकड़ों का महत्व है या आंकड़ों का उपयोग ही मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए है।

कोरोना के समय में जब लोग घर से बाहर नहीं निकल सकते, सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन नहीं कर सकते, ऐसे समय में सरकर ने बहुत ही दोयम दर्जे की चाल चली है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, पंजाब और ओडिशा की सरकार ने राज्य के लेबर लॉ को स्थगित कर दिया है। इसमें भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों द्वारा शासित सराकरें शामिल हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात में जहां भाजपा की सरकार हैं, वहीं राजस्थान और पंजाब में कांग्रेस की सरकार है। यानी भाजपा और कांग्रेस दोनों का मज़दूरों के लेकर रवैया एक ही जैसा है।  

सबसे अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश की सरकार ने तो सभी तरह के लेबर लॉ को अगले तीन सालों ले लिए स्थगित कर दिया है। यानी मज़दूरों की मजदूरी, काम करने की दशा, काम से निकाले जाने की शर्तें, साफ पानी और हवा से लेकर मालिकों से हुए झगड़ों को सुलझाने से जुड़े सभी कानून उत्तर प्रदेश में लागू नहीं होंगे। सभी राज्यों का एक ही तर्क है कि यह लेबर लॉ आर्थिक विकास में बाधा बनकर खड़े होंगे, इसलिए इन्हें हटाया जा रहा है।  

मध्य प्रदेश की सरकार ने और थोड़ी और गहरी चाल चली है। लेबर लॉ तो खत्म किया ही है, साथ में यह भी फैसला लिया है कि कामगरों को ठेके पर लम्बे समय के लिए काम दिया जाए। टेक्सटाइल, ऑटो, सीमेंट जैसे क्षेत्र में करने वाले कामगारों का ट्रेड यूनियन या किसी भी तरह का मज़दूर संघ न बने ताकि वह सामूहिक तौर पर सामने आकर मोल- भाव करने करने की कोशिश न करे।  

लेबर लॉ के बारे में आम लोगों की जानकारी भी बहुत कम होती है। मज़दूरों से जुड़े इन अधिकारों के बारे में वामपंथी संगठनों के अलावा न ही कोई बात करता है और न ही कभी सड़क पर आता है। इसलिए मेनस्ट्रीम मीडिया की बहसों से दूर रहने वाले इस जरूरी मुद्दे को थोड़ा सीलसीलेवार तरीके से समझते हैं।  

भारत में लेबर लॉ के तहत तकरीबन 200 से अधिक राज्य के कानून और 50 केंद्र के कानून हैं। इनका फैलाव इतना बड़ा है कि लेबर लॉ की कोई एक निश्चित परिभषा नहीं है। मोटे तौर पर उन्हें चार कैटगरी में बांटा जाता है।

पहली कैटगरी, काम करने की शर्तों से जुडी है -जिसमे फ़ैक्ट्री एक्ट 1948,द कॉन्ट्रैक्ट लेबर एक्ट 1970 और शॉप्स एंड कमर्शियल एस्टाब्लिशमेंट एक्ट जैसे कानून में शामिल हैं।

दूसरी कैटगरी, मजदूरी और मेहनताने से जुड़ी है - जिसमें द मिनिमम वेजेज एक्ट 1948, द पेमेंट ऑफ़ वेजेज एक्ट 1936 जैसे कानून शामिल हैं।

तीसरी कैटगरी सोशल सिक्योरिटी से जुड़ी है - जिसमे कर्मचारी प्रोविडेंट फंड एक्ट 1952, कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम 1923, कर्मचारी राज्य इंस्युरेन्स अधिनियम 1948 जैसे कानून शामिल है।

चौथी कैटगरी रोजगार सुरक्षा और औद्योगिक संबध से जुड़ी है - जिसमें द इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट 1947, इंडस्ट्रियल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट 1946 जैसे कानून शामिल हैं।  

चूँकि मज़दूरों के अधिकारों पर राज्य और केंद्र दोनों के पास कानून बनाने का अधिकार है, इसलिए लेबर का विषय संविधान के समवर्ती सूची का विषय है। इसलिए बहुत सारे लेबर कानून ऐसे भी है जिनमें किसी भी तरह का बदलाव करने से पहले केंद्र सरकार यानी राष्ट्रपति की अनुमति की जरूरत पड़ती है। बिना राष्ट्रपति के अनुमति के इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट जैसे कानून को खारिज कर देना असंवैधानिक है।  

आगे बढ़ने से पहले यह समझना जरूरी है कि लेबर कानून की ज़रूरत क्यों है ? कानून के विद्वान गौतम भाटिया ने अपने ट्वीटर अकॉउंट पर इस विषय पर लिखा है। उनकी बातों का सार यह है कि लोग यह स्वीकारते हैं कि बाज़ार पर आधारित अर्थव्यवस्था में मालिकों और मज़दूरों के बीच का रिश्ता मालिकों के पक्ष में बहुत अधिक झुका होता है। शक्ति संतुलन की बहुत अधिक कमी है। इस असंतुलन को ऐसे समझिये- किसी भी समाज में मालिकों की संख्या कम होती है और मज़दूरों की संख्या अधिक। इसलिए एक ही काम के लिए कई मज़दूरों की उपलब्धता होती है। ऐसे में मज़दूरों की मोल-भाव करने की क्षमता बहुत कम होती है। इसका फायदा मालिक हमेशा उठाते हैं। फिर भी यह फायदा शोषण में न बदल जाए इसलिए ज़रूरी है कि मज़दूरों के अधिकारों के लिए कानून हो और वह कानून अच्छी तरह से लागू हों।

