Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

किसान क्यों बिजली संशोधन बिल, 2020 का विरोध कर रहे हैं

अगर यह विधेयक पारित हो जाता है, तो इससे किसानों पर 1,00,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और उनकी सिंचाई की लागत में 500 प्रतिशत इज़ाफ़ा होने की संभावना है।
किसान क्यों बिजली संशोधन बिल, 2020 का विरोध कर रहे हैं
हरियाणा-राजस्थान सीमा, शाहजहाँपुर में किसानों का विरोध प्रदर्शन जारी।

तीन कृषि-क़ानूनों का विरोध कर रहे किसानों का आंदोलन आज अपने संघर्ष के 21वें दिन में प्रवेश कर गया है। कृषि-क़ानूनों के साथ-साथ वे इस वर्ष की शुरुआत में केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित बिजली (संशोधन) विधेयक 2020 की वापसी की भी मांग कर रहे हैं। यदि ये विधेयक पारित हो जाता है, तो किसानों पर 1,00,000 करोड़ रुपये अतिरिक्त बोझ बढ़ जाएगा और सिंचाई की लागत में 500 प्रतिशत की वृद्धि होने की संभावना है। यही कारण है कि बिजली-अधिनियम उन किसानों के लामबंद होने का मुद्दा बन गया है, जो दिल्ली की सीमाओं पर कड़कड़ाती ठंड में डेरा डाले बैठे हैं।

यह प्रस्तावित संशोधन सभी किस्म की क्रॉस-सब्सिडी को हटाने और सभी उपभोक्ताओं को आपूर्ति की जाने वाली बिजली की वास्तविक लागत का भुगतान करने का प्रावधान करता है, या संशोधन में इसे उपभोक्ता को सेवा के एवज़ में लागत अदा करना कहा गया है। वर्तमान में आर्थिक रूप से संपन्न उपभोक्ता, उच्च दर का भुगतान करते हैं, जबकि गरीब और ग्रामीण उपभोक्ता को क्रॉस-सब्सिडी मिलती हैं। प्रस्तावित संशोधन के तहत, किसानों और ग्रामीण उपभोक्ताओं को बिजली की उच्चतम कीमत चुकानी होगी, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली आपूर्ति की लागत शहरी उपभोक्ताओं की तुलना में काफी अधिक है। और इसका अनुमान लगाने के लिए कोई पुरस्कार तो मिलेगा नहीं कि बिजली की सबसे कम कीमत कौन देगा: ये बड़े उद्यम और आर्थिक रूप से संपन्न उपभोक्ता हैं, जो वर्तमान में गरीब और ग्रामीण उपभोक्ताओं की सब्सिडी का सहारा हैं।

इस लेख में, हम किसानों पर पड़ने वाले प्रभाव पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, न कि प्रस्तावित विधेयक का कोई विस्तृत विश्लेषण कर रहे हैं, जैसा कि हम पहले कर चुके है। कृषि-कानून एक संवैधानिक दुस्साहस है और केंद्र सरकार ने राज्य के विषय में एक गंभीर दखल दी है। जब  बिजली क्षेत्र की बात आती है, जो कि समवर्ती विषयों की सूची में है, तो इस तरह के अतिक्रमण का एक लंबा इतिहास है और पिछले कुछ वर्षों में यह इस हद तक बढ़ गया है कि प्रस्तावित बिजली (संशोधन) विधेयक, 2020 एक अहंकारी सरकार के विचार का गठन करता है जिसके माध्यम से केंद्र सरकार बड़ी पूंजी और अमीरों के पक्ष में इस सेक्टर में "सुधार" के नाम पर इस  कानून को लाई है, और राज्य सरकारों को उनकी नीतियों के वित्तीय और राजनीतिक खामियाजे को भुगतने के लिए छोड़ दिया जाएगा। 

1990 के बाद से, सभी सरकारों का मुख्य एजेंडा एकीकृत बिजली ग्रिड को तोड़ कर उसे वितरण, प्रसारण और बिजली पैदा करने के काम में विभाजित करने का रहा है और वितरण कंपनियों, डिस्कोम (DISCOM) सहित इसके कुछ हिस्सों का निजीकरण करने का प्रयास भी किया गया है। कुछ अपवादों को छोड़कर यानि कुछ बड़े शहरों को छोडकर, बाकी में ऐसा करने के प्रयास भयंकर रूप से विफल रहे हैं।

