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ग्रामीण भारत में कोरोना : फसल बेचने में असमर्थ बंगाल के किसानों पर बढ़ रहा है क़र्ज़ का बोझ

गाँवों में सबसे दयनीय स्थिति भूमिहीन परिवारों की है। काम की तलाश में बाहर जा पाने में असमर्थ ये लोग गंभीर संकट से जूझ रहे हैं।
ग्रामीण भारत में कोरोना
प्रतिनिधि छवि। चित्र सौजन्य: विकिमीडिया कॉमन्स

यह एक श्रृंखला की आठवीं रिपोर्ट है जो कोविड-19 से सम्बंधित नीतियों से ग्रामीण भारत के जीवन पर पर पड़ने वाले प्रभावों की झलकियाँ प्रदान करती है। सोसाइटी फ़ॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी की गई इस श्रृंखला में विभिन्न विद्वानों की रिपोर्टें शामिल की गई हैं, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में गाँवों के अध्ययन को संचालित कर रहे हैं। यह रिपोर्ट उनके अध्ययन में शामिल गांवों में मौजूद प्रमुख सूचना प्रदाताओं के साथ हुई टेलीफोन वार्ताओं के आधार पर तैयार की गई है। यह रिपोर्ट राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन का असर इन तीन गांवों -गोपीनाथपुर, कृष्णापुर और सर्पलेहना कैसा पड़ रहा है, को संक्षेप में प्रस्तुत करती है। इसमें इन गाँवों के किसानों के हालात पर रौशनी डालने की कोशिश की गई है, जिनमें से अधिकांश के पास बेहद छोटी जोतें हैं – और जो हाल ही में अपनी काटी हुई हुई फसलों को बेचने में आ रही गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं। गाँवों में जो वर्ग इसके चलते सबसे बुरी तरह से प्रभावित है वह भूमिहीन परिवारों से हैं। काम की तलाश में दूर-दराज के इलाकों में पलायन नहीं कर पाने की वजह से वे बेहद गंभीर संकट से गुज़र रहे हैं।

गोपीनाथपुर, कृष्णपुर और सर्पलेहना गाँव पश्चिम बंगाल राज्य के तीन अलग-अलग कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्रों में स्थित हैं। किस मात्रा में सिंचाई की उपलब्धता है, उसी अनुपात में जमीन में खेती-बाड़ी की जा सकती है जो कि इन क्षेत्रों में अलग-अलग है। गोपीनाथपुर बांकुरा क्षेत्र के कोटुलपुर ब्लॉक में पड़ता है, जो कि कृषि क्षेत्र के लिहाज से पश्चिम बंगाल के सबसे विकसित क्षेत्रों में से एक है। दूसरी और नादिया जिले का कृष्णापुर गाँव एक ऐसे क्षेत्र में पड़ता है, जिसने कृषि में भूजल सिंचाई के व्यापक विस्तार की वजह से हाल के दिनों में जोरदार वृद्धि देखी है। यह वह इलाका है जहाँ से लोगों का भारी संख्या में अंतर-राज्यीय और अंतर्राष्ट्रीय पलायन भी होता है। वहीँ दूसरी तरफ इस इलाके में ईंट भट्टे में काम के लिए पश्चिम बंगाल के पश्चिमी जिलों और झारखंड से प्रवासियों की आमद भी होती है। बीरभूम जिले में सर्पलेहना जो कि पश्चिम बंगाल के लाल मिट्टी वाले क्षेत्र में पड़ता है, में सिंचाई की उपलब्धता ना के बराबर है और इस वजह से कृषि उपज काफी कम है। आदिवासी समुदाय इस क्षेत्र में आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

इन गाँवों में खेती के तीन सीजन हैं: अमन (मुख्य मानसून का मौसम जिसमें प्रमुख फसल घान की होती है, हालाँकि कुछ क्षेत्र चावल या जूट की मानसून-पूर्व वाली खेती भी प्रचलन में है), रबी के सीजन में (सर्दियों के मौसम में आलू या सरसों उगाई जाती है), और बोरो (गर्मियों के मौसम में चावल या तिल की एक सिंचित फसल उगाई जाती है)।

