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उत्तर प्रदेश बदलाव के मुहाने पर : ध्रुवीकरण का ब्रह्मास्त्र भी बेअसर

मोदी से अधिक शिद्दत से शायद ही किसी को एहसास हो कि UP हारने के बाद उनके लिए दिल्ली बहुत दूर हो जाएगी। इसीलिए जैसे वह गुजरात विधानसभा का चुनाव लड़ते थे, उसी अंदाज में de facto मुख्यमंत्री की तरह उन्होंने UP के चुनावी-समर में अपने को झोंक दिया है।
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काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के लोकार्पण के मौके पर बनारस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ। 

उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे आने में अब 100 दिन के आसपास बचे हैं। कई दृष्टियों से यह चुनाव 2024 के लोकसभा चुनावों से कम महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि इसके नतीजे बड़ी राजनैतिक उथल-पुथल को जन्म दे सकते हैं और अंततः 24 में देश किस ओर बढ़ेगा, उसकी जमीन तैयार कर देंगे। 

मोदी से अधिक शिद्दत से शायद ही किसी को एहसास हो कि UP हारने के बाद उनके लिए दिल्ली बहुत दूर हो जाएगी। इसीलिए जैसे वह गुजरात विधानसभा का चुनाव लड़ते थे, उसी अंदाज में de facto मुख्यमंत्री की तरह उन्होंने UP के चुनावी-समर में अपने को झोंक दिया है। चुनाव की पूरी कमान उन्होंने अपने हाथ में ले ली है। अगले एक सप्ताह में वे 4 बार UP आने वाले हैं।

कहाँ तो बंगाल चुनाव के बाद पार्टी की ओर से यह चर्चा चली थी कि अब मोदी जी आने वाले किसी राज्य के चुनाव में चेहरा नहीं होंगे, UP चुनाव में योगी ही चुनाव-अभियान की केंद्रीय भूमिका में रहेंगे। पर यहां तो ठीक उल्टा हो रहा है। मोदी जी न सिर्फ चेहरा बन रहे हैं, बल्कि पहले के चुनावों से भी आगे बढ़कर इस अंदाज़ में  उतर पड़े हैं, जैसे वे ही UP के मुख्यमंत्री हों!

दरअसल, बंगाल चुनाव में वह जिस भूमिका में उतर पड़े थे, वहां ममता के हाथों बुरी तरह हारने के बाद पहली बार यह perception बनने लगा कि मोदी लहर अब खत्म हो चुकी है और उनकी लोकप्रियता ढलान पर है। तभी राज्यों के आगामी चुनावों की रणनीति में बदलाव की चर्चा सामने आई थी। 

लेकिन आज हालात ऐसे हैं कि उत्तर प्रदेश में वे बंगाल की गलती दुहराने के लिये अभिशप्त हैं। वैसे, बंगाल और UP में एक crucial फर्क है। बंगाल में उनका अपने को दांव पर लगाना शायद इस गलत assessment पर आधारित था कि BJP चुनाव जीतने जा रही है, पर यहां उत्तर प्रदेश में यह कोई choice नहीं, मजबूरी है। मोदी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि UP में हार का मतलब है दिल्ली से विदाई। अनायास नहीं है कि अमित शाह ने खुलेआम लखनऊ रैली में लोगों से कह दिया कि 24 में मोदी जी को जिताना है तो यहाँ योगी को जिताइये। जाहिर है, UP का चुनाव मोदी-शाह जोड़ी के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है। 

उत्तर प्रदेश में भाजपा के राजनैतिक ग्राफ पर गौर किया जाय तो दो ऐतिहासिक मोड़ों पर यहां उसका meteoric rise हुआ, पहला रामजन्म भूमि आंदोलन के उन्मादी दौर में 90 के आसपास, दूसरा मुजफ्फरनगर दंगों के बाद 2013-14 में। बेशक, यह दोनों ही अवसर राष्ट्रीय राजनीति के लिए भी खास conjuncture थे जो भाजपा के अभूतपूर्व उभार के साक्षी बने।

दरअसल ये धूमकेतु जैसे उदय abnormal विकास थे, जो कुछ विरल ऐतिहासिक कारकों और संयोगों का परिणाम थे।

