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उत्तराखंड सरकार ने लिया प्रमोशन में आरक्षण नहीं देने का फ़ैसला

एससी-एसटी इम्प्लॉइज फेडरेशन के प्रदेश अध्यक्ष करमराम सरकार के इस फैसले से क्षुब्ध हैं। वह कहते हैं कि पक्षपात स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रहा है। सरकार ने एक पक्ष के कर्मचारियों की बातें सुनीं लेकिन क्या उन्हें हमें विश्वास में नहीं लेना चाहिए था?
उत्तराखंड सरकार

कोरोना के इस संकटग्रस्त समय में त्रिवेंद्र सरकार प्रमोशन में आरक्षण को लेकर अपने फ़ैसले पर पहुंच गई है। आठ फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार पर प्रमोशन में आरक्षण का फ़ैसला छोड़ा था, यह कहते हुए कि ये फैसला राज्य का है कि वो आरक्षण दे या नहीं। 18 मार्च को सरकार ने ये तय कर लिया है कि आरक्षण नहीं देना है और इसका शासनादेश जारी कर दिया गया। साथ ही प्रमोशन पर लगी रोक भी हटा ली गई।

ये माना जा सकता है कि हड़ताली कर्मचारियों के आगे त्रिवेंद्र सरकार ने घुटने टेक दिए। या ये भी कहा जा सकता है कि सरकार प्रमोशन में आरक्षण खत्म करने का फैसला सुनाने के लिए सही समय का इंतज़ार कर रही थी।

प्रमोशन में आरक्षण खत्म करने की मांग को लेकर 2 मार्च से राज्यभर के करीब दो लाख सामान्य और ओबीसी वर्ग के कर्मचारी हड़ताल पर थे। सरकार का फैसला आते ही हड़ताल भी खत्म कर दी गई है। अब एससी-एसटी कर्मचारी आगे की रणनीति के लिए मंथन कर रहे हैं। नैनीताल हाईकोर्ट के फ़ैसले के खिलाफ जब त्रिवेंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट गई, उसी समय एससी-एसटी कर्मचारियों ने सरकार पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाया था। नैनीताल हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को आरक्षण लागू करने के पक्ष में फैसला दिया था। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रमोशन में आरक्षण देने या नहीं देने का अधिकार राज्य सरकार के पास है।

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सरकार के फ़ैसले से दलित वर्ग नाराज़

एससी-एसटी इम्प्लॉइज फेडरेशन के प्रदेश अध्यक्ष करमराम सरकार के इस फैसले से क्षुब्ध हैं। वह कहते हैं कि पक्षपात स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रहा है। सरकार ने एक पक्ष के कर्मचारियों की बातें सुनी लेकिन क्या उन्हें हमें विश्वास में नहीं लेना चाहिए था? सुप्रीम कोर्ट ने तो राज्य सरकार पर फैसला छोड़ा था कि राज्य में एससी-एसटी का प्रतिनिधित्व पूरा है या नहीं, इस आधार पर सरकार फैसला ले।

करमराम कहते हैं कि सरकार के पास इंदु कुमार कमेटी की रिपोर्ट है, इरशाद हुसैन आयोग की रिपोर्ट है, उनके पास पूरे आंकड़ें हैं, उन्हें हमारा प्रतिनिधित्व देखते हुए न्यायिक दृष्टि से निर्णय लेना चाहिए था। करमराम बताते हैं कि मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, मंत्रियों, विधायकों से लगातार उनके लोग मिलते रहे, उन्हें भरोसा दिया गया कि अन्याय नहीं होगा। अभी 4-5 दिन पहले भी मुख्यमंत्री से उनकी बात हुई थी और उन्होंने अन्याय नहीं होने देने का भरोसा दिया था। वह बताते हैं कि एससी-एसटी इम्प्लॉइज फेडरेशन आगे की रणनीति तय करेगा।

एससी-एसटी प्रतिनिधित्व की रिपोर्ट सार्वजनिक क्यों नहीं की जा रही?