जबकि निजीकरण को बिजली वितरण की सभी बीमारियों का रामबाण माना गया बावजूद इसके यह रामबाण वितरण में निजी पूंजी को आकर्षित करने में सफल नहीं हुआ, जिसे अक्सर बिजली क्षेत्र में क्रॉस-सब्सिडी के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। क्रॉस-सब्सिडी एक ऐसी नीति है जिसमें अमीर उपभोक्ता औसत लागत से अधिक का भुगतान कर गरीब उपभोक्ताओं को दी जा रही सबसिडी की क्षतिपूर्ति करता है जिसमें ग्रामीण उपभोक्ता, दोनों कृषि और घरेलू, इन सब्सिडी के मुख्य लाभार्थी हैं। 2004 में आम चुनाव हारने से पहले पहली एनडीए सरकार ने विद्युत अधिनियम, 2003 को पारित किया था, और तभी से बिजली सब्सिडी का "उन्मूलन" भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे में रहा है। कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तत्वावधान में पहली यूपीए सरकार ने 2003 के अधिनियम में इस प्रावधान को "उन्मूलन" के कहने के बजाय क्रॉस सब्सिडी कहने के सबसिडी में "प्रगतिशील कमी" लाने के नाम से संशोधित किया था।

उस संशोधन को फिर से उलटते हुए, न्यू इलेक्ट्रिसिटी (अमेंडमेंट) बिल, 2020 में एक ही बार में क्रॉस-सब्सिडी को खत्म करने का प्रस्ताव किया गया है। संशोधन राज्य विद्युत नियामक आयोगों को किसी भी तरह की क्रॉस-सब्सिडी देने की अनुमति नहीं देता है और "बिजली की पूरी लागत" के आधार पर टैरिफ तय करने का आदेश देता हैं। इसका अर्थ यह है कि उपभोक्ताओं को प्रत्येक श्रेणी अर्थात्, कृषि, घरेलू, औद्योगिक आदि की श्रेणी में बिजली की आपूर्ति के एवज़ में पूरा या वास्तविक भुगतान करना होगा। अगर कोई राज्य सरकार किसी भी श्रेणी के उपभोक्ताओं को सब्सिडी देना चाहती है, तो वे डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT) तंत्र का इस्तेमाल करके उन सब्सिडी का लाभ सीधे उपभोक्ताओं को हस्तांतरित कर सकती हैं।

इस नीति का पहला और सबसे सीधा परिणाम यह होगा कि ग्रामीण उपभोक्ताओं, विशेष रूप से कृषि उपभोक्ताओं से सबसे अधिक टैरिफ वसूला जाएगा। इन उपभोक्ताओं को बिजली सेवा काफी महंगी पड़ेगी, क्योंकि उन्हें बिजली की आपूर्ति के लिए लंबे समय तक ट्रांसमिशन और वितरण लाइनों और स्टेप-डाउन ट्रांसफार्मर की जरूरत होगी और इसलिए अटेंडेंट लाइन के नुकसान की अतिरिक्त लागत देनी होगी। दूसरी ओर, हाइ टेंशन लाइनों के माध्यम से बिजली प्राप्त करने वाले बड़े औद्योगिक उपभोक्ताओं के लिए बिजली का टैरिफ कम हो जाएगा। किसी को इन नतीजों पर पहुँचने के लिए जटिल समीकरणों के इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं है कि यह सब शुरू करना बड़ा ही असमानता भरा काम होगा।

राज्यों को तब उन उपभोक्ताओं की पहचान करनी होगी जिन्हे प्रत्यक्ष सब्सिडी समर्थन की जरूरत होगी, यदि सरकार ऐसा करना जरूरी समझती हैं। इस सब्सिडी को राज्य सरकार सीधे उपभोक्ता को देगी, लेकिन लाभार्थी को बिल की पूरी राशि/लागत का भुगतान वितरण कंपनी को तुरंत करना होगा, अगर ऐसा करने में वह विफल हो जाता है तो बिजली कनेक्शन काट दिया जा सकता है। फिर इस तरह के कहर की भविष्यवाणी करने के लिए कोई जीनियस होना जरूरी नहीं है यह कृषि से जुड़े घर होंगे जो पहले से ही अनिश्चित आय से जूझ रहे है उनपर बिजली गिरने जैसा होगा। 

