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योगी सरकार का रिपोर्ट कार्ड: अर्थव्यवस्था की लुटिया डुबोने के पाँच साल और हिंदुत्व की ब्रांडिंग पर खर्चा करती सरकार

आर्थिक मामलों के जानकार संतोष मेहरोत्रा कहते हैं कि साल 2012 से लेकर 2017 के बीच उत्तर प्रदेश की आर्थिक वृद्धि दर हर साल तकरीबन 6 फ़ीसदी के आसपास थी। लेकिन साल 2017 से लेकर 2021 तक की कंपाउंड आर्थिक वृद्धि दर तकरीबन 1.95 फ़ीसदी के आसपास ही रह गई है। 
yogi adityanath
Image courtesy : Edexlive

उत्तर प्रदेश का मतलब केवल राजनीति का अखाड़ा नहीं है। उत्तर प्रदेश भी दुनिया के दूसरे इलाकों की तरह अर्थव्यवस्था की बिछाई गई बिसात पर चलता है। उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था उत्तर प्रदेश के लोगों की जिंदगी की दशा और दिशा तय करती है। इसलिए चुनावी राजनीति के मौसम में अर्थव्यवस्था पर बात ना करना झूठ के कारोबार को बढ़ावा देना हो सकता है।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ ने कई मौके पर ऐलान किया है कि वह उत्तर प्रदेश को एक ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाएंगे। इस ऐलान में कोई दिक्कत नहीं। नेताओं को ऐलान करने का अधिकार है। लेकिन कामकाज की जमीन पर उनके ऐलान का हाल ऐसा है कि वह ऐलान कम और झूठा प्रचार ज्यादा लगता है। उत्तर प्रदेश की अर्थनीति में भागीदारी कर चुके प्रशासनिक अधिकारियों का कहना है कि उत्तर प्रदेश की बुनियादी संरचना बहुत कमजोर है।

जब तक सरकार बुनियादी संरचना को मजबूत नहीं बनाएगी तब तक इस राज्य में वैसा इन्वेस्टमेंट नहीं होगा जैसे इन्वेस्टमेंट की जरूरत है।

उत्तर प्रदेश की मौजूदा अर्थव्यवस्था तकरीबन 17 लाख करोड़ के आसपास है। 1 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था यानी तकरीबन 75 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था उत्तर प्रदेश की तभी बनेगी जब सालाना आर्थिक वृद्धि दर 30% के आसपास रहेगी। लेकिन हकीकत में यह 30% या 20% भी नहीं है 10% भी नहीं है। 10% से कम की दर पर चल रही है। जिस दर पर चल रही है वैसी दर पर अगर चले तो अब भी उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था को एक ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए 2035 तक इंतजार करना करना पड़ सकता है। यानी योगी आदित्यनाथ के हवा हवाई एलानों और जमीनी हकीकत में बड़ा लंबा फासला है। 

उत्तर प्रदेश की आबादी तकरीबन 20 से 24 करोड़ के आसपास होगी। आपको जानकर अचरज होगा कि तकरीबन इतनी ही आबादी पाकिस्तान की है। उसी पाकिस्तान की जिसका नाम लेकर हिंदुत्व की राजनीति उत्तर भारत में नफरत की फसल बोती है और चुनावों में काटती है। पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति आमदनी 95 हजार सालाना है। जबकि उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आमदनी भारत की औसत आमदनी 95 हजार से तकरीबन आधी 44 हजार प्रति व्यक्ति सालाना के आसपास है। यानी उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था अपने सबसे करीबी रिश्तेदार पाकिस्तान से भी कमतर है। 

केंद्र शासित प्रदेशों और राज्यों को मिलाकर भारत के 36 इलाके बनते हैं। इन 36 इलाक़ों में उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आमदनी 32वें पायदान पर आती हैं। यानी उत्तर भारत का यह राज्य जो भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा प्रतिनिधि है, वहां के लोगों की प्रति व्यक्ति आमदनी से कम आमदनी भारत के केवल 4 राज्यों की है। यह आंकड़ा दशकों से हो रही उत्तर प्रदेश की बर्बादी का इश्तिहार पेश करता है। 

आर्थिक मामलों के जानकार संतोष मेहरोत्रा लिखते हैं कि साल 2012 से लेकर 2017 के बीच उत्तर प्रदेश की आर्थिक वृद्धि दर हर साल तकरीबन 6 फ़ीसदी के आसपास थी। 2017 से लेकर 2021 तक की कंपाउंड आर्थिक वृद्धि दर तकरीबन 1.95 फ़ीसदी के आसपास रही है। मतलब यह कि पिछले 5 साल में उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था की गति पहले के मुकाबले बहुत धीमी रही है। इसके लिए केवल कोरोना जिम्मेदार नहीं है। बल्कि कोरोना से पहले ही भारत की अर्थव्यवस्था की चरमराने की खबरें छपने लगी थी।

