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ख़बरों के आगे–पीछे: हरियाणा में भाजपा बचाव की मुद्रा में 

वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन अपने साप्ताहिक कॉलम में हरियाणा और जम्मू-कश्मीर चुनाव के साथ कॉरपोरेट वॉर का विश्लेषण कर रहे हैं। 
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फ़ाइल फोटो। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सैनी । फोटो- साभार

मोदी अब परिवारवाद पर क्या बोलेंगे? 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब हरियाणा में चुनाव प्रचार करने जाएंगे तब सबकी नजर इस बात पर होगी कि वे परिवारवाद को लेकर क्या बोलते हैं। यह उनका सबसे पसंदीदा मुद्दा है। वे इस पर संसद में और लाल किले की प्राचीर से भी कह चुके हैं कि भारत के लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा परिवारवाद है। यह बात वे विदेशों में भी बोलते रहे हैं। हरियाणा इस पर बात करने के लिए और खास जगह इसलिए है, क्योंकि कांग्रेस की ओर से भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा कमान संभाले हुए हैं, जो एक बड़े राजनीतिक परिवार से आते हैं तो तीसरा और चौथा मोर्चा चौधरी देवीलाल के बेटे, पोते और परपोते संभाल रहे हैं। ऐसे में मोदी को कायदे से हरियाणा में परिवारवाद को बड़ा मुद्दा बनाना चाहिए। लेकिन क्या वे ऐसा करेंगे? यह सवाल इसलिए है क्योंकि भाजपा के उम्मीदवारों की पहली सूची राजनीतिक परिवार के सदस्यों से भरी हुई है। पार्टी ने 67 में एक दर्जन ऐसे उम्मीदवार उतारे हैं, जो किसी न किसी राजनीतिक परिवार के सदस्य हैं। इतना ही नहीं, इनमें कई उम्मीदवार तो ऐसे हैं, जिनके माता पिता अब भी सक्रिय हैं और भाजपा ने उनको भी कोई न कोई पद दे रखा है। यानी पिता-पुत्र या पिता-पुत्री या मां-बेटी को एक साथ एडजस्ट किया गया है। यह भी दिलचस्प है कि अपनी पार्टी में राजनीतिक परिवार वाले उम्मीदवार नहीं मिले तो दूसरी पार्टी से लाकर उन्हें टिकट दिया गया है। देखना दिलचस्प होगा कि ऐसे सब लोगों को लेकर प्रधानमंत्री मोदी परिवारवाद पर कितना तीखा हमला करते हैं।

हरियाणा में वोट बंटने की चिंता

यह हैरानी की बात है कि राहुल गांधी ने हरियाणा में आम आदमी पार्टी के साथ तालमेल की पहल की है। कांग्रेस के नेता भी हैरान है कि आखिर अचानक राहुल ने यह कदम क्यों उठाया। बताया जा रहा है कि कांग्रेस को जमीनी फीडबैक और सर्वेक्षण की रिपोर्ट से पता चला है कि वहां वोट बंट सकता है, जिसका फायदा भाजपा को होगा। गौरतलब है कि राज्य में पहले से इंडियन नेशनल लोकदल व बसपा और जननायक जनता पार्टी व आजाद समाज पार्टी का तालमेल हो गया है। ये दोनों गठबंधन जाट और दलित वोट में सेंध लगाएंगे, जिसके भरोसे कांग्रेस चुनाव लड़ रही है। ऊपर से अगर आम आदमी पार्टी भी अकेले लड़ती है तो वह भी कुछ वोट काट सकती है। कांग्रेस को यह चिंता है कि हरियाणा की सीमा से लगते दो राज्यों- दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है। इन दोनों राज्यों में मुफ्त में तमाम तरह की वस्तुएं, सेवाएं और नकदी देने की योजनाओं का कुछ असर दिल्ली और पंजाब से लगती सीमा वाली सीटों पर हो सकता है। किसानों का भी कुछ वोट आम आदमी पार्टी को जा सकता है। यही वजह है कि कांग्रेस ने उसके साथ तालमेल की पहल की। उसे यह मैसेज देना है कि विपक्षी गठबंधन बिखरा नहीं है। यह मैसेज दूसरे राज्यों में भी असर डालने वाला हो सकता है। लोकसभा चुनाव में बेशक कुरुक्षेत्र सीट पर आम आदमी पार्टी हार गई थी, लेकिन कांग्रेस को उस तालमेल से फायदा हुआ।

