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ख़बरों के आगे-पीछे: जस्टिस यादव के बयान को सरकार का समर्थन? 

केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह जस्टिस शेखर यादव के समर्थन में खुल कर आगे आए हैं। सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत के तहत मंत्री का बयान एक तरह से पूरी सरकार का बयान होता है।
Giriraj Singh

इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज शेखर यादव के पूरे 35 मिनट के भाषण का एक-एक वाक्य नफरती और संविधान विरोधी है, जिसके लिए उनकी व्यापक आलोचना हो रही है और सुप्रीम कोर्ट ने भी उनके भाषण पर संज्ञान लेते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट से रिपोर्ट तलब की है। लेकिन केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह जस्टिस शेखर यादव के समर्थन में खुल कर आगे आए हैं। उन्होंने कहा है कि जस्टिस शेखर यादव ने जो कुछ कहा उसमें कुछ भी गलत नहीं है। सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत के तहत मंत्री का बयान एक तरह से पूरी सरकार का बयान होता है, इसलिए प्रधानमंत्री भी अगर जस्टिस यादव के बयान को आपत्तिजनक मानते हैं तो उन्हें गिरिराज सिंह से इस्तीफा ले लेना चाहिए। जज और मंत्री दोनों का ही नियोक्ता राष्ट्रपति होता है। जज के खिलाफ तो राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री सीधे कोई कार्रवाई नहीं कर सकते, क्योंकि संवैधानिक प्रावधान के मुताबिक उसे महाभियोग के जरिये ही हटाया जा सकता है, लेकिन केंद्रीय मंत्री को तो प्रधानमंत्री की सिफारिश पर राष्ट्रपति ही नियुक्त करते हैं, इसलिए अगर प्रधानमंत्री अपने मंत्री से इस्तीफा नहीं लेते हैं तो राष्ट्रपति को अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए उस मंत्री को बर्खास्त कर देना चाहिए। यही संवैधानिक व्यवस्था है। अगर ऐसा नहीं होता है तो यही माना जाएगा कि जस्टिस शेखर यादव और मंत्री गिरिराज सिंह ने जो कुछ कहा है उससे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी पूरी तरह सहमत हैं।

भाजपा का अमेरिका पर नादानी भरा आरोप 

यह अभूतपूर्व और हैरानी की बात है कि भारत जैसा लोकतांत्रिक देश, जो अमेरिका को दोस्त मानता हो और जिसके प्रधानमंत्री अमेरिका के राष्ट्रपतियों को अपनी निजी दोस्त बताते हो उस देश में प्रधानमंत्री की पार्टी अमेरिकी सरकार पर सीधे आरोप लगाए कि वह भारत विरोधी एजेंडा चला रही है। भाजपा ने स्पष्ट रूप से कहा है कि अमेरिका का विदेश विभाग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विरोधी एजेंडा चलाता है और भारत विरोधी अभियान चलाने वाली संस्थाओं की मदद करता है। ऑर्गनाइज्ड क्राइम एंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट पर हमला करना समझ में आता है। उसको मिलने वाली जॉर्ज सोरोस की फंडिंग या राहुल गांधी के इस संस्था की रिपोर्ट के हवाले से केंद्र सरकार पर हमला करने को मुद्दा बनाना भी समझ में आता है। लेकिन सीधे अमेरिकी सरकार को भारत विरोधी बताना समझ से परे है। अगर यह माना जाए कि कूटनीति में सारी बातें किसी न किसी मकसद से कही जाती हैं तो इसका मतलब है कि भाजपा ने जो कुछ कहा है उसके पीछे कोई मकसद है। सवाल है कि क्या भारत का सत्तारूढ़ दल निवर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन के प्रशासन को कठघरे में खड़ा कर रहा है? क्या भाजपा नेता और देश की सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग यह मान रहे है कि इससे नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप खुश होकर उन्हें शाबाशी देंगे? अगर ऐसा है तो ऐसी सोच मूर्खतापूर्ण ही मानी जाएगी। क्योंकि एक तो अमेरिका में राष्ट्रपति कोई हो, उसका प्रशासन अमेरिका फर्स्ट की नीति पर चलता है और दूसरे डेमोक्रेटिक पार्टी हमेशा के लिए अमेरिका की सत्ता से बाहर नहीं हुई है।

