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पश्चिम बंगाल चुनावः मतुआ नागरिक बनेगा या वोट बैंक!

यहां यह जानना दिलचस्प है कि जिस मतुआ समाज को पहले ममता बनर्जी ने अस्मिता की राजनीति से साधा था उसे अब उसी फार्मूले से भाजपा साधने में लगी है।
पश्चिम बंगाल चुनावः मतुआ नागरिक बनेगा या वोट बैंक!
फोटो साभार: Indian Express

जो लोग समझते हैं कि भारतीय जनता पार्टी सिर्फ हिंदू मुस्लिम की राजनीति करती है वे गलतफहमी में हैं। भारतीय जनता पार्टी बहुत करीने से जातियों की अस्मिता की राजनीति भी करती है। कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि 2011 के जाति आधारित जनगणना के आंकड़े भले सार्वजनिक न हुए हों लेकिन भाजपा ने अपने सोशल इंजीनियरिंग में इसका इस्तेमाल कर लिया है। इसके प्रमाण वैसे तो पूरे देश में देखे जा सकते हैं लेकिन ताजा मामला पश्चिम बंगाल के आगामी विधानसभा चुनाव में मतुआ समुदाय को अपनी ओर खींचने का है।

भाजपा और संघ परिवार की यह रणनीति रही है कि वह किसी भी जाति या समुदाय को अपने पाले में लाने के लिए पहले यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि वह समुदाय आजादी के बाद से बहुत उपेक्षित रहा है और वे उसे उसका सम्मान और अधिकार दिलाएंगे। भले ही इस दौरान उस समुदाय को उपेक्षित करने और उनके हक छीनने में भाजपा का भी भरपूर योगदान रहा हो।

कुछ ऐसा ही भाजपा मतुआ समुदाय के साथ कर रही है। भाजपा और उसके नेता यह दावा कर रहे हैं कि आजादी के बाद तमाम सरकारों ने मतुआ समुदाय को ठगा है और उन्हें देश का नागरिक नहीं बनाया। वे उन्हें नागरिक बनाएंगे। यही वजह है कि मतुआ समुदाय के नेता मांग कर रहे हैं कि नागरिकता संशोधन कानून जल्दी से जल्दी लागू किया जाए ताकि उन्हें नागरिकता मिले। जबकि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कूच बिहार की एक रैली में घोषणा की है कि जैसे ही देश कोविड-19 से मुक्त हो जाएगा, वे नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए लागू कर देंगे। उन्होंने कहा भी है कि वादे के मुताबिक उनकी सरकार सीएए लेकर आई है और लागू भी करेगी।

दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस दावा कर रही है कि मतुआ समुदाय पहले से ही देश का नागरिक है। इसलिए उसे नागरिकता देने का मामला एक ढकोसला है। उनके पास मतदाता परिचय पत्र है, आधार कार्ड है, पैन कार्ड है, राशन कार्ड है। वे तमाम सरकारी सुविधाओं का लाभ ले रहे हैं फिर नागरिक बनाने का ढोंग कैसा? रोचक बात यह है कि पहले कांग्रेस और फिर 1977 से लेकर लंबे समय तक वामपंथी दलों के लिए मतदान करने वाले मतुआ महासंघ से जुड़े समाज ने 2011 में तृणमूल कांग्रेस के प्रति अपना झुकाव बनाया और अब वह भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच विभाजित हो गया है।  

यहां यह जानना दिलचस्प है कि जिस मतुआ समाज को पहले ममता बनर्जी ने अस्मिता की राजनीति से साधा था उसे अब उसी फार्मूले से भाजपा साधने में लगी है। ममता महासंघ और प्रमथ रंजन ठाकुर की पत्नी वीणापाणि देवी ठाकुर ने 2011 में ममता बनर्जी को अपने संगठन का मुख्य संरक्षक बना दिया था। लेकिन 2019 में उनके निधन से कुछ दिन पहले स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनसे मिलने 24 परगना के ठाकुरनगर गए और उनके परिवार के एक हिस्से को अपनी ओर तोड़ने में कामयाब रहे।

