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ख़बरों के आगे-पीछे:  क्या हैं वेंकैया के रिटायरमेंट के मायने और क्यों हैं ममता और सिसोदिया मुश्किल में

हर रोज़ की भागदौड़ में कुछ ऐसी ख़बरें छूट जाती हैं, जिन्हें जानना ज़रूरी होता है। इसी लिए वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन सप्ताह के अंत में आपके लिए लाते हैं ऐसी ही ख़बरों का ब्योरा, एक पैनी नज़र के साथ— ख़बरों के आगे-पीछे।
khabro ke aage peeche

आडवाणी की टीम का आख़िरी विकेट पैवेलियन में

देश के उप राष्ट्रपति पद पर एम. वेंकैया नायडू का कार्यकाल खत्म हो गया है उनकी सेवानिवृत्ति से भाजपा की राजनीति का एक युग समाप्त हुआ- भाजपा के सबसे बड़े नेताओं में से एक और किसी समय संघ के सबसे 'यशस्वी’ स्वयंसेवक रहे लालकृष्ण आडवाणी की राजनीति का युग। वेंकैया नायडू आडवाणी की कोर टीम के आखिरी सदस्य हैं, जिनके राजनीतिक करियर पर पूर्णविराम लगा है। दिल्ली की राजनीति कवर करने वाले पत्रकारों और लुटियंस की दिल्ली को जानने-समझने वालों को पता है कि अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के जमाने में दोनों नेताओं के अपने अपने खेमे थे। आडवाणी खेमे के चार सदस्यों को डी-फोर कंपनी के नाम से जाना जाता था। इसमें अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू और अनंत कुमार शामिल थे। पहले तीन लोगों- जेटली, सुषमा और अनंत कुमार का निधन हो गया है। इन तीनों के साथ वेंकैया नायडू भी नरेंद्र मोदी की पहली सरकार में मंत्री बने थे।

मोदी को पता था कि आडवाणी की टीम के सदस्यों में जेटली को छोड़ कर बाकी नेता उनके साथ सहज नहीं हैं। इसके बावजूद सभी चारों सदस्य केंद्र में मंत्री बने थे। लेकिन तीन साल बाद ही 2017 में वेंकैया नायडू को उप राष्ट्रपति बना दिया गया। अगले साल 2018 में अनंत कुमार का निधन हो गया। मोदी की दूसरी सरकार बनने के थोड़े दिन के बाद ही थोड़े-थोड़े अंतराल पर जेटली और सुषमा का भी निधन हो गया। सो, आडवाणी की कोर टीम के आखिरी सदस्य वेंकैया नायडू ही हैं, जो 10 अगस्त को उप राष्ट्रपति पद से रिटायर हो गए।

वैसे भाजपा की अंदरुनी राजनीति में मोदी को भी आडवाणी खेमे का ही माना जाता था, लेकिन दिल्ली की राजनीति में आडवाणी की कोर टीम जेटली, सुषमा, अनंत कुमार और वेंकैया की ही थी। दिवंगत प्रमोद महाजन को अटल बिहारी वाजपेयी का करीबी माना जाता था जबकि राजनाथ सिंह स्वतंत्र रूप से राजनीति करते थे। वे दो बार अध्यक्ष रहे लेकिन किसी खेमे के साथ नही जुड़े थे।

केंद्र से युद्धविराम के बावजूद मुश्किल में हैं ममता

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार और भाजपा के खिलाफ एक तरह से युद्धविराम कर रखा है लेकिन इसके बावजूद उनकी मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी ने उनके सबसे वरिष्ठ मंत्री रहे नेता पार्थ चटर्जी को गिरफ्तार कर लिया है और अब हाई कोर्ट के आदेश से उनकी पार्टी के कई बड़े नेताओं पर भी ईडी का शिकंजा कस सकता है। हाई कोर्ट ने पांच साल पुरानी एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सात मंत्रियों सहित कुल 19 नेताओं की संपत्ति की जांच के मामले में ईडी को भी पार्टी बनाने का फैसला सुनाया है। याचिका में कहा गया है कि इन नेताओं के पास बेहिसाब संपत्ति है, जिसकी जांच होनी चाहिए। इस मामले में ईडी को शामिल करने का मतलब है कि बेहिसाब संपत्ति की जांच अंतत: ईडी के हाथ में जाएगी। इससे ममता की मुश्किल बढ़ेगी, क्योंकि जिन नेताओं इनमें हैं उनमें से कई ममता के बेहद करीबी और बड़े नेता हैं। जैसे फिरहाद हाकिम, जिनको मंत्री के साथ-साथ ममता ने कोलकाता का मेयर भी बनाया हुआ है। मदन मित्रा, गौतम देब और राज्य सरकार के वरिष्ठ आर्थिक सलाहकार अमित मित्रा का भी इसमें नाम है। राज्य सरकार के मंत्रियों में ब्रत्या बासु, ज्योतिप्रिय मलिक, मलय घटक, अरुप राय, जावेद अहमद खान और सिउली साहा का नाम है। यहां तक कि विधानसभा स्पीकर बिमान बनर्जी का नाम भी इस याचिका में है।