गोपीनाथपुर

इस गाँव में किसान मुख्यतया धान, आलू और तिल की खेती करते हैं। आलू की फसल फरवरी के अंत और मार्च के मध्य के बीच खेतों से निकाल ली जाती है, और बेचने के लिए इस फसल को मार्च और अप्रैल में बाजार में ले जाया जाता है। राज्य सरकार के निर्देशानुसार आलू की फसल को खेतों से निकालने के काम में कोई बाधा नहीं आई है और 28 मार्च तक आलू की बिक्री जारी रही। हालाँकि 28 मार्च के बाद से शहर के लिए आलू को ले जाना संभव नहीं हो सका है, और गाँव के भीतर ही बेहद सीमित मात्रा में इसकी बिक्री हो पा रही है।

लेकिन खेतों से आलू निकालने से पहले आंधी के साथ-साथ बारिश के प्रकोप के चलते इस फसल को काफी नुकसान हुआ था, विशेष रूप से जो इलाके निचले पड़ते हैं। जिसके चलते कटाई में देरी होने के साथ-साथ उत्पदान भी औसत की तुलना में कम हुआ है। इस प्रकार कुल मिलाकर किसानों को इस सीजन की फसल पर काफी नुकसान हुआ है – जिसमें से कई लोगों को तो मौसम की मार के चलते और इस फसल कटाई के समय मज़दूरों की कमी के कारण 50% और 70% तक का नुकसान झेलना पड़ा है।

हालांकि इस साल आलू की पैदावार पहले से कम होने के परिणामस्वरूप इसका बाजार भाव ऊँचा बना हुआ है, लेकिन अक्सर किसानों के पास अपने माल को रोक कर रख पाना संभव नहीं रह जाता क्योंकि जिन व्यापारियों से उन्हें उधार खरीद की सुविधा मिलती है, उन्हें औने-पौने दामों में अपना माल निकालने के लिए वे मजबूर होते हैं। इसके साथ ही कोविड-19 महामारी और सरकारी प्रतिबंधों के लागू हो जाने के बाद से तो कई किसानों को अपने उत्पादों पर मोलभाव करने का वक्त ही नहीं रहा, और वे किसी तरह अपनी फसल बेचने के लिए दौड़ पड़े। मार्च के महीने में कोतुलपुर में आलू की सबसे प्रचलित वैरायटी 'ज्योति' का लागत मूल्य 11 रुपये प्रति किलोग्राम चल रहा था। आमतौर पर किसान आलू की फसल का एक हिस्सा सीजन में बेचकर दूसरे हिस्से को बाद में बेहतर दामों पर बेचने के लिए कोल्ड स्टोरेज में जमा करवा देते हैं। लेकिन इस बार कोल्ड स्टोरेज में मज़दूरों की कमी की वजह से आलू की समय पर छंटाई और भंडारण सम्बन्धी संचालन समस्याएं बनी हुई हैं।

नियमित तौर पर कुछ अन्य सब्जियों की बिक्री होती थी वो भी काफी सीमित हो चुकी है: सबसे नजदीक की सब्जी मंडी पाटपुर इस गांव से पांच किमी की दूरी पर है। लेकिन यातायात का कोई साधन न होने के कारण किसान अपनी तैयार उपज बेच नहीं पा रहे हैं और औने-पौने दामों में उन्हें इसे स्थानीय बाजार में बेचना पड़ रहा है, लेकिन इसके ग्राहक ही काफी सीमित हैं।

