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मोदी सरकार जब मनरेगा में काम दिलवाने में नाकाम है, तो रोज़गार कैसे देगी?

मनरेगा की योजना पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खिल्ली उड़ाते हैं। लेकिन उनके काल में भारत की अर्थव्यवस्था की हालत इतनी बुरी हो चुकी है कि मनरेगा का बजट साल खत्म होने से पहले ही खत्म हो जा रहा है।
MNREGA
Image courtesy : The Hindu

मनरेगा के ज़रिए ग्रामीण इलाके के एक परिवार को एक साल के भीतर रोजगार मांगने पर कम से कम 100 दिन का रोजगार देने का प्रावधान है। सभी परिवारों को 100 दिन का रोजगार भी नहीं मिल पाता है। अशोका यूनिवर्सिटी के इकनोमिक डिपार्टमेंट का अध्ययन बताता है कि साल 2020-21 में महामारी की वजह से मनरेगा में पिछले 5 सालों में सबसे अधिक काम मिला। लेकिन फिर भी 100 दिन का काम मिलने वाले परिवारों की संख्या महज 4.1 फ़ीसदी है। अगर रजिस्टर्ड मजदूरों के काम करने के दिनों का औसत निकाला जाए, तो यह महज 22 दिन का बनता है। इन आंकड़ों का मतलब यह है कि रोजगार गारंटी के नाम पर मशहूर भारत सरकार की ग्रामीण योजना भारत के कई जरूरतमंद ग्रामीण परिवारों को रोजगार मुहैया नहीं करवा पाती है।

किसी भी देश में मनरेगा जैसी योजना लागू हो, तो यह उस देश की खुशहाल अर्थव्यवस्था का प्रतीक नहीं है। बल्कि इस बात का प्रतीक है कि लोगों के पास काम करने के हाथ तो हैं लेकिन उनके पास रोजगार नहीं है। सरकार ने उन्हें पेट भर खाना मुहैया कराने के लिए रोजगार का जुगाड़ बनाया है। ऐसा होने के बाद भी अगर मनरेगा में 100 दिन का रोजगार नहीं मिलता है, तो यह उस देश की बदहाली का प्रतीक बन जाता है।

बड़ी मुश्किल से कांग्रेस सरकार ने मनरेगा को मंजूरी दी थी। कांग्रेस को भी लग रहा था कि इसमें पैसा बहुत खर्चा होगा। लेकिन इसका दूसरा पक्ष सोचिए कि जब लोगों के पास रोजगार नहीं होता है, तभी वह मजबूरी में जाकर मनरेगा जैसी योजनाओं के सहारे जीवन गुजारने का रास्ता तलाशते हैं। इसका मतलब यह है कि कांग्रेस की सरकार ऐसे तमाम लोगों को रोजगार नहीं दे पा रही थी। जब ऐसे तमाम लोगों के लिए रोजगार के नाम पर थोड़ा बहुत इंतजाम करने की बारी आई तो बहुत जद्दोजहद के बाद जाकर मनरेगा जैसी योजना बनी।

मनरेगा जैसी योजना पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खिल्ली उड़ाते हैं। लेकिन पिछले 7 साल में उनके द्वारा किए गए काम काज का हाल यह है कि लोगों के पास रोजगार नहीं है। अगर उनकी सरकार ने बेहतर काम किया होता तो लोग मनरेगा में मजदूरी खोजने न जाते। दूसरी जगह नौकरी तलाशते। लेकिन कहीं भी नौकरी नहीं है। इसलिए अंत में जाकर मनरेगा जैसी योजनाएं ही महत्वपूर्ण बन जाती हैं। होना तो यह चाहिए था कि मनरेगा जैसी योजनाएं खत्म होती। सबके पास कुशल रोजगार होता। लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था का हाल यह है कि अब ग्रामीण इलाके के आलावा शहरी इलाके में भी रोजगार गारंटी जैसी योजना की चर्चा हो रही है। यानी जो लोग गांव छोड़कर मजदूरी के तलाश में शहर जाते हैं, उन्हें शहरों में भी रोजगार नहीं मिल रहा। इसलिए शहरी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की बात चल रही है। ऐसी योजनाओं के सहारे अगर किसी को ऐसा रोजगार मिल पाता, जिससे उसे महीने भर में 40 से 50 हजार कमाई हो पाती, तो यह कहा जाता है कि भारत की सरकार रोजगार गारंटी देकर बहुत अच्छा कर रही है।

लेकिन हालत यह है कि दिनभर हाड़ तोड़ मेहनत करने के बाद मनरेगा के तहत किसी भी राज्य में ₹₹315 प्रतिदिन के हिसाब से अधिक का मेहनताना नहीं मिलता है। इतना कम मेहनताना होने के बावजूद भी मनरेगा का बजट भाजपा सरकार पिछले कई साल से कम करते आ रही है।

हाल ही में मनरेगा ट्रैकर के नाम से दो संगठनों (पीपल एक्शन फॉर एंप्लॉयमेंट गारंटी और लीब टेक) ने मनरेगा के कामकाज पर रिपोर्ट प्रकाशित की है। इन दो संगठनों में वही लोग शामिल है, जिनकी वजह से मनरेगा कानून बना। यह मनरेगा ट्रैकर की और चौथी रिपोर्ट है। चूंकि देशभर के कुल कार्य बल का 80 से 90 फ़ीसदी हिस्सा मनरेगा से जुड़ा हुआ है, इसलिए यह रिपोर्ट बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।

