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सैनिक स्कूल पर भाजपा का इतना ज़ोर देना क्या जायज़ है?

नवोदय की जगह सैनिक स्कूल बनाने का आदेश तो फिलहाल वापस ले लिया गया है लेकिन इस आदेश को जारी करने और वापस लेने के परिप्रेक्ष्य में यह समझना ज़रूरी है कि आख़िर  सैनिक स्कूल पर इतना जोर क्यों दिया जा रहा है?
सैनिक स्कूल पर भाजपा का इतना ज़ोर देना क्या जायज़ है?
Image Courtesy : Catch News

साल 2021-22 के बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 100 नए सैनिक स्कूल खोलने का ऐलान किया। यह स्कूल एनजीओ और प्राइवेट स्कूल की साझेदारी यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल को अपनाते हुए खोले जाएंगे। इसके अलावा वार्षिक वित्तीय विवरण यानी बजट में इन स्कूलों पर कोई और जानकारी नहीं दी गई थी। 

मध्य प्रदेश और बिहार से खबरें आ रहीं थी कि सरकार पहले से मौजूद कई जवाहर नवोदय विद्यालयों को सैनिक स्कूल में तब्दील करने जा रही है। इसके लिए सरकारी आदेश भी जारी किए जा चुके थे। इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर के मुताबिक सरकार की योजना है कि देशभर में पांच हिस्सों में फैले नवोदय स्कूल के जाल में से देश के हर हिस्से से पांच नवोदय स्कूल सैनिक स्कूल में तब्दील किए जाएंगे। 

लेकिन बहुत सारे विरोध के बाद 8 मार्च को राजस्थान, दिल्ली और हरियाणा से जुड़े जयपुर संभाग से सरकारी नोटिफिकेशन जारी हुआ कि सरकार नवोदय विद्यालय को सैनिक स्कूल में बदलने के अपने आदेश को वापस ले रही है। 

सरकार का कदम सराहनीय है। लेकिन इस आदेश को जारी करने और वापस लेने के परिप्रेक्ष्य में यह समझना चाहिए कि आखिर सैनिक स्कूल पर इतना जोर क्यों दिया जा रहा है? क्या नवोदय विद्यालयों की जरूरत नहीं है? क्या नवोदय विद्यालय का महत्व सैनिक स्कूल से कम है? 

साल 1980 में राजीव गांधी की सरकार नवोदय विद्यालय का सपना लेकर आई थी। कहा जाता है कि राजीव गांधी मशहूर दून स्कूल के छात्र थे। उनकी चाहत थी कि गरीब बच्चों का भी सर्वांगीण विकास हो। वह घर की रोजाना की परेशानियों से दूर अपना पूरा ध्यान पढ़ने लिखने में लगाएं। इस आधार पर देखा जाए तो 1980 से लेकर अब तक कई सारी कमियों के बावजूद जवाहरलाल नवोदय विद्यालय की कामयाबी सराहनीय रही है। 

जवाहर नवोदय विद्यालय में आठवीं तक की पढ़ाई मुफ्त होती हैं। यहां तक पढ़ाई करने वाले छात्रों से फीस के तौर पर कोई भी पैसा नहीं लिया जाता है।

जबकि नौवीं से 12वीं तक पहले 200 रुपए फीस ली जाती थी, जिसे साल 2018 में बढ़ाकर 600 रुपए कर दिया गया है। लेकिन यदि सरकारी कर्मचारी का कोई बच्चा पढ़ रहा है तो उसकी फीस 1500 रुपये है। लड़कियों और अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्र की पढ़ाई मुफ्त में होती है। वहीं पर अगर सैनिक स्कूल की बात की जाए तो फीस के लिहाज से सैनिक स्कूल गरीब छात्रों की सीमा से बाहर की बात है। सैनिक स्कूल की फीस सालाना तकरीबन 80 हजार रुपये है।

इस तरह से भी देखा जाए तो भी पता चलता है कि जवाहरलाल नवोदय विद्यालय की जरूरत गरीब छात्रों के लिए सैनिक स्कूल के मुकाबले अधिक है। लेकिन सरकार उलटी गंगा बह रही है। ज्यादा जोर सैनिक स्कूल पर दे रही है। 

