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कांग्रेस का संकट आख़िर है क्या?

सेकुलरिज्म और उदारवाद जैसे सिद्धांतों से छुटकारा पाने की तरकीब तलाशना ही कांग्रेस का क्या असली संकट है!
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कांग्रेस का संकट आख़िर है क्या?

क्या पिछले दो लोकसभा चुनावों और लगभग इसी कालखंड में हुए अनेक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार के लिए पार्टी के एक बड़े वर्ग द्वारा उत्तरदायी समझे जाने वाले सेकुलरिज्म और उदारवाद जैसे सिद्धांतों से छुटकारा पाने की तरकीब तलाशना ही कांग्रेस का संकट है?

क्या  खुले ख्यालों वाले  लापरवाह और बेपरवाह आधुनिक नौजवान राहुल गाँधी का मेक ओवर किस तरह एक जनेऊ धारी ब्राह्मण के रूप में किया जाए, यह कांग्रेस का संकट है?

गाँधी परिवार को ट्रोल आर्मी और सत्ताधारी दल के नेताओं के अंतहीन आक्रमण, अमर्यादित टिप्पणियों तथा आलोचना व अपमान को झेलने के लिए सामने कर देना एवं स्वयं बहुत शांति से  सत्ता में रहते हुए या सत्ता के बाहर रह कर भी इतर दलीय सत्ताधारी नेताओं से निजी मित्रता का लाभ उठाते हुए चांदी काटना, कांग्रेस के छिपे हुए असली कर्णधारों का वह फार्मूला रहा है जो अब तक कामयाब रहा है। क्या कांग्रेस का संकट इस फॉर्मूले को सुपरहिट बनाए रखने का संकट है?

या फिर गांधी परिवार का संकट ही कांग्रेस का संकट है- सोनिया गाँधी वृद्ध एवं अस्वस्थ हैं, राहुल गांधी यदि अयोग्य नहीं हैं तो बड़ी जिम्मेदारी लेने के लिए अनिच्छुक तो हैं ही, प्रियंका को बैटिंग के लिए देरी से उतारा गया है और बिना निगाहें जमाए बड़े शॉट खेलने की उनकी कोशिश नाकामयाब ही रही है। ऐसे में नेतृत्व के लिए टकटकी बांध कर गाँधी परिवार की ओर देख रहे कांग्रेसी नेताओं को देने के लिए गाँधी परिवार के पास ज्यादा कुछ है नहीं।

क्या कांग्रेस में काम करने वाली किचन कैबिनेट या सलाहकार मंडली या मित्र समूह और गाँधी परिवार के बीच स्वार्थों की लड़ाई ही कांग्रेस का असली संकट है? गाँधी परिवार की लोकप्रियता का फायदा उठाकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना गाँधी परिवार से नजदीकी रखने वाले इन नेताओं की आदत रही है। शायद सोनिया ने इन नेताओं की स्वार्थपरता को समझा और सत्ता इन्हीं नेताओं के हाथों में सौंप कर सत्ता की चाबी अप्रत्यक्ष रूप से अपने हाथों में रखने की कोशिश की। अब जब गाँधी परिवार का करिश्मा सत्ता दिलाने में नाकामयाब हो रहा है बल्कि बहुत सारे लोग इसे सत्ता गंवाने और दुबारा हासिल न कर पाने का मुख्य कारण मान रहे हैं तब सत्ता सुख के अभ्यस्त कांग्रेसी नेताओं को यह परिवार खटक रहा है। वहीं पार्टी पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण रखने के अभ्यस्त गाँधी परिवार के लिए अब अपना वर्चस्व बनाए रखने हेतु मोदी और भाजपा के साथ सीधी लड़ाई लड़ना आवश्यक बन गया है। गाँधी परिवार अपनी वर्तमान स्थिति में इस तरह के प्रत्यक्ष और जमीनी संघर्ष के लिए तैयार नहीं दिखता। सोनिया का स्वास्थ्य, राहुल की अनिच्छा और प्रियंका की अनुभवहीनता गाँधी परिवार को बैकफुट पर धकेल रहे हैं। 

कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठाने वाले नेताओं के विषय में यह तय करना कठिन है कि वे पार्टी को एक परिवार के वर्चस्व से मुक्ति दिलाना चाहते हैं या धर्म निरपेक्षता और समावेशन पर आधारित कांग्रेसवाद ही इन नेताओं के निशाने पर है। क्या गाँधी परिवार धर्मनिरपेक्षता और उदारता जैसे कांग्रेसवाद के बुनियादी आधारों को बरकरार रखने की अपनी पक्षधरता के कारण विरोध झेल रहा है क्योंकि उसकी यह प्रतिबद्धता सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर कांग्रेस के संक्रमण में बाधक बन रही है? यदि कांग्रेस के चरित्र में परिवर्तन लाने की कोई ऐसी कोशिश कामयाब होती है तो क्या यह भारतीय लोकतंत्र के हित में होगी?

