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उत्तराखंड चुनाव: घोस्ट विलेज, केंद्र और राज्य सरकारों की विफलता और पहाड़ की अनदेखी का परिणाम है?

प्रोफेसर ममगाईं ने कहा कि पहाड़ लगातार ख़ाली हो रहे हैं जबकि मैदानी ज़िलों में जनसंख्या लगातार बढ़ रही है जो राज्य की डेमोग्रफी के लिए भी ख़तरा है।
Ghost Village

उत्तराखंड में 14 फरवरी को चुनाव होने वाले हैं। इसे बने हुए अब 22 साल हो गए हैं। तब लोगों ने उम्मीद की थी कि इससे पहाड़ आबाद होंगे और यहां विकास होगा लेकिन आज पहाड़ आबाद नहीं वीरान हो रहे हैं। उत्तराखंड सरकार ने खुद अपने कई रिपोर्टों में बताया है कि प्रदेश के सैकड़ों गांव घोस्ट विलेज यानि भूतिया गांव बन गए हैं। इसका मतलब ये नहीं है कि यहां कोई भूत या प्रेत रहते हैं बल्कि इन गांवो में अब इंसानी आबादी नहीं रहती है जो अपने आप में किसी भी राज्य के लिए शर्मनाक है।

हालांकि सरकार ने इससे निपटने के लिए पलायन आयोग भी बनाया लेकिन वो भी सिर्फ कागजों पर ही नीति बनाता रहा, धरातल पर कुछ होता नहीं दिखा।

न्यूज़क्लिक की चुनावी टीम ने ऐसे ही एक गांव 'खोला' का दौरा किया जो गढ़वाल के श्रीनगर शहर से कुछ पांच-छह किलोमीटर की दूरी पर था। इस गांव से लोग बड़ी संख्या में लोग पलायन कर जा चुके हैं और अब गांव में केवल बुज़ुर्ग और महिलाएं बची हैं। इसके साथ ही हमने पौड़ी ज़िले और राज्य के कई अन्य ज़िलों का दौरा किया। लगभग सभी पहाड़ी इलाकों में पलायन एक गंभीर समस्या बनी हुई है। हमने इस गांव में बचे लोगों से यह जानने का प्रयास किया कि इस तरह के पलायन की आखिर वजह क्या है? राज्य में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर पलायन एक गंभीर सवाल बना है और हर दल और हर एक व्यक्ति इस पर चर्चा कर रहा है।

'खोला' गांव निवासी 65 वर्षीय विनोद गोदियाल ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा कि पहले उनके गांव में लगभग 60-70 परिवार थे लेकिन अब केवल दस से पंद्रह परिवार ही इस गांव में बचे हैं।

इस गांव की निवासी कुसुम लता देवी कहती हैं वो अधिकतर समय देहरादून में बेटियों के साथ ही गुजारती हैं। उन्होंने न्यूज़क्लिक से बात करने के दौरान पलायन पर चर्चा करते हुए कहा कि इसकी मुख्य वजह रोज़गार ही है।

लता कहती हैं, "पहले रोज़गार के लिए नौजवान बाहर गए। उनके जाने के बाद हमनें खेती का काम संभाला लेकिन खेतों में हल जोतने के लिए पुरुषों की ज़रूरत होती थी इसलिए हमारी खेती दूसरे गांव के लोगों पर निर्भर हो गई और वो लोग पहले अपने खेतों में काम करने के बाद ही हमारे यहां आते थे। इसी कारण हमारी खेती खत्म हो गई। इसके साथ ही लोगों ने पशुपालन भी छोड़ दिया क्योंकि खेती खत्म होने से जंगल का दायरा बढ़ा और गांव में लोगों के नहीं होने से लोग जंगल में जाने से डरने लगे। यही कारण रहा कि धीरे-धीरे खेती और पशुपालन बंद हो गए।

आगे जब उनसे नौजवानों की वापसी पर सवाल पूछा तो उन्होंने सीधा कहा कि वो वापस क्यों आएंगें, यहां कोई रोज़गार है क्या? दूसरा अब उनका संपर्क गांव से कट गया है तो वो यहां के बारे में कुछ जानते ही नहीं है।