मध्य प्रदेश के जिला नरसिंहपुर में मौजूद नवोदय विद्यालय से पढ़े भूतपूर्व छात्र सुदीप्त कहते हैं कि यह नोटिफिकेशन पढ़ कर मन बहुत उदास हुआ। अपने साथ रहने वाले बहुत सारे उन छात्रों की याद आई जो बहुत ही गरीब घरों से आते थे। नवोदय विद्यालय की 80 फ़ीसदी सीट ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों के लिए आरक्षित रहती हैं। मौजूदा समय में तकरीबन छह सौ से अधिक नवोदय विद्यालय हैं। नवोदय विद्यालय इस संकल्पना के साथ बने थे कि हर जिले में एक आवासीय नवोदय विद्यालय होगा जहां पर गरीब बच्चे पढ़ेंगे। नवोदय विद्यालय तकरीबन 50 से 60 एकड़ जमीन पर फैला होता है। पहले से मौजूद यहां की संरचना का सीधा इस्तेमाल सैनिक स्कूल के लिए तो फायदेमंद है लेकिन उस इलाके के गरीब बच्चों के लिए इस मामले में नुकसानदेह है। उनकी पहुंच से एक जरूरी आवासीय विद्यालय बहुत दूर हो जाएगा।

सुदीप्त कहते हैं कि उन्हें अब भी याद है कि किस तरह से बिना किसी सर्फ साबुन तेल पर रोजाना की झंझट से बेफिक्र होकर हम लोगों ने नवोदय में पढ़ाई की थी। सैनिक स्कूल से ज्यादा गरीब भारत को नवोदय विद्यालय की जरूरत है। हालांकि यह बहुत अच्छी बात है कि सरकार ने इस आदेश को वापस ले लिया है।

साल 2017 में पहली बार प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से मानव संसाधन मंत्रालय को यह सलाह दी गई थी किस सैनिक स्कूल के तर्ज पर रेगुलर स्कूलों को भी विकसित किया जाए। सैनिक स्कूल का अनुशासन, शारीरिक दक्षता, देश प्रेम की भावना रेगुलर स्कूलों तक भी पहुंचाई जाए। सूत्रों के मुताबिक मानव संसाधन मंत्रालय ने उसी समय जवाहर नवोदय विद्यालयों को इस काम के लिए सबसे उपयुक्त पाया। मानव संसाधन मंत्रालय को लगा कि जवाहर नवोदय विद्यालय भी आवासीय विद्यालय हैं, इन विद्यालयों कुछ सैनिक स्कूल की तर्ज पर बनाना आसान रहेगा। साल 1961 में मौजूदा रक्षा मंत्री वी के कृष्णा मेनन की अगुवाई में सैनिक स्कूल भारत में बनने शुरू हुए। मकसद साफ था कि सेना को संभालने लायक नौजवान तैयार किए जाएं। मौजूदा समय में देशभर में तकरीबन 30 से अधिक सैनिक स्कूल हैं।

इस तरह से सरकारी स्कूलों पर सरकार की सोच से दो तरह के सवाल उठ सकते हैं। पहला, सरकार सैनिक स्कूलों पर इतना जोर क्यों दे रही है क्या सैनिक स्कूल के अलावा दूसरे स्कूलों से पढ़कर जो विद्यार्थी निकलते हैं, वे देश प्रेम की भावना से भरे नहीं होते? या दूसरा सवाल यह कि क्या ऐसा है कि इस समय भारत चारों तरफ से असुरक्षा के घेरे में है और उसे सैनिकों की हर वक्त बहुत अधिक जरूरत है?

दूसरे सवाल का जवाब पहले ढूंढते हैं। क्या भारत असुरक्षित है? हाल फिलहाल देखा जाए तो भारत की सीमाओं पर कई तरह की चुनौतियां हैं। और चुनौतियां हमेशा रहती हैं। इसके लिए भारत तैयार भी रहता है। पहले के मुकाबले चुनौतियां कमतर भी हुई हैं। क्योंकि युद्ध के स्थल तौर पर केवल मैन टू मैन वाली लड़ाई नहीं बची है। बल्कि इसका रूप अर्थव्यवस्था, साइबर सिक्योरिटी और भी कई तरह के दूसरे पहलुओं ने ले लिया है। युद्ध के क्षेत्र में सेनाओं के साथ अत्याधुनिक तकनीकों की बहुत अधिक जरूरत है। कहने का मतलब यह है कि केवल सैनिक तैयार करने के लहजे से कई सारे स्कूलों को समर्पित कर देना बिल्कुल जायज नहीं है। 

यहां सबसे जरूरी बात यह जानना है कि सैनिक स्कूल का मतलब यह नहीं होता कि यहां पर पढ़ने लिखने वाला बच्चा केवल सेना में जाएगा। वह कोई दूसरा काम नहीं कर सकता है। नाम से एक तरह का भ्रम पैदा होता है कि सैनिकी स्कूल में पढ़ने लिखने वाले विद्यार्थी अंत में सेना में जाते हैं। इनके अलावा कोई दूसरा सेना में नहीं जा सकता। रिटायर्ड मेजर जनरल अश्विनी सिवाच एनडीटीवी के कार्यक्रम में कहते हैं कि हकीकत यह है कि इन स्कूलों में भी सीबीएसई के पैटर्न पर पढ़ाई होती है। जो दूसरे स्कूलों में होती है। स्कूलों के बच्चों को भी एनडीए और सीडीएस की वह मुश्किल परीक्षा देनी पड़ती है, जो दूसरे स्कूलों और कॉलेजों के वह बच्चे देते हैं जिन्हें सेना में जाने की इच्छा होती है। सैनिक स्कूल से पास किए हुए बच्चे भी डॉक्टर इंजीनियर कलेक्टर बनते हैं।