मतुआ समुदाय जिसमें नामशूद्र जातियां बड़ी संख्या में हैं और उनकी संख्या अनुसूचित जातियों में दूसरे नंबर पर है उनकी आबादी 3 करोड़ बताई जाती है। कुछ अध्ययन तो दावा करते हैं कि वास्तव में यह आबादी 5 करोड़ के करीब है और उनमें से बहुत सारे लोगों के पास मतदाता परिचय पत्र भी नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि जब पूरे पश्चिम बंगाल की आबादी 2020 के अनुमान के आधार पर दस करोड़ और सभी अनुसूचित जातियों की संख्या दो करोड़ के करीब बताई जाती है तो भला केवल मतुआ समुदाय इतना कैसे हो सकता है। इस गड़बड़ी और भ्रम में  विभाजन के दौरान पूर्वी पाकिस्तान और उसके बाद बांग्लादेश से हुए वैध अवैध आव्रजन का योगदान है। उस भ्रम और उपेक्षा की भावना को बढ़ाने में केंद्र सरकार के कानूनों ने भी कम योगदान नहीं दिया है।

सबसे पहले तो भारत में नागरिकता के लिए यूरोप की तरह किसी प्रकार के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं थी। जो यहां पैदा हुआ हो या विभाजन के बाद संविधान लागू होते समय यहां रह रहा था वह भारत का नागरिक मान लिया गया था। फिर जो पांच साल की अवधि तक भारत में आकर बस गया हो वह भारत की नागरिक के आवेदन का अधिकारी हो जाता है। नागरिकता का भ्रम पासपोर्ट के कारण पैदा होता है और यह जानना रोचक है कि भारत की अस्सी से नब्बे प्रतिशत आबादी के पास कोई पासपोर्ट नहीं है। न ही उसके पास नागरिकता पंजीयन का कोई प्रमाण पत्र है।

मतुआ समुदाय में नागरिकता के मुद्दे पर सबसे ज्यादा बेचैनी हुई जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 2003 में नागरिकता कानून पारित किया। यह कानून 1971 के बांग्लादेश से आए लोगों को नागरिकता देने के विरुद्ध था।  इस कानून ने जिस तरह से बांग्लादेश के आए अवैध नागरिकों का पता लगाने और उन्हें सजा देने से लेकर वापस भेजने का प्रावधान किया उसके बाद मतुआ समुदाय में हड़कंप मच गया। इसीलिए वे उसे काला कानून भी कहते हैं।

मतुआ समुदाय के भीतर दूसरी बार तब बेचैनी मची जब राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) लागू करने का एलान किया गया। वे देख रहे थे कि इस प्रक्रिया के तहत असम में बड़ी संख्या में हिंदू समुदाय के लोग बाहरी माने गए इसलिए उन्हें भी अपने बाहर होने का खौफ सता रहा है। केंद्र की भाजपा सरकार ने पहले 2003 के नागरिकता संशोधन कानून से मतुआ समुदाय को डराया और फिर एनआरसी से भयभीत किया। इस बीच सीएए के माध्यम से उन्हें राहत देने का प्रलोभन भी दिया। हालांकि वे इस बात से हैरान हैं कि किस तरह से वे उन दस्तावेजों को प्रस्तुत करेंगे जिसकी अनिवार्यता सीएए के तहत है लेकिन भाजपा के नेता उन्हें आश्वासन दे रहे हैं कि उनके लिए कोई दिक्कत नहीं होगी बस वे पार्टी के प्रति अपनी वफादारी साबित कर दें।

इसमें कोई दो राय नहीं कि मतुआ समुदाय एक प्रकार से सामाजिक सर्वहारा है। उन्नीसवीं सदी में फरीदपुर में चांडाल जाति के लोगों ने अपने तमाम अधिकारों के लिए सवर्ण जातियों के विरुद्ध विद्रोह किया और कहा कि वे अपने को चांडाल लिखने की बजाय नवशूद्र और फिर नामशूद्र लिखेंगे। इसी समुदाय के नेता हरिचंद ठाकुर ने फरीदपुर के गोपालगंज में अछूतों को अधिकार दिलाने के लिए मतुआ धर्म की स्थापना की। मतुआ का अर्थ होता है जो मतवाले हैं। जो जाति धर्म, वर्ण से ऊपर उठे हैं। जो तंत्र मंत्र नहीं मानते। हरिचंद ने अपने महासंघ के लोगों को दूसरों से स्नेह करने एक दूसरे से सहनशीलता दिखाने और नर नारी समता रखने, जातिगत भेदभाव न मानने और लालची न होने की शिक्षा दी। हरिचंद के बेटे गुरुचंद और उनके बेटे प्रमथ रंजन ठाकुर ने मतुआ महासंघ को बढ़ाया। प्रमथ रंजन पहले 1962 में विधानचंद राय की सरकार में जनजातीय विकास राज मंत्री बने। वे 1962 में कांग्रेस के टिकट पर नवद्वीप से सांसद भी चुने गए।