क्या देश के भाग्य में दो ऐसी प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियां लिखी हैं जिसमें से एक ऐलानिया तौर पर उग्र हिंदुत्व, बहुसंख्यक वर्ग के वर्चस्व और असमावेशी  राष्ट्रवाद की हिमायत करती है और दूसरी धर्मनिरपेक्षता के पर्दे की ओट में यही सब करती है।

यदि भाजपा इस देश की जनता को यह समझाने में कामयाब रही है कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ वोटों की राजनीति है, दोगलापन है, पाखंड है तो इसके पीछे हालिया सालों में कांग्रेस का आचरण सबसे बड़ा कारण रहा है। खाते पीते मध्यम वर्ग से आने वाला मतदाता (जो आज भाजपा के मूल चरित्र का प्रतिनिधि माना जाता है) तो कांग्रेस से बाद में विमुख हुआ। इससे वर्षों पहले ही कांग्रेस का गढ़ रही हिंदी पट्टी के दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों ने कांग्रेस को त्याग कर क्षेत्रीय दलों का दामन थाम लिया था। और इनमें से कुछ राज्यों में तो भाजपा ने क्षेत्रीय दलों को परास्त कर सत्ता हासिल की है। 

आखिर यह स्थिति कैसे बनी? कहीं कांग्रेस का संकट श्रीमती इंदिरा गाँधी के जमाने से चली आ रही उस रणनीति में तो नहीं छिपा है जिसमें स्वतंत्र सोच और जनाधार वाले कद्दावर क्षेत्रीय नेताओं के पर कतरे जाते थे और उनके स्थान पर डमी, व्यक्तित्वहीन और श्रीमती इंदिरा गाँधी के प्रति समर्पित नेताओं को बढ़ावा दिया जाता था? क्या कांग्रेस में अब भी यह नहीं माना जाता कि योग्यता, क्षमता और जनाधार को गाँधी परिवार के चरणों में अर्पित कर ही कोई नेता मनोवांछित फल प्राप्त कर सकता है? जब तक गाँधी परिवार के पास वह ऊर्जा शेष थी जो एक औसत नेता को भी अलौकिक प्रकाश से आलोकित कर सकती थी तब तक सम्पूर्ण शरणागति किसी को खटकती नहीं थी किंतु आज तो क्षत्रपों के पराक्रम पर कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व आश्रित दिखता है तब क्या पहले जैसे समर्पण की आशा उचित है?

क्या कांग्रेस का संकट नई सोच वाले युवाओं और पुरातनपंथी नेताओं की टकराहट में छिपा है? क्या ये युवा इतने प्रतिभाशाली और जुझारू हैं कि पुरानी पीढ़ी को अपदस्थ कर कांग्रेस को नई ऊंचाइयों पर ले जा सकते हैं?  क्या यौवन को ऊर्जा और बदलाव का पर्याय मान कर अमूर्त चिंतन करने के स्थान पर उन युवाओं का वस्तुनिष्ठ आकलन करना उचित नहीं होगा जो हाल के वर्षों में कांग्रेस का भविष्य समझे जाते रहे हैं?

क्या अनिच्छा और अनिश्चय के बीच वर्षों से झूलते राहुल गाँधी कांग्रेस का उद्धार कर सकते हैं? क्या आदि से अंत तक फ़िल्म के हर फ्रेम में छाए रहने की प्रतिभा और योग्यता राहुल में नहीं है इसीलिए उनका कैमियो प्रेजेन्स ही कराया जाता है ताकि उनकी कमजोरियां उजागर न हों? क्या राहुल उस पार्ट टाइमर गेंदबाज की भांति नहीं लगते जो जमी हुई साझेदारी तो तोड़ सकता है लेकिन लंबे स्पेल कर मैच पलटना जिसके बस की बात नहीं है?

या फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट ब्रांड युवा नेता कांग्रेस के भविष्य हैं जो अपनी निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए विचारधारा से समझौता करने की सफल-असफल चेष्टा करते नजर आते हैं?