जब खेतीबाड़ी का सीजन अपने चरम पर होता है तो बाँकुड़ा के पश्चिम में पुरुलिया जिले से खेत मज़दूर इस गाँव में काम के लिए आया करते थे, लेकिन आवाजाही पर लगे प्रतिबंधों के कारण वे इस बार आने में असमर्थ हैं। यहाँ तक कि गाँव में रह रहे खेत मज़दूर तक कोविड -19 संक्रमण के डर के मारे काम पर नहीं आ रहे हैं। हालाँकि गाँव में मज़दूरों की इस कमी के बावजूद भी खेत मजूरी की दर में कोई वृद्धि देखने को नहीं मिली है। कुछ स्थानीय मज़दूर इन किसानों के खेतों में बंटाई के दर पर जो अनुबंध हो रखा है, उस पर काम करना जारी रखे हुए हैं। जबकि जो छोटे किसान परिवार हैं वे अपने परिवार के साथ मिलकर अपने खेतों में काम पर लगे हैं। इनमें से कई सदस्य वे भी हैं जो काम के सिलसिले में गाँव से बाहर नहीं जा पा रहे।

खेती में काम आने वाली वस्तुओं से सम्बन्धित दुकानें बंद पड़ी हैं, और आवाजाही की अनुपलब्धता के चलते फ़िलहाल कोई नए माल की सप्लाई भी नहीं आ रही है। यह एक चिंता का विषय है क्योंकि मार्च के अंतिम हफ्ते से लेकर अप्रैल के पहले हफ्ते के बीच में ही बोरो धान की रोपाई का समय होता है। सवाल इसके बीजों की आपूर्ति की कमी का नहीं है, क्योंकि यह काम पिछले महीने ही हो चुका था। मुख्य चिंता का विषय तो उर्वरकों और कीटनाशक दवाओं की कमी को लेकर है, विशेषकर छोटे किसानों के लिए। इन छोटे कृषक परिवारों के पास इनका स्टॉक रख पाना संभव नहीं होता, और अक्सर अपनी फसल के दाम पर तय किये गए सौदे के आधार पर उधार में उन्हें ये बाजार से उपलब्ध होता आया है।

कई किसानों ने मज़दूरों और खाद एवम अन्य कृषि सामग्री के संकट को देखते हुये बोरो धान की खेती को सीमित खेतों में उगाने का निश्चय किया है। लेकिन सबसे बड़ी आफत इस सीजन में तो उन पट्टे पर काम कर रहे किसानों पर आने वाली है जो पूर्वनिर्धारित फिक्स्ड-रेंट (अधिया या बटाई जैसी शर्तों) पर खेती-किसानी  करते हैं। यदि ये लोग बोरो चावल की खेती को कम करते हैं या खाद और कीटनाशकों की कमी के कारण पैदावार में कमी आती है तो इस सबका नुकसान भी उन्हें ही झेलना होगा।

इस गांव में रहने वाले कई पुरुष सदस्य दूसरे जिलों और राज्यों में दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करते हैं। ये मज़दूर लोग और कई अन्य प्रवासी भी मार्च के मध्य में गाँव लौट आए थे। इन लोगों खासकर निर्माण श्रमिकों के बीच इस बारे में चिंता बनी हुई है कि क्या लॉकडाउन की समाप्ति के बाद उनके ठेकेदार उन्हें फिर से काम पर रखेंगे भी या नहीं। इतना तो तय है कि ये ठेकेदार निर्माण कार्य के रुक जाने वाले दिनों का भुगतान तो मज़दूरों को नहीं ही करने जा रहे हैं। कृषक परिवारों में जो लोग छोटे गैर-कृषि व्यवसाय से सम्बद्ध हैं, विशेष रूप से कन्फेक्शनरी, कपडे की दुकानों और खाने-पीने के स्टाल लगाने वाले, उनका तो सारा काम-धंधा ही लॉकडाउन की वजह से पूरी तरह से चौपट हो रखा है। आज के दिन गाँव में मनरेगा से सम्बन्धित काम भी बंद पड़े हैं।