इसी गांव की 75 वर्षीय सुनीता देवी ने कहा, "गांव में लोग किसी शुभ काम जैसे शादी-विवाह आदि में ही दिखते हैं। वरना गांव सूना ही रहता है।"

हम जब इस गांव में घूम रहे थे तभी हमारी नज़र एक नौजवान पर पड़ी जो सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का पट्टा पहने हुए था। उनसे बात की तो उन्होंने अपना नाम भास्कर बताया और कहा वो भी दिल्ली में ही रहते हैं। यहां वो अभी अपने किसी रिश्तेदार की शादी में आए थे और वो 12 तारीख से पहले वापस चले जाएंगे। जबकि राज्य में 14 फरवरी को मतदान होना है। भास्कर ने कहा, "हम बाहर रहना नहीं चाहते हैं अगर हमें यहीं काम मिले तो हम अपना घर छोड़कर दूसरी जगह क्यों जाएंगे? बाहर जाकर काम करना, अपनों से दूर जाना और अनजान लोगों के बीच रहना बहुत दुखदायी होता है। सरकार हमें यहीं रोज़गार दे दे तो हम कभी भी अपना गांव और घर छोड़कर नहीं जायंगे।"

राजस्व विभाग से रिटायर्ड पौड़ी ज़िले के नरेश चंद्र नौटियाल कहते हैं कि उन्होंने 2011 में देश की जनगणना में काम किया था। उन्होंने बताया कि पलायन राज्य की सबसे गंभीर समस्या है आज सैकड़ों गांव बेचिराग हो गए हैं, वहां कोई नहीं है। हमारे यहां स्थिति इतनी खराब हो गई है कि अगर कोई बुज़ुर्ग मर जाता है तो उसे कंधा देने के लिए चार नौजवान नहीं मिलते हैं। उसके लिए चार दिहाड़ी मज़दूरों को बुलाना पड़ता है।

नौटियाल ने बताया कि उनके जिले में जनसंख्या वृद्धि दर नकारात्मक हो गई है। उन्होंने बताया जब उन्होंने 2011 में भारत सरकार की तरफ से यहां जनगणना की तो उस समय यहां पौड़ी जिले की जनसंख्या में 10 फीसदी की गिरावट थी।

आगे उन्होंने कहा कि ये पलायन कोई एक दिन का नहीं बल्कि सरकारों ने इसे बढ़ने में खाद और पानी दिया है। अगर मैं पौड़ी की ही बात करूं तो पहले इसे कर्मचारियों का शहर माना जाता था परंतु अब कोई काम ही नहीं है। जबकि लोगों को उम्मीद थी कि राज्य निर्माण से नए और अधिक रोज़गार के अवसर मिलेंगें लेकिन सरकार ने सभी स्थाई नियुक्तियों को ही ख़त्म कर दिया है। इसके आलावा खेती किसानी महंगी और अलाभकारी होती गई जिसने पहाड़ों से लोगों का पलायन शहरों की तरफ किया है। अंत में ख़राब स्वास्थ्य व्यवस्था ने लोगों को ग्रामीण इलाकों से बाहर निकलने पर मजबूर किया है। सरकार ने स्वास्थ्य सेवा सुधारने के नाम पर अस्पतालों को पीपीई मोड पर निजी हाथों में सौंपा और उसने स्वास्थ्य व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है।

इसी तरह 70 वर्षीय प्रकाश चंद्र ने भी पलायन को लेकर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि अगर ऐसा ही रहा तो एक दिन हमारी संस्कृति ही खत्म हो जाएगी।