या वह प्रियंका गाँधी कांग्रेस को नई दिशा दे सकती हैं जिनके बारे में यह ही तय नहीं है कि कांग्रेस की भावी राजनीति की फ़िल्म में वे लीड एक्ट्रेस हैं या सपोर्टिंग रोल में हैं? यह अनिश्चितता इस लिए और घातक बन जाती है क्योंकि प्रियंका की एंट्री ही फ़िल्म में लेट हुई है। क्या राहुल की मित्र मंडली में स्थान पाने वाले वे जनाधार विहीन युवा नेता कांग्रेस का भविष्य तय कर सकते हैं जो स्वयं किसी कांग्रेसी क्षत्रप की संतानें हैं और जिनके क्रांतिकारी तेवरों को केवल उनके विवादित अधकचरे ट्वीट्स में ही देखा जा सकता है?

यदि सांगठनिक तौर पर देखा जाए तो क्या  एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस जैसे संगठन कांग्रेस को नई दिशा दे सकते हैं जो बेरोजगारी की इस भयावह स्थिति में भी कोई जन आंदोलन खड़ा करने में नाकामयाब रहे हैं? क्या उन युवा नेताओं से कोई अपेक्षा की जा सकती है जो कोविड संक्रमण के चिंताजनक आंकड़ों के बीच परीक्षाओं के आयोजन के लिए आमादा सरकार को संगठित प्रतिरोध की एक झलक तक नहीं दिखा सके? यदि कांग्रेस की युवा पीढ़ी कांग्रेस की वर्तमान दुर्दशा के लिए उत्तरदायी पुरानी पीढ़ी को अपदस्थ नहीं कर पा रही है तो इसमें उसकी अपनी कमजोरियों का योगदान ही अधिक है।

क्या कांग्रेस का संकट यह भी है कि आर्थिक मोर्चे पर सरकार का विरोध करने के लिए वह खुद को नैतिक रूप से सक्षम नहीं पाती है? मौजूदा सरकार की अर्थनीति किसी न किसी रूप में नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह के उदारीकरण का आक्रामक विस्तार है। यदि मनमोहन सिंह ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में उदारीकरण के मानवीय और जनहितैषी चेहरे को आगे रखने की कोशिश की थी तो वर्तमान सरकार चुनावी सफलता दिलाने वाली अपनी तमाम डायरेक्ट बेनिफिट स्कीम्स के बावजूद बड़ी तेजी और निर्ममता से निजीकरण को बढ़ावा दे रही है।

वर्तमान सरकार जब असंगठित क्षेत्र को फॉर्मल इकॉनॉमी का हिस्सा बनाने की बात करती है तब उसकी कोशिशें आम आदमी को मार्केट इकॉनॉमी की असुरक्षा और आपाधापी में धकेलने की अधिक होती है। यह सरकार आम आदमी को नियम-कानूनों के जाल में उलझा कर उनके आर्थिक जीवन को नियंत्रित करती दिखती है जबकि बड़े कॉरपोरेट्स के लिए वह अतिशय उदार रुख अपनाती नजर आती है।

इस सरकार ने कोविड-19 की आपदा का उपयोग निजीकरण के अवसर के रूप में किया है। अर्थव्यवस्था में राष्ट्रवाद का तड़का मारने की रणनीति सरकार के अजीबोगरीब फैसलों की ढाल बन रही है। लोग बेरोजगार हो रहे हैं, आत्महत्या कर रहे हैं, देश के आर्थिक जीवन में ऐसी अफरातफरी है जैसी पहले कभी नहीं देखी गई।

इसके बाद भी कांग्रेस का प्रतिरोध राहुल के थिएट्रिकल इफ़ेक्ट वाले वीडिओज़ और सोशल मीडिया पर सक्रिय कुछ नेताओं के ट्वीट्स तक सीमित है। तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया एवं सोशल मीडिया ने तो मोदी को महानायक के रूप में प्रस्तुत करने का बीड़ा उठाया हुआ है और यहाँ पर कांग्रेस के लिए कुछ खास करने को है नहीं। राहुल का काम आकर्षक वीडियो शूट के जरिए मोदी को टक्कर देने से नहीं चलने वाला। उन्हें अब महात्मा गाँधी की राह पर चलना होगा। सविनय अवज्ञा और असहयोग जैसे अस्त्रों का प्रयोग करना होगा। लाठी भी खानी पड़ेगी और जेल यात्रा भी करनी होगी। 