अगर इस पूरी बात का निचोड़ निकाला जाए तो यह कहा जा सकता है कि नवोदय विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चे भी अगर सेना में जाना चाहते हैं तो बिना किसी रोक-टोक के सेना में जा सकते हैं। एनडीए सीडीएस के बाद की ट्रेनिंग में किसी भी योग्य उम्मीदवार को सेना के उच्च पदों के लिए तैयार किया जा सकता है।

अब आते हैं पहले सवाल पर जो कि क्या सैनिकों के अलावा दूसरे लोगों में देश प्रेम की भावना नहीं होती? इस सवाल का जवाब का प्रस्थान बिंदु साल 2017 कि प्रधानमंत्री कार्यालय की उस सलाह से शुरू किया जा सकता है जब प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश के रेगुलर स्कूलों को सैनिक स्कूलों के तर्ज पर बनाने की जरूरत है।

उसी समय मानव संसाधन मंत्रालय के राज्य मंत्री महेंद्र नाथ पांडे का बयान अखबारों में छपा था। महेंद्र नाथ पांडे का कहना था कि अगर 1200 ईसा पूर्व में भाजपा का शासन होता, तो नालंदा विश्वविद्यालय को दर्शन और तर्क शास्त्र के लिए नहीं जाना जाता बल्कि मार्शल एडवेंचर के लिए जाना जाता। मिलिट्री ट्रेनिंग दी जाती। बख्तियार खिलजी नालंदा की लूटपाट भी नहीं कर पाता।

यह सोच कहां से आती है। यह सोच आती है भाजपा की आधारभूत संगठन आरएसएस की विचारधारा से। जिसके तकरीबन 50 हजार शाखा हर दिन देश के किसी ना किसी कोने में चलते हैं। यहां पर लाठी डंडे का इस्तेमाल भी होता है। साल भर में एक बार विजयादशमी के अवसर पर शस्त्रों की पूजा भी होती है। इन सारे आयोजनों में ज्यादातर आरएसएस से जुड़े शिक्षण संस्थानों के विद्यार्थी शामिल होते हैं। मोहन भागवत तो कई दफे मिलिट्री एजुकेशन की बात कर चुके हैं। यानी सैनिक स्कूल पर जोर देने के पीछे की मंशा आरएसएस की विचारधारा से पैदा हुई है।

शिक्षाविद अंजलि तनेजा इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि ग्रामीण भारत के बच्चों को सेना में भर्ती के अलावा दूसरे पेशे से में जाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

दिल्ली यूनिवर्सिटी की शिक्षाविद् अनीता गोपालन कहती हैं कि सबसे अच्छा पढ़ाई का जरिया भाव है जहां पर सब एक समान भाव से पढ़ते हैं। जहां पर गरीब और अमीर का भेद भाव मिटता है। एक तरह की समतुल्यता होती है। इसीलिए कहा जाता है कि सब की शुरुआती पढ़ाई किसी तरह की कैटेगरी में बांटकर नहीं होगी। बल्कि एक साथ होगी। सैनिक स्कूल में एक तरह के मर्दाना पन का भाव बहुत अधिक भरा होता है। संवेदना कम होती है। लैंगिक भेदभाव की गुंजाइश अधिक होती है। ( कुछ साल पहले ही लड़कियों को भी सैनिक स्कूल में एडमिशन दिया जा रहा है, यह पहले नहीं था।) और यह बात समझ से परे है कि केवल आर्मी ऑफिसर के अंदर ही देश प्रेम की भावना होती है। या केवल आर्मी ऑफिसर से जुड़े लोग ही देश प्रेम पैदा कर सकते हैं।

इस तरह से देखा जाए तो सबसे अच्छा शिक्षण संस्थान वह है जहां पर मुफ्त या सस्ते दरों पर सबको शिक्षा मिले। किसी भी तरह की अभिजात्य दीवार न हो। लैंगिक भेदभाव से पसरा हुआ परिसर न हो। संवेदना और करुणा में भीगी हुई मनुष्यता की जगह मर्दाना पन का बोलबाला न हो। इस आधार पर देखा जाए तो नवोदय विद्यालय की जरूरत सैनिक स्कूल से अधिक है। इनकी जगह पर सैनिक स्कूल का बनना उचित नहीं होता। सरकार ने इस आदेश को हटाकर ठीक ही कदम उठाया है।

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