किसानों को किसी की अनुमति की ज़रूरत नहीं

पंजाब और हरियाणा के शंभू बॉर्डर पर पिछले नौ महीने से धरना दे रहे किसान दिल्ली आना चाहते हैं और वे जब दिल्ली की ओर कूच करते है तो हरियाणा की पुलिस उन पर लाठी चला कर या पानी की बौछार मार कर या आंसू गैस के गोले छोड़ कर उनको रोक दे रही है। पुलिस वाले उनसे पूछ रहे है कि क्या उनके पास दिल्ली जाने की परमिशन है? सवाल है कि किसी को भी दिल्ली आने के लिए परमिशन लेने की जरुरत क्यों होनी चाहिए? क्या भारत सरकार ने कोई नया नियम बनाया है कि दिल्ली आने के लिए पहले से अनुमति लेनी होगी? दिल्ली देश की राजधानी है और इस देश का कोई भी नागरिक, कहीं से और कभी भी दिल्ली आ सकता है और उसे किसी की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है। 

जिस राजधानी दिल्ली में केंद्र सरकार के अनुसार सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिए रह रहे हैं और जिन पर भाजपा राजनीति कर रही है, वहां आने के लिए अपने देश के किसानों से पूछा जा रहा है कि उनके पास परमिशन है या नहीं! कोई किसान अकेले आए या 101 किसानों का जत्था दिल्ली आना चाहे, कोई भी सरकार या पुलिस उन्हें नहीं रोक सकती। दिल्ली पहुंचने के बाद उनको किसी खास जगह पर प्रदर्शन करने या जुलूस निकालने के लिए पुलिस और स्थानीय प्रशासन की अनुमति की जरूरत होगी। किसानों से दिल्ली प्रवेश की परमिशन की कॉपी मांगने वाले पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई होनी चाहिए।

दिल्ली, बिहार में भी भाजपा 'घुसपैठ’ के भरोसे

भाजपा ने पिछले दिनों झारखंड का चुनाव घुसपैठ के मुद्दे पर लड़ा और बुरी तरह हारी। लेकिन इस मुद्दे से उसे इतना ज्यादा लगाव है कि अगले साल होने वाले दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव के लिए भी उसने घुसपैठ को बड़ा मुद्दा बना दिया है। दिल्ली में तो दिल्ली पुलिस घुसपैठियों की पहचान करने और उन्हें निकालने के अभियान में जुट गई है। पहले चरण में शाहीन बाग से लेकर जामिया के इलाके में और पूर्वी दिल्ली के कुछ इलाकों में यह अभियान चला है। पुलिस कागज देख रही है और संदिग्धों की पहचान कर रही है। दिल्ली पुलिस ने कहा है कि संदिग्धों की पहचान करके और उनके कागजात जांच कर उन्हे डिटेंशन सेंटर में भेजा जाएगा। हालांकि यह तय है कि भाजपा को इसका नुकसान उठाना पड़ेगा। अगर कांग्रेस और एमआईएम के चुनाव लड़ने से मुस्लिम वोट बंटने की जरा भी संभावना है तो वह दिल्ली पुलिस के इस अभियान से खत्म हो जाएगी। 

इसी तरह बिहार में भी भाजपा ने घुसपैठ को बड़ा मुद्दा बनाया है। उसके नेता घुसपैठियों की पहचान करने और उन्हें निकालने की बात कर रहे हैं, जबकि वहां नीतीश कुमार के चेहरे पर चुनाव लड़ते समय इस तरह के मुद्दे की जरूरत नहीं होती है। फिर भी अगर भाजपा वहां यह मुद्दा चलाए रखती है तो जैसे झारखंड में नुकसान हुआ वैसा ही नुकसान बिहार में भी हो सकता है।

