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ख़बरों के आगे-पीछे: अश्विन की ऐसी रूखी विदाई

वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन अपने साप्ताहिक कॉलम में राजनीति से लेकर खेल तक की बात करते हुए कई महत्वपूर्ण सवाल उठा रहे हैं। 
Ravichandran Ashwin

समान क़ानून पर केंद्र पीछे हटा

केंद्र सरकार ने देश में समान नागरिक संहिता यानी यूसीसी लागू करने का इरादा लगभग छोड़ दिया है। इस बारे में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक तरह से साफ कर दिया है कि सरकार इस संबंध में विधेयक नहीं लाएगी। उन्होंने संविधान पर दो दिन तक राज्यसभा में हुई चर्चा का जवाब देते हुए कहा कि भाजपा शासित राज्यों में समान नागरिक संहिता का कानून लागू किया जाएगा। अमित शाह ने उत्तराखंड की मिसाल दी और कहा कि जिस तरह से उत्तराखंड में यूसीसी को लागू किया गया है उसी तर्ज पर अन्य भाजपा शासित राज्यों में इसे लागू किया जाएगा। इसका मतलब है कि एक-एक करके भाजपा शासित राज्यों की सरकारें यह विधेयक अपने यहां विधानसभा में पारित कराएंगी। 

भाजपा ने पिछले दिनों झारखंड विधानसभा चुनाव में वादा किया था कि उसकी सरकार बनी तो वह समान नागरिक कानून लागू करेगी और आदिवासियों को उससे बाहर रखेगी। कुछ दिन पहले जब उत्तराखंड में कानून लागू हुआ तब असम सरकार ने उसी ड्राफ्ट के आधार पर अपने यहां विधेयक लाने का ऐलान किया था। दिलचस्प बात यह है कि जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई कमेटी की सिफारिशों के आधार पर उत्तराखंड का कानून बना तो विधि आयोग के सदस्यों ने भी उस कमेटी के लोगों से मुलाकात की थी। तब कहा जा रहा था इसी मसौदे के आधार पर केंद्र सरकार भी बिल लाएगी। लेकिन अब लगता है कि केंद्र सरकार पीछे हट गई है।

रिजर्व बैंक के नए गवर्नर, पुराना ढर्रा

भारतीय रिजर्व बैंक के गर्वनर पद पर बैठाए गए संजय मल्होत्रा लगातार दूसरे नौकरशाह हैं। उनकी नियुक्ति इस बात का संकेत है कि केंद्र सरकार भविष्य में आरबीआई से कैसी भूमिका की अपेक्षा रखती है। मल्होत्रा ने इस प्रतिष्ठित संस्था की कमान संभालने के तुरंत बाद जो कहा, उससे यह भी जाहिर हो गया है नए गवर्नर किस रूप में अपनी भूमिका देखते हैं। मल्होत्रा ने कहा, ''अब जबकि हम अमृत काल में प्रवेश कर रहे हैं, हमारी अर्थव्यवस्था जिस हाल में हैं, उसे और विकसित होने की जरूरत है, ताकि 2047 तक विकसित भारत की दृष्टि साकार हो सके।’’ लाजिमी है कि ऐसे वक्तव्य आर्थिक से ज्यादा राजनीतिक रंग लिए दिखे। सेंट्रल बैंकों (जिसे भारत में रिजर्व बैंक कहा जाता है) की क्या भूमिका होना चाहिए, इस पर सोच अक्सर टकराती रही है। लोकतांत्रिक देशों में सरकारों की अपनी सियासी एवं चुनावी प्राथमिकताएं होती हैं, जो कई बार अर्थव्यवस्था की बड़ी जरूरतों के खिलाफ चली जाती है। उस समय सेंट्रल बैंकों से उम्मीद रहती है कि वे शासक दल की जरूरत के मुताबिक चलने के बजाय अर्थव्यवस्था के बुनियादी तकाजों को प्राथमिकता देंगे। कम-से-कम 1990 के बाद से भारत में रिजर्व बैंक की कमान पेशेवर गवर्नरों के हाथ में रही और उन्होंने अपेक्षाकृत स्वायत्त ढंग से फैसले लिए। मगर नरेंद्र मोदी सरकार के आने और शक्तिकांत दास के गवर्नर बनने के बाद से कहानी बदल गई है। अब नए गवर्नर ने जो संकेत दिए हैं, उससे शुरुआती धारणा तो यही बनी है कि रिजर्व बैंक सरकार की मर्जी से काम करेगा। 

भारतीय सेना के गौरव से भी नफ़रत!