कृष्णापुर

नदिया जिले में कृष्णानगर बस्ती से 25 किलोमीटर दूर में कृष्णापुर गाँव बसा है। गाँव में कृषक परिवार काफी संख्या में हैं, और इन परिवारों के कई सदस्य काम की तलाश में देश से बाहर रहते हैं, खासकर मलेशिया में नारियल तेल के बागानों में काम करते हैं। जेब में पैसे न होने की वजह से इनमें से अधिकांश प्रवासी भारत लौटने में असमर्थ थे। हालाँकि देश के भीतर कार्यरत कई प्रवासी मार्च के मध्य तक कर्नाटक और गुजरात के साथ कई अन्य राज्यों से लौट पाने में कामयाब रहे। मार्च के मध्य से ही ईंट भट्टों का काम बंद हो चुका था, और इसके चलते प्रवासी ईंट भट्ठा मज़दूरों के जीवन पर प्रतिकूल असर पड़ने की आशंका बन गई है।

लॉकडाउन की वजह से खेती-बाड़ी के काम से जुड़े लोगों के सामने सबसे बड़ी चिंता की वजह मज़दूरों की कमी की बनी हुई है। अप्रैल का महीना जूट की बुवाई का होता है। जूट की फसल की बुवाई के लिए खेतों को तैयार करने के लिए भारी मात्रा में मज़दूरों की जरूरत पड़ती है। आज की तारीख में भाड़े पर मज़दूरी करने वाले लोग नहीं रहे, इसलिये थोड़ा बहुत जो काम हो रहा है वो परिवार के सामूहिक श्रम की बदौलत हो पा रहा है और बुवाई जारी है। खेती का सामान रखने वाली दुकानें गाँव में बंद पड़ी हैं और जैव-रासायनिक की आपूर्ति ब्लैक मार्केट से हो रही है, जो दो से तीन रुपये प्रति किलोग्राम के बढ़े दर पर उपलब्ध है। बारिश के मौसम से पहले-पहले जूट की कटाई हो जानी चाहिए ताकि इसे नहर में भिगोया जा सके और तर करने के लिए तैयार किया जा सके।

इसके अतिरिक्त गाँव के किसानों ने काफी मात्रा में अपनी जमीनों में गेंदे के फूलों की खेती कर रखी है, और आमतौर पर यही सीजन है इन फूलों को चुनने का। लेकिन फूलों के बाजार में पूर्णतया तालाबंदी की इस स्थिति में इन किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। ज्यादातर वर्षों में करीब 5-10 कट्ठा (60 कट्ठा = 1 एकड़) के छोटे भूखंडों पर खेती की जाती है, जिससे प्रति कट्ठा करीब 500  रूपये का लाभ हो जाता था। लेकिन इस साल फूल की खेती से एक रुपया नहीं मिलने जा रहा और इन किसानों को अपनी जेब से करीब 1,000 रुपये प्रति कट्ठा का घाटा होना तय है। भले ही सब्जी उगाने वाले किसानों ने प्याज, लौकी, और दूसरी सब्जियों की खेती की हुई है, किन्तु न तो मज़दूर हैं और न ही इन्हें पास के कृष्णानगर के इलाके में स्थित थोक मंडी में ले जाने के लिए कोई परिवहन की व्यवस्था ही मौजूद है। इसलिये किसान या तो बेहद सस्ते दरों पर अपनी सब्जियाँ बेच रहे हैं या उन्होंने थोक बाजार में अपनी सब्जियों को भेजना ही बंद कर दिया है। हाँ, गाँव के भीतर अभी भी किसान अपनी सब्जियाँ बेच रहे हैं।