राज्यों की वित्तीय स्थित की खराब हालत को देखते हुए, उन्हें अपने राज्यों में उपभोक्ताओं के बड़े वर्गों को जिसमें- किसान, मजदूर, छोटे घर, घरेलू उद्यमों, स्कूलों, सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र आदि कुछ नाम शामिल है जिन्हे अपने बिलों का भुगतान भी बिना किसी क्रॉस-सब्सिडी के करना होगा, यह राज्य के वित्त को बर्बाद करके रख देगा। लगभग राज्य की राजस्व की सभी धाराओं पर केंद्र सरकार के अतिक्रमण करने से, विशेष रूप से माल और सेवा कर (जीएसटी) के लागू होने के बाद से और राज्यों को सही वक़्त पैसा मुहैया न कराना या उसमें आना-कानी करना तो फिर राज्य उपभोक्ताओं को सब्सिडी देने के लिए पैसा कहाँ से लाएँगे। बिजली की उपलब्धता उनके जीवन, रोजगार और आजीविका पर निर्भर करती है? बिजली एक लक्जरी नहीं है जिसके बिना ग्रामीण काम चला सकते हैं और किसान हमें भोजन प्रदान कर सकते हैं!

2018-19 में, देश में कुल बिजली की बिक्री का कृषि क्षेत्र का हिस्सा 22.4 प्रतिशत था। उसी  वर्ष में आपूर्ति की औसत लागत 6.13 रुपए प्रति यूनिट थी। यदि किसानों को इस लागत का भुगतान करना पड़ता तो अकेले कृषि उपभोक्ताओं से लगभग 1,32,000 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त होता। ध्यान रखें कि यह आपूर्ति की औसत लागत है, न कि सेवा की लागत, जो ग्रामीण क्षेत्रों में और भी अधिक है। इसलिए प्रस्तावित बिल से किसानों पर प्रति वर्ष 1 लाख करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा ही पड़ेगा। हालांकि इसके एक हिस्से की प्रतिपूर्ति की जा सकती है, लेकिन किसानों को इस लागत को अपनी जेब से भरना पड़ेगा और हम सब जानते हैं कि राज्य सरकारें लाभ पहुंचाने में कितना समय लेती हैं।

यदि इस संशोधन को लागू कर दिया जाता है, तो एक किसान जो साल में चार महीने, सप्ताह में दो बार, लगभग चार घंटे अपने 5 हॉर्स पावर के पंप-सेट को चलाता है, तो उसे बिजली बिलों में प्रति वर्ष लगभग 3,000 रुपए का भुगतान करना होगा। तो मौजूदा लागत की औसत की तुलना में सिंचाई की लागत में 500 प्रतिशत की वृद्धि है। अनियमित बारिश के कारण और अधिक पानी के इस्तेमाल के लिए यदि बड़े हॉर्स पावर पंप-सेट की जरूरत पड़ती है और साथ ही खेत ऐसी जगह पर जहां ज़मीन में पानी कम है तो ये लागत और बढ़ जाएगी। इसका प्रभाव पूरे राज्यों में अलग-अलग होगा, लेकिन छोटे और सीमांत किसानों पर इसका असर पूरे देश में भयानक होगा।

वित्त-वर्ष 2018-19 में बिजली क्षेत्र में कुल सब्सिडी में से 55 प्रतिशत को क्रॉस-सब्सिडी के माध्यम से हासिल किया गया था, जबकि शेष राशि प्रत्यक्ष सब्सिडी के रूप में डिस्कोम (DISCOM) को राज्य सरकारों द्वारा स्थानांतरित किया गया था। यदि रातों-रात क्रॉस-सब्सिडी को हटा दिया जाता है और राज्य सरकारें इस बिल को लागू कर दें तो उन पर एक बड़ा अतिरिक्त बोझ बढ़ जाएगा। कई राज्य सरकारों ने इसलिए इस विधेयक का सही ही विरोध किया है।