दोनों ही बार विपक्ष के विरुद्ध भारी जन-असंतोष की लहर पर सवार होकर तीखे साम्प्रदयिक ध्रुवीकरण  के माहौल में पिछड़ों के एक हिस्से की गोलबन्दी करते हुए यह उभार सम्भव हुआ-पहली बार पिछड़े वर्ग से आने वाले नेता कल्याण सिंह को आगे किया गया, दूसरी बार स्वयं मोदी ने अपने को 'पिछड़ा' नेता के बतौर project करते हुए अखिलेश, मायावती से नाराज पिछड़ों-दलितों के अच्छे-खासे हिस्से को गोलबंद कर लिया।

1991 में भाजपा प्रदेश की सत्ता में आ गयी, लेकिन 90 दशक के शुरुआती वर्षों का पहला उभार लंबे समय तक sustain नहीं कर सका। महज 5 वर्ष तक उसका आवेग कायम रह सका, परिस्थिति बदलते ही तेज ढलान शुरू हो गया। जैसे ही साम्प्रदायिक उन्माद कम हुआ और पिछड़ों की वैकल्पिक गोलबंदी उभरी, वह धड़ाम हो गयी। 2002 आते -आते वह तीसरे नम्बर की पार्टी हो गयी। 2007 और 2012 में तो उसे मात्र 51 और 47 सीटें मिलीं।

पिछले 3 दशक में जब से उत्तर प्रदेश में राजनीतिक परिदृश्य त्रिकोणीय हुआ है, यह दूसरी बार है जब चुनाव आमने-सामने की लड़ाई ( straight contest ) में तब्दील हो गया है। पहली बार यह 1993 में हुआ था जब मुलायम सिंह-कांशीराम के गठबंधन से उनका मुकाबला हुआ था और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बावजूद 2 साल में ही  भाजपा सत्ता से बाहर हो गयी थी। (यही 2015 में बिहार में नीतीश-लालू गठबंधन ने दुहराया, जब भाजपा सत्ता से बाहर हो गई थी।)

इस चुनाव में भी वैसा ही माहौल बनता जा रहा है, फर्क बस यह है कि तब भाजपा के खिलाफ दो बड़े दलों का गठजोड़ हुआ था, इस बार कुछ कुछ बंगाल pattern पर भाजपा को हराने के लिए जनता का गठजोड़ बनता जा रहा है। और लड़ाई हर बीतते दिन के साथ  दो-ध्रुवीय होती जा रही है।

जाहिर है, भाजपा को अब अपने आखिरी अस्त्र-साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का ही सहारा है। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के लोकार्पण के नाम पर हिंदुओं का बोलबाला कायम होने और हिन्दू राष्ट्र के आगमन का मिथ्या गौरवबोध जगाने की कवायद हुई। धर्म और आध्यात्मिक के ' भव्य, दिव्य ' वातावरण में भी औरंगज़ेब-शिवाजी, सालार मसूद गाज़ी और सुहेलदेव की सच्ची-झूठी कहानी लोगों को याद दिलायी गयी।

पर, मोदी-शाह-योगी तिकड़ी की लाख कोशिश के बावजूद प्रदेश में साम्प्रदायिक उन्माद  का माहौल नहीं बन पा रहा है। 

हाल ही में उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के माध्यम से संघ-भाजपा ने मथुरा के सवाल को उठाकर, किसान-आंदोलन से प्रभावित पश्चिम उत्तर प्रदेश में जो प्रयास किया वह भी non-starter रहा। उससे वहां के समाज में कोई जुम्बिश भी नहीं पैदा हुई। क्योंकि जिन्हें इसमें शामिल करके नंगा नाच किया जाता, वे तो किसान-आंदोलन के चलते भाजपा के खिलाफ खड़े हो चुके हैं।