बिना चुनाव के सत्ता बदल के खेल में तेज़ी

देश में पहली बार ऐसा हो रहा है कि बिना चुनाव हुए ही राज्यों में सरकार बदल रही हैं। पिछले तीन साल में ही कम से कम चार बड़े राज्यों में ऐसा हुआ है। चुनाव के बाद सरकार कोई और बनी लेकिन बीच में ही सरकार गिर गई और नई सरकार बन गई। इनमें से तीन राज्यों में दूसरी पार्टियों की सरकार गिरा कर भाजपा ने सरकार बनाई है तो एक राज्य में भाजपा की गठबंधन सरकार गिरा कर दूसरी सरकार बनी है। इस तरह का ट्रेंड मजबूत होने से राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता का दौर बढ़ गया है। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा चहकते हुए ऐसे घटनाक्रम को भाजपा का मास्टर स्ट्रोक बताता है, जैसे बहुत अच्छा काम हो रहा हो।

सरकार बदलने के इस खेल की शुरुआत कर्नाटक से हुई थी, जहां 2019 में कांग्रेस और जनता दल एस की साझा सरकार गिरा कर भाजपा ने अपनी सरकार बनाई। वहां 2018 के चुनाव कांग्रेस और जेडीएस की साझा सरकार बनी थी। एक-डेढ़ साल में ही भाजपा ने कांग्रेस और जनता दल एस के विधायकों को तोड़ कर अपनी सरकार बना ली। इसके बाद यही खेल मध्य प्रदेश में दोहराया गया। वहां 2018 के चुनाव में भाजपा हारी थी और कांग्रेस ने अकेले दम पर बहुमत का आंकड़ा हासिल किया था। हालांकि दोनों पार्टियों में बहुत कम सीटों का अंतर था। इसका फायदा उठाते हुए 2020 के शुरू में भाजपा ने कांग्रेस के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के जरिए कांग्रेस विधायकों से इस्तीफ़े करा कर अपनी सरकार बना ली। उसके बाद पिछले डेढ़ महीने के दौरान महाराष्ट्र और बिहार में सत्ता परिवर्तन हो गया। महाराष्ट्र में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी थी लेकिन उसकी चुनाव पूर्व सहयोगी रही शिव सेना ने एनसीपी और कांग्रेस के साथ सरकार बना ली थी। इस साल जून के अंत में शिव सेना में बगावत हो गई और बागी विधायकों को समर्थन देकर भाजपा ने नई सरकार बनवा दी।

इन तीन राज्यों से उलट बिहार में भाजपा के सहयोगी जनता दल (यू) ने भाजपा से गठबंधन तोड़ दिया और राजद, कांग्रेस और वाम दलों के साथ मिल कर सरकार बना ली। इन चार राज्यों के अलावा राजस्थान में भी कोशिश हुई थी लेकिन वह परवान नहीं चढ़ी। इस समय सत्ता बदल की ऐसी कोशिश झारखंड में चल रही है लेकिन अभी तक कामयाबी नहीं मिल पाई है।

इस बार फंस गए हैं मनीष सिसोदिया                  

नई शराब नीति को लेकर दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की मुसीबत बढ़ने वाली है। इसीलिए वे बार-बार बयान बदल रहे हैं। जिस दिन उप राज्यपाल वीके सक्सेना ने नई शराब नीति की सीबीआई से जांच कराने का सिफारिश की उसके तुरंत बाद सिसोदिया ने प्रेस कांफ्रेन्स करके कहा कि नई शराब नीति से राज्य सरकार को बड़ा फायदा हुआ है। उन्होंने कई हजार करोड़ रुपए के अतिरिक्त राजस्व कमाने का एक आंकड़ा भी दिया, लेकिन अब वे कह रहे है कि आखिरी समय में तब के उप राज्यपाल अनिल बैजल ने नई शराब नीति में बदलाव कर दिया था, जिससे राज्य सरकार को हजारों करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान हुआ। उन्होंने कहा कि इससे जुड़े दस्तावेज भी सीबीआई को भेज दिए गए हैं। दूसरी ओर सीबीआई के पास विजिलेस डायेक्टर की जांच रिपोर्ट है, जिसमें कहा गया है कि सिसोदिया ने मनमाने तरीके से आबकारी नीति बनवाई और उसको मंजूरी दी। बताया जा रहा है कि इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सिसोदिया ने राज्य मंत्रिमंडल में और तत्कालीन उप राज्यपाल से भी विचार विमर्श नहीं किया। इस जांच में नई शराब नीति की पूरी जिम्मेदारी सिसोदिया पर डाली गई है और कहा गया है कि राज्य को हजारों करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान हुआ है। इसी रिपोर्ट के आधार पर उप राज्यपाल सक्सेना ने एक आईएएस अधिकारी सहित 11 अधिकारियों और कर्मचारियों को निलंबित किया है। सीबीआई इसी को आधार बना कर जांच करेगी।