सर्पलेहना

बोलपुर शहर से 20 किमी दूर पर सर्पलेहना स्थित है। बेहद सीमित संसाधनों के साथ गाँव में पट्टाधारक परिवारों की एक महत्वपूर्ण संख्या मौजूद है। आलू निकालने का काम फरवरी के अंतिम सप्ताह में ही शुरू हो चुका था, और किसान आज भी अपने आलू बेच पाने की स्थिति में हैं, या इसके बदले में किराना दुकानों से अपनी जरूरत की चीजों का आदानप्रदान कर लेते हैं। बोरो चावल को पहले ही बोया जा चुका है, लेकिन फसल की निराई और छिड़काव के लिए मज़दूरों की जरूरत लगतार पड़ती रहती है। बोरो की खेती के लिए गाँव में सीजन के हिसाब से पट्टे की व्यवस्था होती है, जिसमें किसान को निर्धारित किराया चुकाना होता है। फसल को यदि नुकसान हुआ तो भी पट्टाधारक किसानों को किराये के रूप में निश्चित राशि का भुगतान करना पड़ता है।

यह गाँव धान की कटाई के मौसम में खेतिहर मज़दूरों पर निर्भर है, जो आसपास के आदिवासी गाँवों से अप्रैल के अंत में यहाँ पहुँचते हैं। लोगों के आने जाने पर लगी रोक को देखते हुए इन काश्तकार किसानों को फसल कटाई के वक्त खेतिहर मज़दूरों की सम्भावित कमी की चिंता सता रही है। हालाँकि गाँव में मज़दूरी करने वालों की कमी नहीं है, क्योंकि लॉकडाउन लागू होने से पहले ही गाँव के प्रवासी मज़दूर अपने घरों में वापस लौट आ चुके थे, और उन्हें भी काम की ज़रूरत है। इस प्रकार प्रवासी मज़दूर गाँव के भीतर खेतिहर मज़दूर बनकर काम कर रहे हैं, लेकिन जमीन के मालिकों ने उनसे सामाजिक दूरी बनाये रखी है। बेहतर सिंचाई की सुविधा और बारिश भी अच्छीखासी होने के कारण पिछले वर्ष की तुलना में इस सीजन बोरो की खेती का एरिया बढ़ा हुआ है। गर्मी के मौसम की कई सब्जियों की खेती भी छोटे पैमाने पर की जा रही है। ये किसान अपनी सब्जियाँ गाँव के भीतर ही बेच रहे हैं क्योंकि यहाँ से अन्य जगह पर बेचने के लिए उनके पास यातायात के कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं।

धान की पैदावार से जुड़े किसानों को फिलहाल कृषि सम्बन्धी अन्य सेवाओं की आवश्यकता कम ही पड़ रही है, इसलिये इस इलाके में इनके अभाव के चलते कोई ख़ास दिक्कत नहीं हो रही। लेकिन जो लोग सब्जी उत्पादन से जुड़े हैं उन्हें नियमित अंतराल पर कीटनाशकों के छिडकाव की जरूरत पड़ती है। गाँव में इस प्रकार की कोई दुकान न होने के कारण किसानों को कोपाई बाजार जाकर इन्हें खरीदना पड़ता था। लॉकडाउन के दौरान गाँव के ही एक किराना स्टोर से उन्हें कीटनाशक दवाएं उपलब्ध हो रही हैं।

गाँव में ऐसे कई खेतिहर परिवार हैं जिनके परिवार से कोई न कोई अन्य राज्यों में जाकर निर्माण क्षेत्र में दिहाड़ी मज़दूरी का काम करते थे। ये सभी लोग गाँव लौट आए हैं, लेकिन लॉकडाउन के कारण ये लोग बेहद दयनीय स्थिति में हैं, क्योंकि अब इनके रोजगार की सम्भावनाएं बेहद अनिश्चित हो चुकी हैं। जबकि कुछ ग्रामीण पास के ईंट भट्टों में भी काम करते थे, जो फ़िलहाल बंद पड़ी हैं। ये सारे मज़दूर ठेके पर काम करते थे और इस बात को लेकर अनिश्चित हैं कि उउनकी मज़दूरी चुकाई जायेगी या नहीं।