पिछले 5 सालों के दौरान जिस तरह की अर्थनीति और अर्थव्यवस्था की गति रही है उसका निचोड़ यह कहता है कि उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आमदनी 0.46 फ़ीसदी सालाना की दर से बढ़ी है। यह छह फ़ीसदी के आसपास रहने वाली खुदरा महंगाई दर से काफी कम है। यानी उत्तर प्रदेश के अधिकतर लोगों की आमदनी उस दर से नहीं बढ़ी है, जिस दर से महंगाई बढ़ी है। महंगाई की सबसे बड़ी मार गरीबों पर पड़ती है जिनकी आमदनी सबसे कम होती है। गरीबी के मामले में उत्तर प्रदेश भारत के 3 सबसे अधिक गरीब राज्यों के अंतर्गत आता है। तकरीबन 38 फ़ीसदी जनता उत्तर प्रदेश की गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर कर रही है। महंगाई की मार के तले दबी इस आबादी की परेशानियों को महसूस कीजिए जिसका कोई प्रतिनिधि महंगे होते चुनाव में भागीदार नहीं बनता।

अब अगर अर्थव्यवस्था की हालत जर्जर है तो यह तय है कि रोजगार की हालत भी जर्जर होगी। साल 2012 के मुकाबले अब कुल बेरोजगारों की संख्या में ढाई गुना की बढ़ोतरी हुई है। और नौजवानों की बेरोजगारी की संख्या में 5 गुना की बढ़ोतरी हुई है। साल 2012 में जिनके पास ग्रेजुएट की डिग्री होती थी वह रोजगार की तलाश में निकलते थे तो उनमें से 21% बेरोजगार रह जाते थे। साल 2019 में यह आंकड़ा पहुंचकर 51% का हो गया है। इसी तरह से जिनके पास किसी तरह के टेक्निकल सर्टिफिकेट की डिग्री होती थी या कोई डिप्लोमा होते थे तो उनमें से साल 2012 में तकरीबन 13% को रोजगार नहीं मिल पाता था। साल 2019 में यह आंकड़ा बढ़कर 66 प्रतिशत का हो गया है। 

साल 2016 में उत्तर प्रदेश की रोज़गार दर 46% के आसपास थी। 2017 में यह घटकर के 38% पहुंच गई है। 2017 के बाद से योगी सरकार उत्तर प्रदेश की बागडोर संभाल रही है। उसके बाद से रोज़गार दर अब घटकर के  32% के पास पहुंच गई है। यह भारत की औसत रोजगार दर 40% से भी कम है। यानी उत्तर प्रदेश की आर्थिक बदहाली उत्तर प्रदेश के नौजवानों को काम नहीं दिला पा रही। उन्हें कंगाल बना रही है। पिछले 5 सालों में उत्तर प्रदेश की वर्किंग आबादी में दो करोड़ का इजाफा हुआ है। लेकिन रोजगारों की संख्या बढ़ी नहीं है बल्कि वहां 16 लाख की कमी हो गई है।

उत्तर प्रदेश में ढंग से भूमि सुधार नहीं हुआ। जमीदारी प्रथा से बनने वाला गुलामी का जाल मौजूद था। सामंती और जातिगत भेदभाव से चल रहे उत्तर प्रदेश के सामाजिक ढाँचे के खिलाफ उस तरह का सामाजिक सुधार नहीं हुआ जिस तरह से दक्षिण के राज्यों में हुआ। इन सब की वजह से उत्तर प्रदेश पिछड़ा रहा है। यह बात एक हद तक सही कही जा सकती है।

योगी सरकार ने खुद जितना काम काज नहीं किया उससे अधिक विज्ञापन और प्रचार किया है। अखबारों और टीवी चैनलों में उत्तर प्रदेश की भयावहता से ज्यादा हिंदुत्व का महिमामंडन दिखा है। इस तरह की ढेर सारी प्रवृतियां यही बताती हैं कि योगी सरकार का कल्याण से ज्यादा ध्यान ब्रांडिंग करने में बीता है। भारत के बीमारू राज्य (बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश) में शामिल उत्तर प्रदेश को अजय सिंह बिष्ट ने अपने राजनीतिक दंगल के लिए तो इस्तेमाल किया है लेकिन लोक कल्याण के लिए नहीं।

उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था, आर्थिक वृद्धि दर और प्रति व्यक्ति आमदनी के आंकड़े तो यही बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में सत्ता संभाल रही सरकार को फिर से सत्ता सौंपने लायक किसी भी तरह का काम नहीं हुआ है।

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