अमित शाह की घटती हनक का संकेत

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को एक सितंबर को हरियाणा के जींद में एक रैली में शामिल होना था। प्रदेश भाजपा की ओर से आयोजित जन आशीर्वाद रैली मे शाह मुख्य अतिथि थे। लेकिन एक दिन पहले उनका कार्यक्रम रद्द हो गया। सवाल है कि आखिर वे जींद की रैली में क्यों नहीं गए, जबकि एक सितंबर को उनका कोई दूसरा कार्यक्रम भी नहीं था। बताया जा रहा है कि दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी (जजपा) के नेताओं और कुछ इधर-उधर के दूसरे नेताओं को भाजपा में शामिल किए जाने से वे खुश नहीं हैं। सूत्रों का कहना है कि जजपा के तीन नेताओं को भाजपा में शामिल करने की खबर मिलने के बाद शाह ने कार्यक्रम रद्द किया। बताया जा रहा है कि शाह ने कहा था कि भाजपा अपने नेताओं के दम पर चुनाव लड़ने में सक्षम है इसलिए किसी बाहरी नेता को शामिल कराने की जरुरत नहीं है। लेकिन केंद्रीय मंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की पहल पर सभी नेताओं को भाजपा में शामिल कराया गया। 

सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह रही कि अमित शाह का दौरा रद्द होने के बाद भाजपा की रैली के पोस्टर से उनका फोटो भी हटा दिया गया। प्रदेश भाजपा ने सोशल मीडिया में जो पोस्टर जारी किया उसमें भी नरेंद्र मोदी और जेपी नड्डा के साथ प्रदेश के नेताओं के फोटो थे लेकिन अमित शाह का फोटो नदारद था। यह पूरा वाकया पार्टी में अमित शाह की घटती हनक का संकेत है।

हरियाणा में भाजपा बचाव की मुद्रा में 

हरियाणा में भाजपा को किस कदर अपनी जमीन खिसकती नजर आ रही है, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि पहले तो उसने अपना मुख्यमंत्री बदला और अब नए मुख्यमंत्री का चुनाव क्षेत्र भी उसे बदलना पड़ गया। महज छह महीने मुख्यमंत्री बने नायब सिंह सैनी तीन महीने पहले करनाल सीट से उपचुनाव लड़ कर विधानसभा के सदस्य बने थे लेकिन अब पार्टी ने उन्हें करनाल के बजाय लाडवा से उम्मीदवार बनाया है। सवाल है कि जिन सैनी के नाम पर भाजपा को चुनाव लड़ना है, उनकी सीट आखिर क्यों बदलना पड़ी? क्या भाजपा को लग रहा है कि सैनी चुनाव हार सकते हैं? क्या खट्टर सरकार के खिलाफ जिस एंटी इन्कम्बैंसी की चर्चा चल रही है उसका नुकसान सैनी को हो सकता है? लेकिन अगर ऐसा होता तो उपचुनाव में भी दिखता लेकिन वहां तो सैनी आराम से चुनाव जीत गए। ऐसा लग रहा है कि भाजपा सुरक्षित खेलना चाहती है। उत्तराखंड के अनुभव से उसने यह सबक लिया है। उत्तराखंड में इसी तरह भाजपा ने विधानसभा चुनाव से तीन-चार महीने पहले तीरथ सिंह रावत को हटा कर पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया था और वे विधानसभा चुनाव में हार गए थे। हारने के बाद भी उनको मुख्यमंत्री बनाया गया और वे दूसरी सीट से उपचुनाव लड़ कर जीते। झारखंड में भी पिछली बार भाजपा के मुख्यमंत्री रघुवर दास चुनाव हारे थे। ऐसा कुछ हरियाणा में न हो, इसलिए पार्टी सुरक्षित रास्ता अख्तियार कर रही है।