नामशूद्र समुदाय से ही जुड़े थे जोगेंद्र नाथ मंडल जिन्होंने डॉ. भीमराव आंबेडकर को बंगाल से चुनवा कर संविधान सभा में भिजवाया था। हालांकि बाद में भारत विभाजन के बाद वे पाकिस्तान चले गए और वहां कानून मंत्री बने। उन्हें उम्मीद थी कि वहां पर अनुसूचित जातियों के साथ समता का व्यवहार किया जाएगा लेकिन वैसा होता न देखकर वे फिर भारत लौट आए। उन्होंने भारत में रह कर नामशूद्र आंदोलन के लिए काफी काम किया और आंबेडकर की विचारधारा का प्रचार किया। आज प्रमथ रंजन ठाकुर का वंशज राजनीति में है और वह भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच बंटा हुआ है। शांतनु ठाकुर बोगांव से भाजपा के सांसद हैं तो ममता बाला ठाकुर तृणमूल कांग्रेस के साथ हैं। इससे पहले केके ठाकुर और एमके ठाकुर तृणमूल कांग्रेस से सांसद रहे हैं।

पश्चिम बंगाल में दलित आंदोलन के और भी कई रंग हैं। लेकिन वहां उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र की तरह कोई चर्चित दलित नेतृत्व नहीं है। वहां मायावती, रामविलास पासवान, रामदास आठवले जैसे नेता नहीं दिखाई पड़ते। ज्यादातर नेता मुख्यधारा की पार्टियों में ही आरक्षित क्षेत्रों से अपनी जगह ढूंढते रहते हैं और बिना कोई विशेष प्रभाव छोड़े अपना समय काट लेते हैं। इस बार दलित वोटों की खींचतान को देखते हुए इस बार ममता बनर्जी ने अनुसूचित जाति समुदाय की 23.5 प्रतिशत आबादी को 27 प्रतिशत टिकट और मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप के चलते 27 प्रतिशत मुस्लिम समुदाय के लोगों को सिर्फ 12 प्रतिशत टिकट दिए हैं। इस खींचतान में अगर मतुआ समुदाय अपनी राजनीतिक भागीदारी के लिए सौदेबाजी कर रहा है तो कोई हैरानी की बात नहीं है। लेकिन स्थितियां यही बताती हैं कि पूरा समुदाय किसी एक पार्टी को थोक में वोट शायद ही करे। हालांकि भाजपा की राजनीति यही है कि पहले वोट बैंक बनो तो हम तुम्हें नागरिक बनाएंगे। अब देखना है कि देश के कोरोना से मुक्त होने के बाद सीएए और एनआरसी को लागू किए जाने की प्रक्रिया किस तरह तेज होती है और वह बंगाल में किस प्रकार के ध्रुवीकरण को जन्म देती है।

लेकिन अस्मिता की राजनीति के दूसरे छोर पर देश में किसानों और मजदूरों के आंदोलन के बहाने वर्ग की भी राजनीति खड़ी हो रही है। भले ही वह सांप्रदायिक और जातिवादी राजनीति के मुकाबले कम आकर्षक हो लेकिन आर्थिक चुनौतियों के समक्ष उसका अपना महत्व है। किसान आंदोलन के नेता इस चुनाव में भी बंगाल में यह प्रचार करने जा रहे हैं कि लोग भाजपा को वोट न करें। किसान आंदोलन का यह प्रभाव चुनावी राजनीति से आगे जाता है और एक बड़े परिवर्तन की ऊर्जा रखता है। पर वोट बैंक और नागरिकता के बीच फंसा मतुआ समुदाय उसे कितना समझ पाता है यह देखा जाना है।   

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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