क्या कहते हैं सरकारी आंकड़ें

राज्य में पलायन की गंभीर स्थिति को देखते हुए गांवों से पलायन को रोकने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने 17 सितंबर 2017 को पलायन आयोग का गठन किया था। इसकी अध्यक्षता खुद मुख्यमंत्री ने की थी। साल 2018 में इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। जिसे बाद में सरकार ने सार्वजनिक किया था। इसमें कई गंभीर खुलासे हुए थे। इस रिपोर्ट के मुताबिक रुद्रप्रयाग, टिहरी और पौड़ी से सबसे अधिक पलायन हुआ। इस आयोग ने राज्य के 7950 ग्राम पंचायतों का सर्वे किया और एक विस्तृत रिपोर्ट दी जिसमें पलायन के कारण और उसे रोकने के भी उपाए बताए थे। इस रिपोर्ट बताया गया कि राज्य में करीब 1000 गांव भूतिया गांव बन चुके हैं।

इस रिपोर्ट में ये बात सामने आई कि ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी 43 फीसदी लोग खेती करते हैं जबकि 33 फीसदी लोग मज़दूरी करते हैं।

पलायन के कारणों को बताते हुए इस रिपोर्ट में कहा गया था कि करीब 50 फीसदी लोग आजीविका के लिए पलायन कर रहे हैं। जबकि 15 फीसदी लोग शिक्षा के लिए पहाड़ी क्षेत्रों से पलायन कर रहे हैं। 8 फीसदी लोग स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर पलायन कर रहे हैं। इसके साथ ही पलायन करने में सबसे अधिक संख्या युवाओं की है। इसके साथ ही रिपोर्ट में सामने आया कि 70 फीसदी लोग ग्राम पंचायतों से राज्य में ही पलायन कर रहे हैं। 29 फीसदी लोग राज्य के बाहर पलायन कर रहे हैं। करीब 1 फीसदी लोग विदेश के लिए पलायन कर रहे हैं। इसको सुधारने के लिए आयोग ने प्रदेश के 9 पर्वतीय जिलों के 35 ब्लॉक के लिए नई नीति बनाने की बात कही थी लेकिन वह नीति धरातल से आज भी गायब है।

सरकार ने पलायन रोकथाम योजना भी बनाई और इसके लिए जिले स्तर पर एक टीम भी बनाई जिसकी अध्यक्षता जिलाधिकारी कर रहे थे पर ये योजना कागज़ पर ही बनी इसके अलावा कई दिशा निर्देश भी दिए गए लेकिन ज़मीन पर कुछ होता नहीं दिखा।

हालांकि सरकार ने कोरोना के बाद एक नई रिपोर्ट जारी की थी जिसमें उसने दावा किया था कि गांवो में बड़ी संख्या में लोग लौटे है। लेकिन सच यही है कि जितनी बड़ी संख्या में लोग राज्य में वापस आए थे, वे सरकार की कोई ठोस नीति न होने की वजह से फिर पलायन कर गए हैं। और जो बच भी गए हैं वो भी जाने की कोशिश में लगे हैं।

क्या कहते हैं एक्सपर्ट?

अर्थशास्त्री और दून विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभागाध्यक्ष, डॉ राजेंद्र प्रसाद ममगाईं (Dr. Rajendra P. Mamgain), जिन्होंने पलायन और मज़दूरों की समस्यां पर गंभीर अध्यन किया है, उन्होंने कहा, "पलायन दो तरह का होता है एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। सकारात्मक पलायन में लोग अच्छा जीवन जीने के लिए पलायन करते हैं जोकि एक मानव विकास में सामान्य प्रक्रिया है परंतु जब दुखी होकर पलायन करते हैं तो वो नकारात्मक पलायन होता है। जो अभी प्रदेश में दिख रहा है। आज ग्रामीण इलाकों से जो लोग रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ जैसी सुविधाओं के कारण निकल रहे हैं अगर ये सब उन्हें उनके ही गांव में मिल जाए तो वो कभी पलायन नहीं करेंगे।"

इस पलायन का राज्य की आर्थिक स्थिति पर भी गंभीर असर पड़ रहा है। जब गांवों से पलायन हो रहा है तो इसमें बड़ी संख्या महिलाओं की होती है जो गांवो में खेत में काम करती हैं और उत्पादन में अपना योगदान देती हैं। परंतु जब वो शहरों की तरफ आती हैं तो हम उनका उस तरीके से इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। एक बड़े वर्क फ़ोर्स को हम उत्पादन से बाहर कर देते हैं जिनका हमारी जीडीपी में बड़ा योगदान हो सकता था।