कांग्रेस यदि यह मान रही है कि देश के आर्थिक जीवन को गौण बना दिया गया है और अब जनता मंदिर-मस्जिद जैसे धार्मिक, साम्प्रदायिक और भावनात्मक मुद्दों के आधार पर वोट करने लगी है तो यह उसकी गलतफहमी है। सन् 2014 में पहली बार मोदी ने रोजगार, महंगाई और विकास जैसे मुद्दों के आधार पर ही जनता का विश्वास जीता था और बहुत सारे विश्लेषक यह मान रहे थे कि वाजपेयी की परंपरा से बाहर निकलना मोदी को अस्वीकार्य बना देगा। बहुत सारे लोग बहुत समय तक यह भी विश्वास करते रहे थे कि भाजपा फासीवाद से प्रभावित अपने पैतृक संगठन की छाया से बाहर निकल आई है और लोकतंत्र के सांचे में ढलकर वैचारिक रूप से एक राइट टू सेंटर पार्टी बन गई है जो किसी हद तक समावेशी भी है।

अपने पहले कार्यकाल की आर्थिक असफलताओं को छिपाने के लिए 2019 के चुनावों में सांप्रदायिकता और हिंदुत्व के एजेंडे पर लौटना मोदी की मजबूरी थी और कांग्रेस ने इस एजेंडे को जाने अनजाने जरूरत से ज्यादा महत्व देकर मोदी की विजय में अपना योगदान दिया। 2014 का चुनाव मोदी ने कांग्रेस को परास्त कर जीता था जबकि 2019 के चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें लगभग वॉकओवर दे दिया था। 2014 के चुनावों में मोदी ने खुद को बेहतर विकल्प सिद्ध कर जीत दर्ज की थी लेकिन 2019 के चुनावों में विपक्ष में बेहतर विकल्प के अभाव के कारण उन्हें पूर्ण बहुमत मिला।

2019 में सत्ता में पुनः आने के बाद मोदी अपने पैतृक संगठन की विचारधारा के असली पैरोकार के रूप में उभरे हैं और असमावेशी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देकर बहुसंख्यक वर्ग के वर्चस्व की स्थापना के लिए निर्णायक कदम उठा रहे हैं। किंतु मोदी के इस एजेंडे को जनता का एजेंडा मान लेना कांग्रेस की बड़ी भूल होगी।

मोदी और मोदी समर्थक मीडिया अपने माया महल का विस्तार करने में अभूतपूर्व कला कौशल दिखा रहे हैं। नए नए आभासी, अनावश्यक और निरर्थक मुद्दों की बम वर्षा हो रही है। लेकिन आम आदमी बदहाल है और  इस नाटक से ऊबने लगा है। मोदी समर्थक मध्यम वर्ग भी अब बदहाल अर्थव्यवस्था का शिकार होने लगा है। यदि राहुल मीडिया के सहारे अपना कोई ऐसा माया महल बनाना चाहेंगे जो मोदी से भी भव्य हो तो उन्हें असफलता और पराजय ही मिलेगी। मोदी के माया महल की हवा निकालने के लिए सच्चाई की छोटी सुई ही काफी है।

जब खिलाड़ी का अच्छा समय नहीं चल रहा होता है तब नए नए एक्सपेरिमेंट करने के स्थान पर कोच उसे बेसिक्स की ओर लौटने की सलाह देते हैं। कांग्रेस के पास तो महात्मा गाँधी जैसा कोच है जिनके सिखाए बेसिक्स तो मनुष्यता के बेसिक्स हैं- सत्य, अहिंसा, प्रेम,दया,करुणा, सर्वधर्म समभाव। कहा जाता है कि जब सच्चे मन से प्रायश्चित किया जाता है तो हमारा संकल्प इतना शुद्ध होता है कि हर कष्ट और हर बाधा गौण बन जाती है। कांग्रेस के पास तो प्रायश्चित करने के लिए बहुत कुछ है- अपनी लापरवाही और गलत आचरण से इस देश के अस्तित्व के लिए आवश्यक सेकुलरिज्म जैसे बुनियादी मूल्य की रक्षा में वह नाकामयाब रही है, अब इस देश की गंगा-जमनी तहजीब की रक्षा ही कांग्रेस का सच्चा प्रायश्चित होगी।

(डॉ. राजू पाण्डेय स्वतंत्र लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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