नीतीश ने बनाया शपथ लेने का रिकॉर्ड

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नाम अब एक नया रिकॉर्ड और जुड़ गया है- सबसे ज्यादा बार शपथ लेने का रिकॉर्ड। केंद्र सरकार में मंत्री से लेकर बिहार में मुख्यमंत्री पद तक की शपथ वे इतनी बार ले चुके हैं कि संभवत: दूसरा कोई उनके बराबर नहीं होगा। उनसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे कई नेता है। पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु से लेकर ओड़िशा में नवीन पटनायक और सिक्किम में पवन कुमार चामलिंग का नाम लिया जा सकता है लेकिन किसी ने इतनी बार शपथ नहीं ली, जितनी बार नीतीश ने ली है। पिछली दो विधानसभाओं में उन्होंने दो-दो बार शपथ ली और इस बार भी उन्होंने दूसरी बार शपथ ली। यह अनोखा रिकॉर्ड भी उनके नाम होगा। साल 2000 से अब तक नीतीश कुमार कुल मिला कर आठ बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं। मुख्यमंत्री के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री के तौर पर ली गई उनकी शपथों को जोड़ दे तो आंकड़ा बहुत बड़ा हो जाएगा क्योंकि नीतीश कुमार 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के समय से केंद्र में मंत्री पद की शपथ लेते रहे हैं और 2005 में मुख्यमंत्री बनने से पहले उन्होंने केंद्रीय मंत्री के रूप में चार बार शपथ ली है।

हिमाचल में भाजपा को रिवाज बदलने की उम्मीद

हिमाचल प्रदेश भी उन चंद राज्यों में शामिल हैं, जहां हर पांच साल में सत्ता बदल जाती है। इस छोटे से पहाड़ी सूबे में पिछले तीन दशक से बारी-बारी से कांग्रेस और भाजपा की सरकार बनती रही है। इस लिहाज से पांच साल से सरकार चला रही भाजपा को इस बार सत्ता से बाहर होना चाहिए। लेकिन भाजपा यह सिलसिला तोड़ना चाहती है, इसलिए उसने नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले यह अभियान शुरू किया है कि इस बार राज नहीं, रिवाज बदलना है। यानी हर पांच साल में सत्ता बदलने का रिवाज बदल देना है। भाजपा को उम्मीद है कि जिस तरह से उत्तराखंड में रिवाज बदला है उसी तरह पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में भी बदल सकता है।

गौरतलब है कि उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से ही हर पांच साल में सत्ता बदलने का रिवाज था लेकिन इस बार भाजपा लगातार दूसरी बार सत्ता में आई है। इसीलिए हिमाचल प्रदेश में भी भाजपा इस तरह की उम्मीद कर रही है। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी का दांव इसी बात पर है कि इस बार उसकी बारी है। हालांकि आम आदमी पार्टी उसके रास्ते में बड़ी बाधा बन रही है। भाजपा को इससे भी उम्मीद है। आम आदमी पार्टी हर सीट पर चुनाव लड़ेगी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल दुनिया भर की सुविधाएं मुफ्त देने की घोषणा कर रहे हैं। कांग्रेस को यह डर सता रहा है कि आम आदमी पार्टी उसके वोट काट लेगी, जिसका फायदा भाजपा को होगा।

ऐसे कैसे सांसद, विधायक जिन्हें वोट डालना नहीं आता!

यह कमाल की बात है कि जिन सांसदों और विधायकों को लाखों लोग वोट डाल कर चुनते हैं, जब उनके खुद के वोट डालने की बारी आती है तो वे गलती कर जाते हैं। हाल ही में उप राष्ट्रपति के चुनाव में 15 सांसदों के वोट अवैध हो गए। उप राष्ट्रपति के चुनाव में सिर्फ दो उम्मीदवार थे और हर सांसद को उम्मीदवार के आगे अपना वरीयता क्रम लिखना था। यानी भाजपा या उसके सहयोगी दल के सांसद को जगदीप धनखड़ के आगे अंक में एक लिखना था और कांग्रेस या उसके सहयोगी दल दल के सांसद को मारग्रेट अल्वा के आगे एक लिखना था। इसके बावजूद 15 सांसदों के वोट अवैध हो गए। इससे पहले पिछले महीने हुए राष्ट्रपति के चुनाव में भी 15 सांसदों के वोट अवैध हुए थे। राष्ट्रपति के चुनाव में करीब 4800 विधायकों और 748 सांसदों ने वोट डाला था। वोट करने वाले विधायकों में से सिर्फ 38 विधायकों के वोट अवैध हुआ, जबकि 748 में 15 सांसदों के वोट अवैध हो गए। वहां भी सिर्फ अपनी पसंद के उम्मीदवार के आगे अंक में एक लिखना था। देश के सिर्फ 13 राज्य ऐसे रहे, जहां के किसी विधायक का वोट अवैध नहीं हुआ। जिन राज्यों के विधायकों के वोट अवैध घोषित हुए उनमें दिल्ली, मध्य प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र जैसे राज्य शामिल हैं। यह हालत तब है जब हर चुनाव से पहले सांसदों और विधायकों को बाकायदा ट्रेनिंग दी जाती है इसके बावजूद वे इतनी आसान वोटिंग प्रक्रिया में भी गलती कर देते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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