दिल्ली जैसा टकराव कश्मीर में भी

जम्मू कश्मीर अब भी केंद्र शासित प्रदेश है। यह सही है कि उसका राज्य का दर्जा बहाल करने के मसले पर केंद्र सरकार सिद्धांत रूप से सहमत है। कहा जा रहा है कि संसद के शीतकालीन सत्र में इसका प्रस्ताव आ सकता है। लेकिन क्या राज्य का दर्जा बहाल होने के बाद भी जम्मू कश्मीर की सत्ता संरचना में कोई बदलाव होगा या दिल्ली की तरह उप राज्यपाल ही असली सरकार बने रहेंगे? यह संसद में लाए जाने वाले प्रस्ताव से कुछ हद तक पता चलेगा लेकिन अभी तो दिल्ली की तरह ही वहां भी उप राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच टकराव शुरू हो गया है। 

पहला विवाद राज्य के एडवोकेट जनरल को लेकर हुआ है। राज्य के एडवोकेट जनरल डीसी रैना को राज्यपाल रहते सतपाल मलिक ने नियुक्त किया था और उप राज्यपाल मनोज सिन्हा ने उनको बरकरार रखा था। जब उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने तो रैना ने पद से इस्तीफा दे दिया। परंतु उमर चाहते हैं कि रैना पद पर बने रहें, जबकि उप राज्यपाल उन्हें नहीं रखना चाहते हैं। 

दूसरा विवाद चार अधिकारियों के तबादले पर हुआ है। उप राज्यपाल ने तीन आईएएस और एक प्रदेश सेवा के अधिकारी का तबादला कर दिया। राज्य सरकार का कहना है कि राज्य सेवा के अधिकारियों के ट्रांसफर, पोस्टिंग का अधिकार उसके पास है। आने वाले दिनों में यह विवाद और बढ़ेगा। हालांकि उमर अब्दुल्ला मिलजुल कर काम करने वाले मिजाज के नेता हैं। फिर भी सत्ता का क्या स्वरूप बनता है, वह राज्य का दर्जा बहाल होने पर ही तय होगा।

कांग्रेस ने हेमंत सोरेन को मुश्किल में डाला

झारखंड में हेमंत सोरेन अपनी पार्टी को लेकर हमेशा बेफिक्र रहते हैं लेकिन उन्हें अपनी सहयोगी कांग्रेस के बारे में 24 घंटे सोचते रहना होता है। उन्होंने पिछले पांच साल कांग्रेस के विधायकों की चौकीदारी की तो पार्टी बची थी। अब फिर से कांग्रेस के 16 विधायक जीत गए हैं तो पार्टी ने पहले मंत्री पद तय करने में बहुत समय लगाया, जिसकी वजह से हेमंत सोरेन को अकेले शपथ लेनी पड़ी। उसके बाद जब कांग्रेस के नाम तय हुए तो कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल की ओर से इसकी जानकारी देने के लिए हेमंत सोरेन को एक चिट्ठी लिखी गई। कांग्रेस के ही कुछ नेताओं ने वह चिट्ठी लीक कर दी, जिससे मुख्यमंत्री के रूप में हेमंत सोरेन की ऑथोरिटी पर सवाल उठे। चिट्ठी में वेणुगोपाल ने मंत्रियों के नाम और नाम के आगे उनके विभाग भी लिखे। सवाल है कि क्या वेणुगोपाल को पता नहीं है कि मंत्री बनाना और विभाग बांटना मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार होता है? 

कांग्रेस यह जरूर तय कर सकती है कि उसकी ओर से कौन मंत्री बनेगा और किसे कौन सा विभाग मिलेगा लेकिन यह सब कुछ अनौपचारिक तरीके से होना चाहिए। वेणुगोपाल चाहते तो प्रभारी के जरिए यह सूचना मुख्यमंत्री को पहुंचा सकते थे। लेकिन उन्होंने एक्सेल सीट में मंत्री और विभागों के नाम के साथ चिट्ठी लिखी और कांग्रेस नेताओं ने चिट्ठी लीक कर दी। अब भाजपा को एक मौका मिल गया यह कहने का कि हेमंत सोरेन की सरकार दिल्ली से चलती है। वेणुगोपाल ने अपनी ऑथोरिटी दिखाने के लिए मुख्यमंत्री की ऑथोरिटी को दांव पर लगा दिया।

