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क्या व्हिस्ल ब्लोअर संरक्षण कानून कर्मचारियों के लिए नया हथियार साबित हो सकेगा?

बहुत जरूरी है कमर्चारियों के लिए एक मजबूत व्हिस्ल ब्लोअर संरक्षण कानून ताकि  व्हिस्ल ब्लोअर को उत्पीड़ित होने से बचाया जा सके।
whistleblower
प्रतीकात्मक तस्वीर Image courtesy:News Summed

काॅरपोरेट घरानों के भीतर जारी गृह युद्ध भारत में नई परिघटना नहीं है। हाल के दिनों में इन्फोसिस जैसी बड़ी कम्पनी के शीर्ष पदों के खिलाफ लगाए जा रह आक्षेपों का पहली बार व्हिस्ल ब्लोअर्स के माध्यम से खुलासा हुआ है।

कौन हैं ये व्हिसिल ब्लोअर्स ? कोई भी ऐसा व्यक्ति, कर्मचारी या संगठन जो किसी संस्था, कम्पनी, सरकार या संगठन द्वारा किये गए भ्रष्टाचार, अपराधिक कार्य, पद का दुरुपयोग या गैरकानूनी काम अथवा उत्पीड़न आदि के बारे में जनहित में खुलासा करता है, व्हिसिल ब्लोअर्स कहलाता है।

साल 2011 में  व्हिसिल ब्लोअर्स संरक्षण कानून पारित किया गया था और उसका मूल उद्देश्य था सरकारी नौकरशाही में भ्रष्टाचार समाप्त करना। शिकायत सेंट्रल विजिलेंस कमिशन के पास भेजी जाती है और उन्हें  व्हिसिल ब्लोअर्स  की पहचान को गुप्त रखना होता है। सरकार ने अभी तक इसे लागू नहीं किया। दूसरे, निजी क्षेत्र में  व्हिसिल ब्लोअर्स को कानूनन कोई सुरक्षा नहीं मिलती है यद्यपि आंतरिक नीतियों का निर्माण हुआ है।

 2014 में यू पी ए-2 ने अपने कार्यकाल के अन्तिम संसद सत्र में व्हिस्ल ब्लोअर्स संरक्षण अधिनियम 2014 पारित किया। पर यह वोट बटोरने का हथकंडा ही लगा, क्योंकि इसे अन्ना हज़ारे के आन्दोलन के बाद नहीं बल्कि 2014 के आम चुनाव की पहले लाया गया था। मोदी सरकार ने इस अधिनियम को 2015 में पारित भी किया और अधिसूचना जारी की, पर उसे लागू नहीं किया।

नए कानून के तहत नियम ही नहीं तैयार किये गए ताकि कानून को क्रियान्वित होने से रोका जाए। फिर अचानक इस अधिनियम (2015) में संशोधन किया गया। ठीक जिस तरह सूचना के अधिकार और मनरेगा कानूनों को भीतर से कमज़ोर किया गया, उसी तरह व्हिस्ल ब्लोअर्स कानून के साथ भी हो रहा है।

इस व्हिस्ल ब्लोअर तंत्र का श्रमिक आन्दोलन के लिए क्या निहितार्थ होगा? क्या ट्रेड यूनियन अपने मालिकों के विरुद्ध एक कारगर अस्त्र के रूप में इसका प्रयोग करेंगें?इस प्रश्न को हमन एक ऐसे व्यक्ति के समक्ष पेश किया, जो अमेरिका में 1960 के उत्तरार्ध में छात्र आन्दोलन के समय से करीब 5 दशकों तक कद्द्वार नेता रहे हैं। उन्होंने संशय व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘व्हिस्ल ब्लोइन्ग हर हाल में जोखिम भरा काम है। इस विषय पर लोगों को सचेत व शिक्षित करना उपयोगी हो सकता है, पर सुरक्षा की कोई गारण्टी नहीं होती।

कम्पनी या सरकार हमेशा व्हिस्ल ब्लोअर को गिरफ्त में ले लेती हैं। विक्टिमाइज़ेशन भी हो सकता है। किसी मजबूत राजनीतिक दल या जन-भावना के अभाव में, व्हिस्ल ब्लोअर भले ही तात्कालिक संदर्भ में सफल हो जाए, उसे अंततः कई किस्म के उत्पीड़न झेलने होंगे। मसलन उसपर संदेह किया जाएगा कि आर्थिक लाभ की दृष्टि से वह अन्य प्रतिद्वन्द्वियों के इशारों पर काम कर रहा है। इसलिए यदि बिना ठोस तैयारी कर्मचारियों को अंधाधुंध इस रास्ते को अपनाने के लिए प्रेरित किया जाएगा, तो उनपर उलट वार हो सकता है।''

एक अन्य ऐक्टिविस्ट ने कहा,‘‘काॅरपोरेट इकाइयों के लिये जमीनी स्तर पर असल कार्य-निष्पादन से कहीं अधिक महत्व रखता है उनके शेयरों का भाव। साइरस मिस्त्री मामले में जब टाटा मोटर्स के शेयरों में भयानक गिरावट आई थी, टाटा ग्रुप के प्रमुख कम्पनियों ने अपने यहां व्हिस्ल ब्लोअर पाॅलिसी घोषित की थी। इसी तरह जब मैगी विवाद में नेस्ले कम्पनी फंसी थी तो उसने भी कुछ समय पूर्व अपनी व्हिस्ल ब्लोइंग पाॅलिसी घोषित की है। तो हम कह सकते हैं कि काॅरपोरेट दुनिया में व्हिस्ल ब्लोविंग मुख्यतः एक नियंत्रण व संतुलन तंत्र है, जो अधिक-से-अधिक अपरिपक्व शेयर-धारक ऐक्टिविज़्म के लिए तो उपयोगी हो सकता है, पर इसकी सीमाओं को बढ़ाकर श्रमिक अधिकारों के क्षेत्र में प्रयोग नहीं किया जा सकता’’।