भाजपा ने कश्मीर घाटी में उम्मीद छोड़ दी

लगता है कि भाजपा जम्मू-कश्मीर में सिर्फ जम्मू इलाके में चुनाव जीत कर सरकार बनाने के सपने देख रही है। इससे पहले जम्मू-कश्मीर में आखिरी बार 2014 में विधानसभा चुनाव हुए थे, तब भाजपा को 25 सीटें मिली थीं और ये सभी सीटें जम्मू क्षेत्र की थीं। उसके बाद 10 साल में भाजपा ने तरह-तरह के प्रयोग किए। पहले तो वह मुफ्ती मोहम्मद सईद और फिर महबूबा मुफ्ती के साथ सरकार में रही। उसके बाद पिछले छह साल से राष्ट्रपति शासन में एक तरह से भाजपा का ही राज चल रहा है। राज्य के विभाजन से लेकर परिसीमन और आरक्षण तक अनेक ऐसे काम हुए, जिनसे लगा कि भाजपा इस बार राज्य में अपनी सरकार बनाने के लिए चुनाव लड़ेगी। उसने कश्मीर घाटी की सभी 47 सीटों के लिए उम्मीदवार तैयार किए। लेकिन ऐसा लग रहा है कि उसने कश्मीर घाटी में चुनाव जीतने की उम्मीद छोड़ दी है। इसीलिए पहले चरण में 18 सितंबर को जिन 16 सीटों पर मतदान होना है उनमें से सिर्फ आठ सीटों पर ही भाजपा मैदान में है, वह भी बहुत बेमन से। सवाल है कि अगर घाटी में 47 सीटों पर भाजपा बेमन से लड़ती है तो जम्मू की 43 सीटों पर लड़ कर उसकी सरकार कैसे बनेगी? क्या भाजपा ने चुनाव से पहले ही हार मान ली है और इसलिए उप राज्यपाल को पहले ही ज्यादा ताकत देकर परोक्ष रूप से सत्ता अपने हाथ मे रखने का फैसला किया है या चुनाव बाद गठबंधन की उसकी कोई रणनीति है, जिसे अभी कोई देख नही पा रहा है?

चंदा, शिखा, अरुंधती और अब माधवी 

भारत के शक्तिशाली क्षेत्रों मे गिनी-चुनी महिलाएं ही ऊपर तक पहुंच पाती हैं। खास कर वित्तीय क्षेत्र में उनके लिए ऊपर पहुंचना ज्यादा मुश्किल होता है। लेकिन अफसोस की बात है कि जो गिनी-चुनी महिलाएं वित्तीय संस्थानों में शीर्ष पर पहुंचीं, वे किसी न किसी विवाद में फंस गईं। ताजा मामला शेयर बाजार की नियामक संस्था सेबी की पहली महिला अध्यक्ष माधवी पुरी बुच का है। उन पर वित्तीय गड़बड़ियों के गंभीर आरोप हैं। पहले हिंडनबर्ग रिसर्च ने बताया कि उनका निवेश उस कंपनी में है, जिसमें अडानी समूह का भी निवेश है और वह कंपनी शेयर बाजार में चुनिंदा कंपनियों के शेयरों में तेजी लाने के खेल से भी जुड़ी थी। ऐसे ही मामले में अडानी समूह की जांच सेबी को करनी थी। सो, यह हितों का टकराव भी था। अब सेबी के साथ-साथ उनके आईसीआईसीआई से वित्तीय लाभ लेने का मामला सामने आया है।

माधवी पुरी बुच से पहले चंदा कोचर का मामला आया था। वे वीडियोकॉन कंपनी को लोन देने और उस कंपनी से अपने पति के भाई की कंपनी में निवेश कराने के मामले में फंसी थीं और उन्हें काफी समय जेल में रहना पड़ा था। वे भी देश के सबसे बड़े निजी बैंक की प्रमुख बनने वाली पहली महिला थीं। 

ऐसे ही भारतीय स्टेट बैंक की प्रमुख रहीं अरुंधति भट्टाचार्य भी अडानी समूह के ऑस्ट्रेलिया के विवादित कोयला खदान के प्रोजेक्ट को छह हजार करोड़ रुपए का कर्ज दिए जाने के मामले में विवादों में घिरी थीं। एक्सिस बैंक की प्रमुख रहीं शिखा शर्मा का मामला भी ऐसा ही है।

