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उत्तर प्रदेश में 'परशुराम पॉलिटिक्स' क्या गुल खिलाएगी?

उत्तर प्रदेश के सभी सियासी दल जातिगत वोटबैंक की राजनीति कर रहे हैं। और ब्राह्मणों की आस्था के प्रतीक परशुराम के जरिए सियासी वैतरणी पार कराने की कोशिशों में हैं।
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फोटो साभार : पत्रिका

उत्तर प्रदेश में कोरोना संक्रमण की रफ्तार भयावह हो गई है। रविवार तक प्रदेश में कोरोना के कुल मरीजों की संख्या 1,22,609 हो गई है और 2,069 मरीजों की मौत हो चुकी है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले कुछ महीनों में 35 लाख प्रवासियों ने प्रदेश में वापसी की है। सुस्त अर्थव्यवस्था और बाजार में गिरावट के बीच लोगों की नौकरियां जा रही हैं। प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था बदहाल है लेकिन प्रदेश के सियासी दलों के लिए यह कोई मसला नहीं है।

फिलहाल राज्य में 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं। सत्ताधारी बीजेपी समेत मुख्य विपक्षी सपा, बसपा और कांग्रेस इन तैयारियों में लगी है लेकिन उनपर जनमुद्दों के बजाय जातिगत मुद्दे हावी हैं। गौरतलब है लोकतंत्र में संख्याबल मायने रखता है और जातीय राजनीति उत्तर प्रदेश की सच्चाई है लेकिन इस संकट के दौर में सियासी दल जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं वह दुखद और चौंकाने वाला है।

दरअसल उत्तर प्रदेश के सभी सियासी दल जातिगत वोटबैंक की राजनीति कर रहे हैं। सभी मुख्य विपक्षी दल योगी सरकार पर ब्राह्मणों की अनदेखी का आरोप लगाते हुए निशाना साध रहे हैं और ब्राह्मणों की आस्था के प्रतीक परशुराम के जरिए सियासी वैतरणी पार कराने की कोशिशों में हैं।

'परशुराम पॉलिटिक्स'

पिछले दिनों ब्राह्मण वोट भुनाते हुए समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने सूबे में परशुराम की मूर्ति लगाने का वादा किया। इसके बाद बसपा प्रमुख मायावती ने रविवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और सपा से बड़ी परशुराम की मूर्ति लगाने का ऐलान कर दिया। साथ ही कहा कि अस्पताल, पार्क और बड़े-बड़े निर्माण को भी महापुरुषों के नाम पर किया जाएगा। वहीं, कांग्रेस भी ब्राह्मण चेतना संवाद के जरिए वोटबैंक को साधने में जुटी है।

दरअसल बीजेपी सरकार में लगातार हो रहे हमले से ब्राह्मण वर्ग वैसे ही सरकार से खफा है, वहीं दुबे एनकाउंटर ने इसमें आग में घी डालने का काम किया। अब ब्राह्मणों की नाराजगी को विपक्षी दल भी भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते।

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वैसे उत्तर प्रदेश में 'परशुराम पॉलिटिक्स' की अगुआई कांग्रेस पार्टी करती नजर आई। पार्टी के नेता व पूर्व कैबिनेट मंत्री जितिन प्रसाद ने कुछ दिनों पहले 2022 चुनावों को मद्देनज़र ‘ब्राह्मण चेतना संवाद कार्यक्रम’ का भी आयोजन किया था। इसके जरिए वह यूपी के अलग-अलग जिले के ब्राह्मण समुदाय से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बात कर रहे हैं।

जितिन प्रसाद का कहना है ‘वो दौर अब खत्म हो गया है यूपी में जब ब्राह्मण ‘प्रिव्लेज्ड क्लास’ में माना जाता था। अब तो पीड़ित समाज हो गया है।

जितिन के मुताबिक, ‘इस सरकार में जितना ब्राह्मणों का दमन हुआ है शायद ही कभी इतना हुआ हो। मंत्रिमंडल में जो ब्राह्मण हैं उन पर फैसले लेने की कोई ताकत नहीं। ये बात सब जानते हैं। पुलिस में ब्राह्मण होने के बावजूद पीड़ितों को इंसाफ नहीं मिल रहा है। जाहिर है कोई तो ऐसा होने से रोक रहा है।’