उन्होंने आगे कहा, ‘‘कई सीधे-सादे आर टी आई ऐक्टिविस्टों ने हमारे लोकतंत्र को सच्चा जनतंत्र मानकर शक्तिशाली व धनाड्य लोगों के विरुद्ध दुस्साहसिक ढंग से आरटीआई द्वारा खुलासे किये, जिसके चलते उनकी बर्बर पिटाई हुई और कुछ को तो मार तक डाला गया। कानून की किताबों में चन्द अधिकारों की बात जमीनी स्तर पर मौजूद शक्ति-संतुलन को बदल नहीं सकती। और जबतक ट्रेड यूनियन नेतृत्व सही दिशा-निर्देश न दे, अविवेकपूर्ण ढंग से इन कानूनों का सहारा लेने का नतीजा काफी बुरा हो सकता है, क्योंकि शक्तिशाली प्रबंधन बदले की कार्यवाही पर उतर सकता है।’’ आप जानते ही हैं कि मंजूनाथ और सत्येन्द्र दुबे जैसे   व्हिसिल ब्लोअर्स की हत्या हुई थी।

लेकिन आई टी कर्मचारी यूनियन, एफआईटीई की अध्यक्ष परिमला पंचरत्नम का इस प्रश्न पर अलग नज़रिया है।  उन्होंने कहा, ‘' दरअसल जबतक बदले की कार्यवाही के खिलाफ कारगर कानूनी संरक्षण नहीं है और यूनियन मजबूत नहीं है, श्रमिक आंदोलन  व्हिसिल ब्लोअर्स के विकल्प का इस्तेमाल नहीं कर सकता। सरकार इनके कानूनी संरक्षण के पक्ष में नहीं है और कई राज्यों में तो यूनियन बनाने की अनुमति नहीं देती।’’

श्री वी एस शास्त्री, कर्नाटक के कैनरा बैंक में ऑल इंडिया बैंक एम्प्लाईज़ ऐसोसिएशन के पदाधिकारी हैं। उन्होंने कहा,‘‘बैंकिंग के क्षेत्र में व्ह्सिल ब्लोइंग का विकल्प काफी शक्तिशाली हथियार साबित हो सकता है, खासकर निजी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में (एन बी एफ सी), क्योंकि यहां व्यापक पैमाने पर अनियमितताएं हैं और काॅरपोरेट घराने निवेशकों का पैसा लूट रहे हैं। हमारे बैंक यूनियन ने पब्लिक सेक्टर बैंकों के गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों ( एनपीए) के लिए ज़िम्मेदार कुछ ‘विलफुल डिफाॅलटरों' के नामों का खुलासा किया।

 यह समस्या पीएसयू के एनपीए संकट जितना गंभीर है। इंफ्रास्ट्रकचर लीज़िंग ऐन्ड फाइननेंस सर्विसेस घोटाला तो केवल हिमशैल का शीर्ष है। 2020 तक विस्फोटक स्थिति पैदा होने की संभावना है। अधिकतर लोगों को मालूम नहीं है कि गैर-बैंकिंग वित्ताीय कम्पनियां लगभग 4 लाख कर्मचारियों को रखती हैं। यदि आप साप्ताहिक रिकरिंग डिपाॅज़िट कलेक्टरों और बीमा एजेंटों जैसे ‘गिग वर्करों’ को भी शामिल करें तो इनकी संख्या बढ़कर 8-10 लाख हो जाएगी। कर्मचारी अपनी नौकरी और आजीविका तभी बचा सकते हैं जब वे ऐसी अनियमितताओं के बारे में सजग रहें। बजाए इसके कि मोदी सरकार व्हिसिल ब्लोअरों को संरक्षण दें, उसने ऐसा प्रावधान रखा है कि तथाकथित ‘निराधार शिकायतों’ के लिए दो साल तक का कारावास हो सकता है। ट्रेड यूनियनों को चाहिये कि इस संशोधन का विरोध करें और कारगर संरक्षण की मांग करें’’।

सीटू से जुड़े रेल कर्मचारियों के यूनियन को चलाने वाले ईलंगोवन रामलिंगम कहते हैं-‘‘बजाए इसके कि कर्मचारी जोश में आकर स्वयं शिकायत करें, इस कार्य को सुचिंतित तरीके से ट्रेड यूनियनों द्वारा किया जाना चाहिये। ट्रेड यूनियनों को इस बात के लिए संघर्ष करना चाहिये कि ऐसा प्रावधान जोड़ा जाए जो व्हिस्ल ब्लोवरों की शिकायतों को यूनियन के मंच से उठाने की अनुमति दे’’। हम इस बात की आशा करते हैं कि पूंजीवाद-विरोधी संघर्ष के तरकश में एक और तीर डाला जाएगा जब संरक्षण कानून को मजबूत किया जाएगा।

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