वैसे तो भारतीय सेना ने अपनी असाधारण बहादुरी, अदम्य साहस और सर्वोच्च बलिदान से देश को गर्व करने के कई मौके दिए हैं लेकिन अगर देश में आम लोगों से भी पूछा जाए कि भारतीय सेना का सबसे गौरवशाली क्षण कौन सा था तो ज्यादातर लोगों का जवाब होगा, 1971 की लड़ाई, जिसमें पाकिस्तानी फौज के 96 हजार जवानों ने भारत के सामने समर्पण किया था। लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने पाकिस्तानी फौज के लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी के पिस्तौल रख कर सरेंडर करने की तस्वीर आज भी रोमांचित कर देती है। यह तस्वीर एक ऐतिहासिक दस्तावेज है- भारतीय सेना के शौर्य का, दक्षिण एशिया के भूगोल बदलने का और भारत के विश्व शक्ति बनने का। इस तस्वीर के घटित होने से दुनिया के नक़्शे पर बांग्लादेश नामक देश का जन्म हुआ था और मजहब के आधार पर भारत से अलग होकर बना पाकिस्तान दो टुकड़े हो गया था। पाकिस्तान का टूटना जिन्ना और सावरकर-गोलवलकर के 'दो राष्ट्र सिद्धांत’ की हार थी। इसीलिए यह गौरवशाली तस्वीर भारतीय थल सेनाध्यक्ष के कार्यालय के लाउंज में लगाई गई थी। लेकिन जिनका खुद का इतिहास गद्दारी, चापलूसी और कायरता का है, उन्हें देश का स्वर्णिम इतिहास कैसे पसंद आ सकता है? लिहाजा उस तस्वीर को हटवा दिया गया है और उसकी जगह मिथकी परिकल्पनाओं वाली एक फूहड पेंटिंग लगा दी गई है। इस बेहूदा हरकत का युद्ध में भाग लेने वाले सेना के ही कई रिटायर्ड अफसरों ने विरोध किया है। उनका कहना है कि यह सेना के गौरवशाली इतिहास को दुनिया की नजरों से दूर करने वाला फैसला है।

जम्मू कश्मीर को राज्य का दर्जा फिर टला

केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का मामला एक बार फिर टाल दिया। संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले सरकार की बुलाई सर्वदलीय बैठक के बाद सरकार की ओर से प्रस्तावित विधायी कामकाज की जो जानकारी दी गई थी उसमें जम्मू कश्मीर को राज्य का दर्जा देने का मुद्दा नहीं था। लेकिन तब कहा गया था कि उसे बाद में शामिल किया जा सकता है। उस समय 'एक देश, एक चुनाव’ का मुद्दा भी प्रस्तावित कार्यसूची में नहीं था। लेकिन उसे संसद में पेश कर दिया गया मगर जम्मू कश्मीर को राज्य का दर्जा देने का प्रस्ताव नहीं लाया गया। 

केंद्रीय मंत्री और जम्मू कश्मीर के सांसद जितेंद्र सिंह ने इस मामले में स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि सही समय पर जम्मू कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल होगा और यह वादा सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया है। अब सवाल है कि वादा पूरा करने की कोई समय सीमा भी है? सवाल यह भी है कि सही समय कब आएगा? राज्य में विधानसभा का चुनाव हो गया, सरकार बन गई, चुनी हुई सरकार ने विधानसभा में राज्य का दर्जा बहाल करने का प्रस्ताव पास कर दिया, उप राज्यपाल ने उसकी मंजूरी भी दे दी फिर भी केंद्र सरकार के लिए उचित समय नहीं आया। सरकार ने वहां चुनाव भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर करवाए थे, अब लगता है उसे राज्य का दर्जा देने के लिए भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का इंतजार किया जाएगा। 

अश्विन की ऐसी रूखी विदाई

कोई बड़ा क्रिकेट खिलाड़ी किसी बड़ी टेस्ट शृंखला के बीच अचानक रिटायर होने का एलान करे तो उसे अवकाश लेने की सामान्य प्रक्रिया नहीं माना जा सकता। बड़े खिलाड़ियों की विदाई अक्सर नियोजित और सम्मानजनक ढंग होती है। इसलिए रविचंद्र अश्विन ने जिस तरह भारत-ऑस्ट्रेलिया टेस्ट सीरीज के बीच अचानक रिटायर होने का एलान किया, लाजिमी है कि उस पर कयास लगाए जाएंगे। इसे संकेत माना जाएगा कि भारतीय क्रिकेट प्रशासन में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। अश्विन मैच जिताऊ खिलाड़ी रहे हैं। भारत के पूरे क्रिकेट इतिहास में अनिल कुंबले (619) के बाद टेस्ट विकेट लेने के लिहाज से वे दूसरे नंबर पर (537) हैं। अपने छह टेस्ट शतकों के साथ दुनिया के टॉप स्पिनरों में बतौर बल्लेबाज वे पहले नंबर पर हैं। 13 साल तक चले टेस्ट करियर के दौरान 106 मैचों में उन्होंने 37 बार एक पारी में पांच और आठ बार मैच में दस विकेट उन्होंने लिए। अब कप्तान रोहित शर्मा और खुद अश्विन के बयानों से साफ है कि 38 वर्षीय अश्विन खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे थे। इस सीरीज में अब तक हुए तीन मैचों में से उन्हें सिर्फ एक में खिलाया गया। संकेत यह था कि अगले दो मैचों में भी उनकी जगह पक्की नहीं है। ऐसे में उन्होंने तुरंत अवकाश लेने का एलान कर दिया।