कॉरपोरेट घरानों में घमासान का दौर

ऐसा लग रहा है कि क्रोनी कैपटलिज्म के बढ़ते दायरे और वित्तीय एजेंसियों को नियंत्रित करने के प्रयासों की वजह से देश में कॉरपोरेट वार की नई संस्कृति शुरू हुई है। सेबी और माधवी पुरी बुच के विवाद में भी कॉरपोरेट वार का पहलू है। अन्यथा कोई कारण नहीं था कि जी समूह के सुभाष चंद्र इस मामले में कूदते और सीधे सेबी प्रमुख पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते। सुभाष चंद्रा की कंपनी के ऊपर दो हजार करोड़ रुपए के घोटाले का मामले की जांच सेबी कर रही है। उनका दावा है कि मयंक नाम का कोई व्यक्ति उनसे मिला था और उसने एक निश्चित कीमत के बदले केस खत्म कराने का प्रस्ताव दिया था। उन्होंने यह भी कहा कि सेबी ज्वाइन करने से पहले माधवी पुरी के परिवार की सालाना आय एक करोड़ थी, जो 40 करोड़ रुपए से ज्यादा हो गई है। कॉरपोरेट वार का ही नतीजा है कि माधवी पुरी का विवाद शुरू होने के कुछ दिन बाद आईसीआईसीआई बैंक से उनको हुए भुगतान का ब्योरा सामने आया। 

ध्यान रहे अडानी समूह को लेकर हिंडनबर्ग रिसर्च की पहली रिपोर्ट आई थी उसी समय यह खबर आई थी कि एक दूसरे बड़े कॉरपोरेट घराने की शह पर यह रिपोर्ट आई है। एक बार फिर हिंडनबर्ग ने ही सेबी की जांच में अडानी समूह को क्लीनचिट मिलने के मामले पर सवाल उठाया और माधवी पुरी बुच के बारे में खुलासा किया। पिछले दिनों अनिल अंबानी सहित अनेक लोगों पर भारी भरकम जुर्माना सेबी ने लगाया और शेयर बाजार में कारोबार करने पर पाबंदी लगा दी। यह भी कॉरपोरेट वार का ही नतीजा लगता है।

स्मृति की जगह कंगना ने ली

लोकसभा का चुनाव हारने के बाद स्मृति ईरानी कुछ-कुछ बदली हुई सी दिख रही हैं। उनकी बातचीत में अब राहुल गांधी को लेकर पहले जैसी तल्खी नहीं है। अब उनकी जगह कंगना रनौत ने ले ली है। लोकसभा चुनाव हारने के बाद स्मृति ईरानी का पहली बार एक लंबा इंटरव्यू आया, जिसमें उन्होंने बहुत वस्तुनिष्ठ तरीके से राहुल गांधी की राजनीति का विश्लेषण किया है। पहली बार दिखा कि उनकी बातों में राहुल गांधी के लिए नफरत नहीं थी। लेकिन उनकी जगह ले रही कंगना रनौत ने हाल ही में अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिए कई इंटरव्यू दिए तो सिर्फ नफरत का प्रदर्शन किया है। उन्होंने पहले किसानों के प्रति नफरत जाहिर की और कहा कि किसान आंदोलन में बलात्कार हो रहे थे, लाशें लटकी हुई थी और अगर देश में मजबूत सरकार नहीं होती तो बांग्लादेश जैसी स्थिति बन जाती। इसके बाद उन्होंने इंदिरा गांधी के प्रति नफरत दिखाते हुए कहा कि जब बांग्लादेश का विभाजन हुआ तब इंदिरा गांधी देश भी बांटना चाहती थीं। उन्होंने राहुल गांधी के प्रति अपनी नफरत जाहिर करते हुए एक न्यूज चैनल के एंकर से पूछ लिया कि आखिर राहुल ने नेता विपक्ष बनने लायक किया क्या है? जब एंकर ने कांग्रेस की 99 सीटों का हवाला दिया तो कंगना एंकर से ही नाराज हो गई। उन्होंने जाति गणना पर भी अपनी राय दी है। पहले इस तरह की बातें स्मृति ईरानी कहा करती थीं। अब ऐसा कहने की जिम्मेदारी कंगना रनौत ने संभाल ली है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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