इस गाँव का एक आदिवासी विस्तार, बरोडंगा भी है। कई आदिवासी घरों से लोग बर्धमान जिले में खेतिहर मज़दूर के रूप में कार्यरत हैं। वे वहाँ आ जा नहीं पा रहे हैं और उनकी आजीविका खतरे में है। अधिकांश आदिवासी घर गरीबी में जीवन गुज़ार रहे हैं, जिसके अधिकांश सदस्य दिहाड़ी मज़दूर, भूमिहीन बटाई पर फसल उगाने वाले या खेतिहर मज़दूर हैं। लॉकडाउन की वजह से इनकी कमाई पर काफी बुरा असर पड़ रहा है। कोविड-19 के संभावित संक्रमणों से बचाव के बारे में जागरूकता भी इनके बीच काफी कम है। बर्धमान सेवा केंद्र इनको आवश्यक आपूर्ति और किराने का सामान देने के लिए काम कर रहा है। पंचायत की ओर से इन आदिवासी परिवारों को मुफ्त में राशन दिया जा रहा है जिसमें चावल और गेहूं शामिल हैं।

संक्षेप में कहें तो इन तीन गांवों के किसान - जिनमें से अधिकांश के पास काफी छोटी जोतें हैं, को हाल के दिनों में उगाई गई फसलों को बेच पाने में गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। जिन गाँवों को अध्ययन के लिए चुना गया था वहाँ के गांवों में सर्दियों के सीजन में पैदा की जाने वाली सभी प्रमुख फसलें जल्दी खराब होने वाली फसलें हैं, और चूँकि किसान अपनी फसलों को बेचने के लिए शहर नहीं ले जा सकते, इसलिये उन्हें अपनी फसलों को औने-पौने दामों पर गांव के व्यापारियों को बेचने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। जबकि कुछ मामलों में, उदाहरण के लिए कृष्णापुर के गेंदे के फूल के उत्पादक किसानों की तो सारी फसल ही बर्बाद हो चुकी है, क्योंकि उनके माल को कोई लेने वाला ही नहीं बचा। वहीँ कुछ मामलों में किसानों ने जमीनें पट्टे पर तयशुदा किराए पर ले रखी हैं। आज न तो वे जाड़े की फसल बेच पाने में समर्थ हैं और ना ही गर्मियों की फसल को पिछले वर्षों के उत्पादन के स्तर पर बनाए रखने में ही समर्थ हैं। यह स्थिति उनके लिए बेहद गंभीर संकट लेकर आई है और वे कर्जों के बोझ में डूब जाने वाले हैं। जूट उत्पादन से जुड़े किसानों को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि यह समय जूट की बुवाई का चल रहा है।

कृष्णापुर और सर्पलेहना के गांवों में पोल्ट्री फार्म वालों को मार्च के मध्य से मुर्गियों के चारे की कमी का सामना करना पड़ रहा था। दोनों गांवों के पोल्ट्री फार्म मालिकों ने औने-पौने दाम में सारी मुर्गियों को बेचकर अपने मुर्गी फार्म के धंधे को बंद कर दिया है।

गांवों में जो वर्ग लॉकडाउन से सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ है वे भूमिहीन परिवार हैं। काम की तलाश में बाहर न निकल पाने की वजह से ये लोग गंभीर संकट से गुजर रहे हैं। ईंट भट्ठों, शीतगृहों, पोल्ट्री फार्मों और बाजारों की बंदी ने भूमिहीन मज़दूरों को भारी मुश्किलों में जकड़ रखा है।

[यह लेख प्रत्येक गाँव में मौजूद तीन प्रमुख सूचना-प्रदाताओं के साथ हुई टेलीफोन वार्ताओं के जरिये एकत्रित जानकारी पर आधारित है। ये बातचीत 30 मार्च से 5 अप्रैल, 2020 के बीच आयोजित की गई थी।]

लेखिका सेंटर फ़ॉर स्टडीज़ ऑफ़ रीजनल डेवलपमेंट, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में रिसर्च स्कॉलर हैं।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

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