यह सही है कि बड़े खिलाड़ियों को उनके नाम के आधार पर भी ढोया जाता रहा है । लेकिन खिलाड़ियों को गाइड करने और उन्हें उचित सलाह देने का सिस्टम जरूर मौजूद होना चाहिए। इसके लिए स्वस्थ संवाद की जरूरत है। लेकिन हालिया संकेत यही है कि भारतीय क्रिकेट संचालन में सीधा संवाद गायब है। 

संविधान पर संसदीय बहस बेमतलब रही

संविधान की 75वीं सालगिरह पर संसद मे विशेष चर्चा का आयोजन तय हुआ, तो सामान्य स्थितियों में यही अपेक्षा होती कि इस संविधान के तहत 75 साल के अनुभवों पर संसद में गंभीरता से मंथन होगा। इस दौरान वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था की उपलब्धियों और नाकामियों का ठोस आकलन किया जाएगा, ताकि भविष्य को बेहतर बनाने पर विचार-विमर्श हो सके। लेकिन यह सामान्य समय नहीं है। इसमें संविधान भी सियासी मुद्दा है। पक्ष और विपक्ष में होड़ यह बताने की है कि किसने संविधान की भावना का ज्यादा उल्लंघन किया है। दोनों सदनों में हुई चर्चा पर यह सियासी होड़ ही हावी रही। संविधान की तारीफ, अनेक संदर्भों में इसके अयथार्थ महिमामंडन की आम होड़ और उन कसौटियों पर दूसरे पक्ष को कमतर दिखाने की प्रवृत्ति से संसदीय बहस उबर नहीं पाई। 

कहा जा सकता है कि संविधान पर किसी सार्थक चर्चा की उम्मीद संसद से करने का कोई फिलहाल आधार नजर नहीं आता। अगर सचमुच भारतीय संविधान के अनुभवों और आज उसके सामने उपस्थित हुई चुनौतियों पर सार्थक बात करनी है, तो यह दायित्व शायद बुद्धिजीवियों और नागरिक समाज को ही उठाना होगा। संविधान कोई धर्म ग्रंथ नहीं होता, जिसकी आलोचनात्मक समीक्षा न की जाए। वह वक्त के तकाजों के अनुरूप बना रहे, इसलिए आवश्यक है कि उसके हर पहलू पर हमेशा सारगर्भित चर्चा करते हुए अधिकतम आम सहमति हासिल की जाए। मगर आज ऐसी चर्चाएं नागरिक समाज में भी गायब है। नतीजतन संविधान को लेकर मिथकों की भरमार हो गई है। संसदीय बहस उन मिथकों में ही उलझी रही।

केजरीवाल को याद आया निर्भया केस 

अरविंद केजरीवाल को 12 साल बाद फिर से निर्भया केस की याद आई है। पिछले 12 साल में से 10 साल के करीब वे मुख्यमंत्री रहे। लेकिन उन्होंने न तो कभी इस केस को याद किया और न निर्भया के परिजनों की किसी तरह की मदद की। उन्होंने 2013 में निर्भया मामले पर चुनाव लड़ कर जीत हासिल की थी। तब उन्होंने दिल्ली को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने के लिए कई कदम उठाने के वादे किए थे। यह सही है कि दिल्ली सरकार के पास पुलिस नहीं है लेकिन बसों में मार्शलों की तैनाती से लेकर लाखों की संख्या में सीसीटीवी कैमरे लगवाने और सुनसान अंधेरे इलाकों में लाइट की व्यवस्था करने के वादे तो वे पूरे कर सकते थे। लेकिन उन्होंने वास्तव में कुछ ज़्यादा नहीं किया। अब 10 साल शासन करने के बाद उनके सामने मुश्किलें दिख रही हैं तो उन्होंने कानून-व्यवस्था को इस बार सबसे बड़ा मुद्दा बनाया है। वे बार-बार दिल्ली को गैंगेस्टर कैपिटल कहते हुए महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा उठा कर भाजपा और केंद्र सरकार को घेर रहे हैं। उन्होंने निर्भया की याद में त्यागराज स्टेडियम में एक कार्यक्रम रखा और महिलाओं के प्रति हमदर्दी दिखाई। हकीकत यह है कि पिछले 10 साल में अकेले राहुल गांधी ने निर्भया के परिवार की मदद की। राहुल ने निर्भया के भाई को पढ़ाया, पायलट की ट्रेनिंग और लाइसेंस और काम भी दिलवाया। इस दौरान केजरीवाल भाजपा से लड़ कर राष्ट्रीय पार्टी बनने की राजनीति करते रहे। अब कानून व्यवस्था के मुद्दे पर चुनाव लड़ना है तो निर्भया की याद आ गई।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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