इस रिपोर्ट के मुताबिक सरकार की तरफ से मनरेगा का जितना बजट होना चाहिए उतना बजट नहीं हो रहा है। पिछले बजट में मनरेगा के लिए जो राशि तय की गई थी उससे ज्यादा पिछले साल खर्चा हुआ। इसलिए मनरेगा का रिवाइज्ड बजट बढ़ा, लेकिन सरकार ने इस रिवाइज्ड बजट के हिसाब से मनरेगा का बजट रखने की बजाय मनरेगा का बजट 34% घटा दिया। मनरेगा का हाल यह है कि पिछले साल के मुकाबले इस साल लोग कम काम कर रहे हैं। लेकिन फिर भी महामारी के साल के पहले के मुकाबले मनरेगा में काम मांगने वालों की संख्या ज्यादा है। यानी महामारी के बाद जिस अर्थव्यवस्था की रिकवरी की बात की जा रही है, उस रिकवर हुई अर्थव्यवस्था में लोगों को मनरेगा से बाहर निकालने का रोजगार नहीं मिल रहा है। बजट भी कम, काम मांगने वाले लोगों की संख्या भी ज्यादा–इन दोनों के आपस में जुड़ने की वजह से सितंबर के अंत तक मनरेगा के बजट के लिए निर्धारित 90% पैसा खर्च हो चुका था।

अक्टूबर तक सरकार ने वित्त वर्ष 2022 के लिए जितना बजट मनरेगा को दिया था उस से तकरीबन 8,686 करोड़ रुपए अधिक का बिल बन चुका है। देश के 35 केंद्र शासित और राज्यों में से 21 राज्यों के पास मनरेगा का किसी तरह का फंड नहीं है। वह नेगेटिव बैलेंस में चल रहे हैं। यानी इन जगहों पर अगर पैसा नहीं आया, तो मनरेगा के तहत तमाम मजदूरों को काम नहीं मिलने वाला है। अगर वह मजदूरी करेंगी भी तो उन्हें मजदूरी नहीं मिलने वाली।

मनरेगा ट्रैकर से जुड़े रिसर्च और बताते हैं कि मनरेगा मांग आधारित योजना है। मांगने वाले भारत के उस वर्ग से आते हैं जिनकी दिन भर की कमाई इतनी है कि मुश्किल से पेट भर सके। यानी अगर इन्हें पैसा नहीं मिलता है, तो इन्हें बहुत अधिक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। अगर सरकार के पास पैसा नहीं है, तो काम मांगने पर भी काम नहीं मिलता है। काम मांगने पर भी जब काम नहीं मिलता है, तो जिन्हें काम मांगना चाहिए, उनमें से बहुत लोग निराश होकर काम मांगने जाते ही नहीं है। मनरेगा के बजट के साथ दिक्कत यह है कि सरकार बजट की राशि बहुत कम निर्धारित करती है। यह राशि साल की पहली तिमाही में ही खत्म होने के कगार पर पहुंचने लगती है। इसलिए पहली तिमाही को छोड़कर बाकी तिमाहियों में सरकारी अधिकारियों की तरफ से मनरेगा में रोजगार कटौती की योजना शुरू हो जाती है।

मनरेगा कानून के मुताबिक मनरेगा की मजदूरी भुगतान की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की होती है। सुप्रीम कोर्ट मनरेगा भुगतान में देरी को लेकर एक बार केंद्र सरकार को फटकार भी लगाई चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि केंद्र सरकार अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग सकती। 

इस बार के मनरेगा ट्रैकर की टीम ने एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति के तरफ इशारा किया है। जो प्रवृत्ति पहले नहीं दिखती थी। पहले मनरेगा मजदूरी का भुगतान करने के लिए केंद्र सरकार राज्य सरकार से मनरेगा पेमेंट से जुड़ा केवल एक खाता मांगती थी। लेकिन इस बार से पता नहीं किस आधार पर केंद्र सरकार राज्य सरकार से मनरेगा भुगतान के लिए तीन खाते मांग रही है। पहला खाता अनुसूचित जाति से जुड़े मजदूरों की मजदूरी बकाया से जुड़ा होता है। दूसरा अनुसूचित जनजाति के और तीसरा अन्य जातियों से जुड़े मजदूरों की मजदूरी बकाया से जुड़ा खाता होता है।

तकरीबन 18 लाख मनरेगा मजदूरों से जुड़े बकाया का अध्ययन करने के बाद मनरेगा ट्रैकर की टीम इस निष्कर्ष पर पहुंची कि जो मजदूर अनुसूचित जाति और जनजाति की कैटेगरी से बाहर तीसरी कैटेगरी में आते हैं उनकी मजदूरी के भुगतान में बहुत अधिक देरी हो रही है। तीसरी कैटेगरी में तकरीबन 87% मनरेगा मजदूर जुड़े हुए हैं। जातिगत आधार पर मनरेगा के मजदूरों से जुड़े खातों का बंटवारा करने के पीछे सरकार की क्या मंशा है? यह अभी तक साफ नहीं हुआ है।

प्रभात पटनायक से लेकर तमाम बड़े अर्थशास्त्री अर्थव्यवस्था में सुधार करने के लिए बार-बार यह लिख चुके हैं कि सबसे गरीब दबे कुचले लोगों तक रोजगार के अवसर पहुंचाए जाएं। उनकी जेब में पैसा डाला जाए। तभी जाकर अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी। भारत में अमीरों से ज्यादा गरीबों की संख्या है। 94 फ़ीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। बहुत बड़ी आबादी रोजाना काम करके अपनी जिंदगी गुजारती है। जब तक इनकी जेब में पैसा नहीं पहुंचेगा तब तक अर्थव्यवस्था को गति नहीं मिलेगी।

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