दलित कार्यकर्ता जबर सिंह कहते हैं कि इंदु कुमार पांडे कमेटी की रिपोर्ट बताती है कि सरकारी नौकरियों में एससी-एसटी का प्रतिनिधित्व 12 प्रतिशत भी नहीं है, जबकि राज्य में अनुसूचित जातियों के लिए 19 प्रतिशत आरक्षण है, ऐसे में सरकार का ये फैसला न्यायसंगत कैसे हो सकता है। सरकारी नौकरियों में एससी-एसटी सीटें ही अभी नहीं भरी गई हैं। इरशाद हुसैन कमेटी की रिपोर्ट ही सार्वजनिक नहीं की गई। जबर कहते हैं कि अच्छा होता सरकार पहले दोनों रिपोर्ट्स सार्वजनिक करती। जिससे लोगों को पता चलता कि वाकई एससी-एसटी के साथ अन्याय हो रहा है। फिर सामान्य-ओबीसी वर्ग का आंदोलन खड़ा ही नहीं होता।

इंदु कुमार पांडे समिति की रिपोर्ट

जनवरी 2012 में सेवानिवृत्त मुख्य सचिव इंदु कुमार पांडे समिति ने एससी-एसटी वर्ग की उत्तराखंड की सरकारी नौकरियों में भागीदारी को लेकर रिपोर्ट सौंपी थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक एससी-एसटी वर्ग की श्रेणी क में 11.5 प्रतिशत, श्रेणी ख में 12.5 प्रतिशत और श्रेणी ग में 13.5 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। इसमें भी एसटी की स्थिति और खराब है। सरकारी नौकरी में श्रेणी क में मात्र  2.98 प्रतिशत, श्रेणी ख में  2.17 प्रतिशत और श्रेणी ग में 1.66 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। इस रिपोर्ट के बावजूद  5 सितंबर 2012 को विजय बहुगुणा के नेतृत्व वाले कांग्रेस सरकार ने उत्तराखंड में प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था खत्म कर दी।

आरक्षण न देने के लिए प्रतिनिधित्व के आंकड़ों की जरूरत नहीं- उत्तराखंड

राज्य सरकार ने शासनादेश जारी किया है, जिसमें कहा गया है कि राज्य में 11 सितंबर 2019 को प्रमोशन पर लगी रोक हटायी जा रही है। सरकार का कहना है कि एससी-एसटी जातियों के कम प्रतिनिधित्व को लेकर जुटाए गए आंकड़े आरक्षण देने के लिए जरूरी होते हैं लेकिन जब राज्य सरकार आरक्षण नहीं देने का फ़ैसला लेती है तो इसकी आवश्यकता नहीं होती है। सरकार ने यहां आरक्षण नहीं देने का फ़ैसला लिया है। इसलिए राज्य को अपने फैसले को जस्टिफाई करने के लिए संख्यात्मक डाटा की आवश्यकता नहीं है। यह ये भी दर्शाता है कि राज्य की सेवाओं में एससी-एसटी जाति के लोगों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है। नैनीताल हाईकोर्ट के 15 जुलाई 2019 के आदेश, जिसमें असिस्टेंट इंजीनियर्स के पद एससी-एसटी जातियों के प्रमोशन के ज़रिये भरने को कहा गया था उस पर राज्य सरकार ने कहा कि ये अनुचित है इसलिए इसे अलग कर दिया गया है। उत्तराखंड की कुल आबादी एक करोड़ से अधिक (1,01,16,752) है। इसमें एससी आबादी 15.17 प्रतिशत और एसटी आबादी  2.56 प्रतिशत है।

उत्तराखंड सरकार मानती है कि एससी-एसटी जातियों का सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व है और उन्हें प्रमोशन में आरक्षण की जरूरत नहीं है। लेकिन सरकार इंदु कुमार कमेटी की पूरी रिपोर्ट और इरशाद हुसैन कमेटी की पूरी रिपोर्ट सार्वजनिक करने को तैयार क्यों नहीं है। इससे सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लगते ही हैं।

आज ही उत्तराखंड की भाजपा सरकार के कार्यकाल के तीन साल पूरे हो रहे हैं। त्रिवेंद्र सरकार का ये तोहफा दलित कर्मचारियों को नए आंदोलन की ओर धकेल रहा है।

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