दरअसल, आज स्थिति यह है कि जनता के सामने जो अनेक मुद्दे मुंह बाए खड़े हैं- जानलेवा महंगाई, रेकॉर्ड बेरोजगारी, आवारा पशुओं द्वारा भयानक तबाही, कोविड की अभूतपूर्व विनाशलीला-उनमें से कोई एक भी सरकार को पलट देने के लिए पर्याप्त है। डबल इंजन सरकार के राज में किसानों ने अपनी फसलों की जो बर्बादी झेली है, आवारा पशुओं से फसल बचाने के लिए उन्हें जिस तरह रतजगा करना पड़ा है उसे लेकर किसानों में जबर्दस्त गुस्सा है। सरकारी नौकरियों में भर्ती और रोजगार के लिए छात्र-युवा अनवरत लड़ रहे हैं तो पेंशन-बहाली के लिए लाखों कर्मचारी-शिक्षक और उचित मानदेय के लिए आशा बहू और आँगनबाड़ी-कर्मी। 

17 दिसम्बर को  लखनऊ की निषाद रैली में अमित शाह के सम्बोधन के दौरान शिक्षक आरक्षण घोटाले के खिलाफ महीनों से लड़ रहे नौजवानों ने जबरदस्त नारेबाजी और प्रदर्शन किया। चुनाव के दौर में भी जारी ये आंदोलन योगी सरकार के रामराज्य की पोल खोल देने के लिए काफी हैं।

आज ये सारे मुद्दे मिलकर जन-असंतोष का ऐसा वातावरण बना रहे हैं, जिसमें अब  ध्रुवीकरण की कोई कोशिश survival के लिए लड़ रहे आम लोगों के अंतर्मन को छू नहीं पा रही। ठोस जिंदगी के सवाल भावनात्मक मुद्दों पर भारी पड़ रहे हैं। पूरा माहौल बिल्कुल बदल चुका है।

किसान-आंदोलन ने मोदी की किसानों और गरीबों के बीच गढ़ी गयी ग़रीब नवाज़ वाली मसीहाई छवि को तो पहले ही तार-तार कर दिया था और उनके मन में बिठा दिया था कि वह अम्बानी-अडानी के आदमी हैं, अब SIT जांच में आपराधिक षडयंत्र कर किसानों की हत्या का खुलासा होने के बाद भी वे जन-भावना के खिलाफ जाकर गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी को  जिस बेशर्मी से बचा रहे हैं,  उसने मोदी-भाजपा को पूरी तरह नंगा कर दिया है।

डबल इंजन की सरकार से व्यापक मोहभंग और निराशा ने पिछले चुनावों में भाजपा के पक्ष में बने सोशल coalition को छिन्न-भिन्न कर दिया है और भाजपा-विरोधी reverse सोशल इंजीनियरिंग की जमीन तैयार कर दी है। आने वाले दिनों में भाजपा के अंदर से भी और उसके बचे खुचे सहयोगियों में भी भगदड़ के आसार हैं।

जाहिर है, भाजपा के खिलाफ जिन गरीब-वंचित तबकों का राजनीतिक मानस बनता जा रहा है, अब वे मुफ्त अनाज के साथ तेल-दाल-नमक जोड़ देने से भी impress होने वाले नहीं है। उन्हें मालूम है कि यह चुनावी लॉलीपॉप है और उससे ज्यादा सरकार महंगाई बढ़ाकर उनकी जेब से निकाल ले रही है।

गरीबों को महंगाई से निजात और आजीविका की गारंटी, छात्र-युवाओं के लिये सरकारी नौकरियां और रोजगार, कैम्पस लोकतन्त्र व छात्रसंघ बहाली, किसानों के लिए MSP की गारंटी, सस्ती लागत सामग्री और आवारा जानवरों से मुक्ति, कर्मचारियों-अध्यापकों की पुरानी पेंशन बहाली और सर्वोपरि पूरे प्रदेश में लोकतान्त्रिक अधिकारों की बहाली, दबंगों-पुलिस राज से मुक्ति, जनविरोधी कानूनों का खात्मा, फ़र्ज़ी मुकदमों में बंद लोगों की रिहाई का ठोस आश्वासन उत्तर प्रदेश से योगी-मोदी राज की विदाई सुनिश्चित कर सकता है।

उत्तर प्रदेश की जनता बदलाव का मन बना चुकी है। क्या विपक्ष जनसमुदाय की विविधतापूर्ण लोकतान्त्रिक आकांक्षाओं को ईमानदारी से सम्बोधित करते हुए तथा सटीक चुनावी समझदारी कायम करते हुए इस आकांक्षा को मूर्त रूप दे पाएगा ?

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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