प्रोफेसर ममगाईं ने कहा कि पहाड़ लगातार खाली हो रहे हैं जबकि मैदानी जिलों में जनसंख्या लगातार बढ़ रही है जो राज्य की डेमोग्रफी के लिए भी खतरा है।

उन्होंने पलायन रोकने को लेकर कहा कि सबसे पहले सरकार को पहाड़ी ज़िलों में ब्लॉक लेवल पर शिक्षा, स्वास्थ्य और बेहतर सड़क की सुविधा देनी होगी। दूसरा पहाड़ की खेती को लाभदायक बनाने के लिए चकबंदी और सामूहिक खेती पर ज़ोर देना होगा। सबसे महत्वपूर्ण ये कि सरकार को हिल डेवलपमेंट पॉलिसी बनाने की ज़रूरत है।

आगे उन्होंने कहा, "ऐसा नहीं है कि सिर्फ हमारे लोग ही बाहर जाते हैं बल्कि बड़ी संख्या में बाहर के राज्यों से भी लोग हमारे यहां काम करने आते हैं। राज्य में जितने भी विकास कार्य हो रहे हैं उसमें बिल्डर, मिस्त्री से लेकर बिजली वाले तक दूसरे राज्य से आते हैं। हम उनकी जगह अपनी वर्क फ़ोर्स लगा सकते हैं लेकिन वो स्किल्ड नहीं हैं। पहले हमें अपनी लेबर को स्किल्ड करना होगा जो हम नहीं कर रहे हैं।"

जब उनसे कहा कि केंद्र सरकार राज्यों में स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम चला रही है तो इसपर उन्होंने कहा कि वो पूरी तरह फेल है, उसमें कोई स्किल ट्रेनिंग नहीं हो रही है।

भू वैज्ञानिक और दून विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एसपी सती कहते हैं, "ये पलायन राज्य और सरकारों के लिए भविष्य की बहुत गंभीर समस्या बनने जा रही है। सरकार को चाहिए कि उसे रोकने के लिए तत्काल ठोस कदम उठाए, नहीं तो जिस तरह से पहाड़ से लोग पलायन कर रहे हैं और नीचे आ रहे हैं ऐसे में खेती वीरान हो रही है जोकि पारिस्थिकी (इकोलॉजी) के लिए भी खतरनाक है।

सती कहते हैं, "इसे रोकने के लिए सरकार को पहाड़ में खेती करने वालों को सामाजिक कार्यकर्ता मानना चाहिए और उन्हें खेती के एवज में इंसेंटिव देना चाहिए जिससे किसान खेती न छोड़ें। खैर, हमने ज़मीन पर इसके विपरीत देखा। सरकार इंसेंटिव तो छोड़िए वो किसानों की फसल की उपज का उचित दाम तक नहीं दे रही है।"

जब हम पूरे प्रदेश में घूमे और लोगों से बात की तो एक बात स्पष्ट हुई कि ये भूतिया गांव, राज्य और केंद्र सरकार की विफलताओं और दृष्टिहीनता का एक प्रतीक है क्योंकि इस स्तर पर पलायन होना और सरकार द्वारा उसे रोकने के लगातार दावे करना और धरातल पर इसके लिए कुछ करते हुए न दिखना यह स्पष्ट करता है कि इन सरकारों के लिए ये प्राथमिकता में ही नहीं है। हालांकि इस चुनावी समर में हर दल इस पर चर्चा कर रहा है लेकिन सवाल यही है कि क्या सरकार में आने के बाद इसकी मूल समस्या शिक्षा, स्वास्थ और रोज़गार पर काम होगा या फिर एक बार सब हवा-हवाई जुमलों के बीच पहाड़ पलायन का दंश झेलता रहेगा?

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