दरअसल लंबे अरसे तक कांग्रेस ब्राह्मण समेत अगड़ी जातियों के वोटों से यूपी में सत्ता में काबिज रही, इसके बाद 2007 में दलित ब्राह्मण गठजोड़ के जरिए मायावती ने पहली बार अकेले दम पर यूपी में सरकार बनाई। पिछले कई साल से ब्राह्मणों ने बीजेपी की ओर रुख किया है। ऐसे में सभी विपक्षी दल यूपी में सत्ता की वापसी के लिए ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने की पुरजोर कोशिश में लगे हुए हैं।

अगर बसपा और सपा की राजनीति पर नजर डालें तो 2007 के विधानसभा चुनावों में मायावती ने जब दलित, ब्राह्मण सोशल इंजीनियरिंग का प्रयोग किया, तो यह प्रयोग यूपी के इतिहास का सबसे सफल प्रयोग साबित हुआ। पहली बार मायावती की पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनी। दलितों की पार्टी कही जाने वाली बीएसपी में दूसरे नंबर के नेता का कद सतीश चन्द्र मिश्रा को दिया गया। 2007 के चुनावों में मायावती ने ब्राह्मणों को उम्मीदवार बनाया, दलित-ब्राह्मण गठजोड़ के चलते 41 ब्राह्मण प्रत्याशी जीते भी।

इसके बाद जब 2012 में अखिलेश यादव सीएम बने तो उन्होंने ब्राह्मण वोटबैंक को लुभाने के लिए जनेश्वर मिश्र पार्क बनवाया तो वहीं परशुराम जयंती पर छुट्टी की घोषणा की थी। इसके अलावा पार्टी हर साल अपने कार्यालय में परशुराम जयंती भी मनाती है। हालांकि इस सबसे बावजूद 2017 आते-आते ब्राह्मण बीजेपी का कोर वोटबैंक बन गए।

यूपी में ब्राह्मण कितनी बड़ी ताकत

यूपी की राजनीति में ब्राह्मण वर्ग का लगभग 10% वोट होने का दावा किया जाता है। प्रदेश का सियासी इतिहास इस बात का गवाह है कि राज्य का तीसरा सबसे बड़ा वोट बैंक 'ब्राह्मण' जिसकी तरफ खड़ा हो जाता है अक्सर उसी के पास कुर्सी भी होती है लेकिन अभी प्रदेश में दशकों तक राजनीति के सिरमौर रहे ब्राह्मणों का दबदबा खत्म सा हो गया है।

सबसे ज्यादा ब्राह्मण आबादी वाले राज्य में पिछले तीन दशक से कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बन पाया है जबकि 1950 में हुए प्रदेश के पहले चुनाव से 1990 तक 40 वर्षों में वहां छह ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने जिन्होंने करीब 23 वर्ष तक प्रदेश की जिम्मेदारी संभाली थी।

दरअसल मंडल आंदोलन के बाद यूपी की सियासत पिछड़े, दलित और मुस्लिम केंद्रित हो गई। इसका नतीजा यह रहा कि यूपी को कोई ब्राह्मण सीएम नहीं मिल सका। ब्राह्मण एक दौर में पारंपरिक रूप से कांग्रेस के साथ था, लेकिन जैसे-जैसे कांग्रेस कमजोर हुई यह वर्ग दूसरे ठिकाने खोजने लगा। मौजूदा समय में वो बीजेपी के साथ खड़ा नजर आता है। ऐसे में कांग्रेस उन्हें दोबारा अपने पाले में लाने की जद्दोजहद कर रही है तो सपा और बसपा के लिए ब्राह्मण सत्ता में वापसी की चाबी नजर आ रहे हैं।

गौरतलब है कि 2017 में बीजेपी के कुल 312 विधायकों में 58 ब्राह्मण चुने गए हैं इसके बावजूद सरकार में ब्राह्मणों की पूछ कम हुई है। जानकारों के मुताबिक 56 मंत्रियों के मंत्रिमंडल में 9 ब्राह्मणों को जगह दी गई लेकिन दिनेश शर्मा व श्रीकांत शर्मा को छोड़ किसी को अहम विभाग नहीं दिए गए।

फिलहाल विपक्ष आगामी विधानसभा चुनावों में मद्देनजर इसी वोटबैंक को भुनाने की कोशिश में लगा हुआ है। हालांकि अभी बीजेपी की तरफ से डैमेज कंट्रोल की कवायद शुरू नहीं की गई है लेकिन एसपी-बीएसपी की 'परशुराम पॉलिटिक्स' और कांग्रेस की ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिशों के बीच यूपी की पॉलिटिक्स दिलचस्प हो गई है। दुखद यह है कि संकट के इस दौर में जनमुद्दों से दूर जातिगत भावना पर केंद्रित हो गई है।

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