मज़दूरों के मुद्दों पर अध्ययन करने वाले शंकर गोपालकृष्णन का मानना है कि साल 1988 से साल 2008 के बीच किया हुआ अध्ययन बताता है कि जिन क्षेत्रों में लेबर लॉ लागू था, वहां पर रोजगार, उन क्षेत्रों से अधिक तेजी से बढ़ा जहां लेबर लॉ नहीं लागू था। बहुत सारे अर्थशास्त्रियों का भी यह मानना है कि उसी देश की अर्थव्यवस्था मजबूत बनती है, जहां पर लेबर लॉ ठीक से काम कर रहे हों। क्योंकि जब तक मानव संसाधन मजबूत नहीं बनेगा, तब तक मांग नहीं बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था नहीं बढ़ेगी।

बाज़ार के हिदायती लोग इन कानूनों की आलोचना भी करते हैं। जैसे उत्तर प्रदेश सरकार ने इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट को अगले तीन सालों के लिए हटा दिया है। इस कानून के तहत 100 से अधिक कर्मचरियों के साथ करने वाले संगठन के लिए नियम है कि वह बिना सरकार की अनुमति के किसी को निकाल नहीं सकते हैं। ऐसे प्रावधानों के चलते आंकड़ों की नजर से देश के विकास को देखने वाले कहते हैं कि कठोर लेबर लॉ की वजह से देश का विकास रुका हुआ है। इनका कहना होता है कि जब तक पुराने लोग जायेंगे नहीं तब तक नए लोग आएंगे कैसे? कार्यक्षमता बढ़ेगी कैसी? इसलिए इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट में बदलाव करना चाहिए। बाज़ार के हिमायती लोगो का यह तर्क सही हो सकता है। लेकिन एक राज्य अपने नागरिको के साथ बाज़ार के लिहाज से तय मापदंडों के अनुसार बर्ताव नहीं सकता। ऐसे किसी भी नियम का समर्थन नहीं कर सकता, जहां पर व्यक्ति की भूमिका महज एक सामान के सिवाय और कुछ न हो। राज्य अगर लोककल्याणकारी राज्य है तो वह ऐसे मकसदों का कभी समर्थन नहीं करेगा।  

लेकिन हक़ीक़त की दुनिया इससे दूर है। हक़ीक़त की दुनिया में उत्तर प्रदेश सरकार ने न्यूनतम मज़दूरी जैसे कानूनों को खारिज कर दिया है। यानी  कोरोना के संकट से जूझता मज़दूर अब यह भी नहीं कह सकता कि उसे उसकी जायज मज़दूरी दे दी जाए। यह कहना भी विकास में बाधक के तौर पर समझ लिया गया है। बहुत सारे मज़दूर संगठनों का कहना है कि ''इन क़ानूनो के खारिज होने से ऐसा माहौल बनेगा, जहां मज़दूरों का शोषण जमकर किया जा सके। पहले से ही कम दरों पर दी जाने वाली मज़दूरी और अधिक कम की जायेगी।

मज़दूरों के औपचारिक क्षेत्र के तहत काम करने की प्रक्रिया बहुत धीमी हो जाएगी। पहले से ही 90 फीसदी से ज्यादा कामगार अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं, इनकी संख्या और अधिक बढ़ेगी। मज़दूर सुधार से जुड़ी पहल सौ साल पीछे चली जाएंगी और सबसे बड़ी बात कंपनियां लम्बे समय का माहौल देखकर कहीं पर निवेश करती हैं, इसलिए हो सकता है कि उत्तर प्रदेश जो तीन साल की अवधि बता रही है इरादतन वह हमेशा के लिए लेबर क़ानूनों को खारिज करना चाहती हो। आरएसएस-भाजपा से जुड़े भारतीय मज़दूर संघ ने भी इस कदम को कोरोना से बड़ी महामारी पैदा करने वाला कदम कहा है।  

जिन लोगों का तर्क है कि लेबर लॉ निवेश में बाधक की तरह काम करते हैं, आर्थिक वृद्धि की संभावंनाओं को कमजोर करते हैं। उनके तर्कों का जवाब देना ज़रूरी नहीं है। क्योंकि इनका संदर्भ ही गलत है। इनके संदर्भ में इंसानी जीवन की कोई अहमियत नहीं है। बात केवल बाज़ार और पैसे को आधार बनाकर की जा रही है। फिर भी ऐसे तर्क के संबंध में एम्प्लॉइमन्ट स्टडी एट द इंस्टिट्यूट ऑफ़ ह्यूमन डेवलपमेंट के डायरेक्टर रवि श्रीवास्तव की बातों पर गौर करना चाहिए।

रवि कहते हैं कि कोरोना की वजह से उपभोग का स्तर काम हुआ है,मांग बहुत अधिक कम हुई है। कम्पनियों के बहुत सारे संसाधनों का इस्तेमाल नहीं हो रहा है। कंपनियां अपनी क्षमता से कम काम कर रही है। नौकरियों से लोगों को निकाला जा रहा है। ऐसे में कौन सा फर्म होगा जो नए लोगों को काम पर लेगा?  

रवि के इन शब्दो के साथ ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की जनरल सेक्रेटरी अमरजीत कौर की बात पर गौर करना चाहिए। अमरजीत कहती हैं कि लोगों को इस समय काम की ज़रूरत है। आठ घंटे काम की बजाय 12 घंटे काम पर खटने की नहीं। आठ घंटे की शिफ्ट को दो हिस्सों में बाँट देना चाहिए ताकि अधिक से अधिक लोगों को काम मिल पाए। और अगर लोगों के जेब में पैसा होगा तभी खर्च होगा और अर्थव्यस्व्था भी आगे बढ़ेगी।  

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