महाराष्ट्र और झारखंड सरकार का फ़र्क़

महाराष्ट्र और झारखंड दोनों राज्यों में विधानसभा चुनाव लगभग एक तरह के मुद्दों पर लड़ा गया। दोनों राज्यों में 'बंटोगे तो कटोगे’ का नारा जोर शोर से उठाया गया। इसी तरह दोनों राज्यों में खुले हाथ से 'मुफ्त की रेवड़ी’ बांटी गईं और नई सरकार बनने पर मुफ्त की ढेर सारी और चीजें व सेवाएं देने का वादा किया गया। लेकिन चुनाव नतीजों के बाद दोनों राज्य सरकारो के कामकाज से इसका फर्क दिखने लगा है। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने पहली कैबिनेट मीटिंग में जहां अपने वादे के मुताबिक 'मइयां सम्मान योजना’ की राशि 1100 रुपए महीना से बढ़ा कर ढाई हजार कर दी है। वहीं महाराष्ट्र सरकार ने यह फैसला टाल दिया। हैरानी की बात है कि महाराष्ट्र राजस्व के मामले में देश के सबसे अमीर राज्यों में शामिल है लेकिन शपथ लेने के बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने 'माझी लाड़की बहिन योजना’ की राशि में बढ़ोतरी का फैसला टाल दिया और साथ ही इस योजना की समीक्षा करने की भी बात कही। गौरतलब है कि राज्य में इस योजना के तहत महिलाओं को हर महीने डेढ़ हजार रुपए दिए जा रहे हैं, जिसे बढ़ा कर 2100 रुपए करने का वादा किया गया था। लेकिन सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री ने कह दिया है कि बढ़ी हुई राशि अगले वित्त मंत्री यानी मार्च 2025 के बाद मिलेगी। उसके बाद भी कब से मिलेगी यह नहीं कहा गया है। इसके साथ ही सरकार ने यह भी कहा है कि योजना की समीक्षा की जाएगी और उन लोगों की पहचान की जाएगी, जो पात्र नहीं होने के बावजूद इसका लाभ ले रहे हैं।  

शर्मिला और जगन का साथ आना मुश्किल

आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वाईएसआर कांग्रेस के नेता जगन मोहन रेड्डी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। उनके परिवारिक विवाद ने राजनीतिक रूप ले लिया है। उनकी बहन और कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष वाईएस शर्मिला ने भी मांग की है कि अदाणी मामले में जगन मोहन की जांच होनी चाहिए। राज्य में सत्तारूढ़ तेलुगू देशम पार्टी तो चाहती ही है कि जगन मोहन की जांच हो। मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू जांच की बात कह चुके है पर मुश्किल यह है कि इस मामले में जांच होगी तो आंच केंद्र सरकार के एक विभाग और कारोबारी गौतम अदाणी तक जाएगी। इस बात को जगन भी समझ रहे हैं, इसीलिए उन्होंने सामने आकर कहा कि उनकी सरकार का समझौता भारत सरकार के साथ हुआ था। 

बाद में खबर आई कि भारत सरकार ने बड़ी नीतिगत छूट दी थी, जिसके बाद सोलर एनर्जी कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के साथ आंध्र प्रदेश की तत्कालीन सरकार का समझौता हुआ था। सो, ऐसा लग नहीं रहा है कि इस मामले की जांच कहीं पहुंचेगी या इसमें जगन मोहन फंसेंगे। लेकिन उनकी बहन वाईएस शर्मिला ने जांच की मांग करके अपना इरादा जाहिर कर दिया है। वे अपनी पार्टी की लाइन पर ही आगे बढ़ रही हैं। जाहिर है कि निकट भविष्य में भाई और बहन के बीच संबंधों में सुधार की संभावना नहीं है। पहले उम्मीद थी कि जगन के चुनाव हारने के बाद दोनों साथ आ सकते है। लेकिन अब लग रहा है कि शर्मिला विपक्षी राजनीति में जगन का स्पेस लेने की कोशिश में हैं। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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