संदिग्ध प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजना के बारे में कई मुद्दे हैं जिन्हें संबोधित किया जाना चाहिए। पहला यह है कि चूँकि ये नकदी की तंगी से लैस राज्य सरकारें होंगी जो इस राशि को लाभार्थियों को हस्तांतरित करेंगी, इसकी बहुत संभावना है कि धन हस्तांतरण में देरी होगी और व्यक्तिगत उपभोक्ताओं को कनेक्शन कटने का खतरा रहेगा। इन उपभोक्ताओं में से कई, विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसान होंगे जो पहले से ही बढ़ती इनपुट लागत और उपज के सही दाम न मिलने के कारण गंभीर कर्ज़ में धँसे होंगे, इस प्रकार संभवतः वे पंप-सेट आधारित जिसमें बिजली एक महत्वपूर्ण इनपुट है उसके नुकसान का सामना करेंगे।

प्रत्यक्ष लाभार्थी हस्तांतरण योजनाओं को चलाना कठिन काम है, जैसा कि कई अन्य क्षेत्रों में देखा गया है। यहां तक ​​कि जब लाभार्थियों की पहचान करना अपेक्षाकृत आसान होता है, जैसे कि उदाहरण के लिए उच्च शिक्षा में, जहां छात्रों को अपनी वास्तविक छात्रवृत्ति हासिल करने में कई बार महीनों तक इंतजार करना पड़ता है, जिससे उन्हे अपनी शिक्षा जारी रखना बहुत मुश्किल हो जाता है। कई अध्ययनों ने रसोई गैस वितरण में प्रत्यक्ष लाभार्थी हस्तांतरण योजना (DBT) की विफलता को दर्शाया है, जहां इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हस्तांतरित होने पर भी पैसा, महिलाओं को गैस सिलेंडर की खरीद के लिए उपलब्ध होगा। फिर कृषि क्षेत्र में, सब्सिडी का हस्तांतरण उन लोगों के लिए होगा जिनके पास भूमि है। पट्टे पर दी गई भूमि और बटाई पर खेती करने वालों को इसका लाभ मिलने की संभावना नहीं है। खाद्यान्न के मामले में, अध्ययन से पता चलता है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली की जगह डीबीटी योजना लाने से खाद्यान्नों की बाजार दर में वृद्धि हुई है, जो वृद्धि सब्सिडी हस्तांतरण में दिखाई नहीं देती है। बिजली के मामले में भी, जब तक कि प्रत्यक्ष सब्सिडी को बिजली की कीमतों में वृद्धि के साथ नहीं जोड़ा जाता है, तो समझ लो कि ये योजना गरीब उपभोक्ताओं को बिना सहारे के छोड़ देगी और संभव है कि उन्हे बिना बिजली के रहना पड़े।

अंत में, अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि यह समृद्ध किसान हैं जो सब्सिडी का सबसे अधिक लाभ उठाता हैं और छोटे और सीमांत किसान इस लाभ को नहीं ले पाते हैं। यह सच नहीं है। उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में, भूजल योजनाओं का 40 प्रतिशत से अधिक सीमांत किसानों के स्वामित्व में हैं, जो कि 1 हेक्टेयर से कम भूमि के मालिक हैं, और अन्य 50 प्रतिशत किसान छोटे और अर्ध-मध्यम किसानों के स्वामित्व में हैं, यानी वे एक से चार हेक्टेयर जमीन के बीच के मालिक हैं जिन्हे ये लाभ मिल रहा है। पंजाब और राजस्थान में, जबकि मध्यम किसान, जो कि 4-10 हेक्टेयर के बीच के मालिक होते हैं, भूजल योजनाओं के   लगभग 30-40 प्रतिशत के मालिक हैं, दोनों राज्यों में 40 प्रतिशत से अधिक योजनाओं का स्वामित्व छोटे और अर्ध-मध्यम किसानों के पास है। यानि एक से चार हेक्टेयर ज़मीन के बीच के मालिक।

दूसरी ओर, जब सतही जल योजनाओं की बात आती है, तो हरियाणा और पंजाब में उन पर मध्यम और बड़े किसानों का बहुत अधिक स्वामित्व है। हालाँकि, सतही जल दरों में अत्यधिक सब्सिडी दी जाती है और इन्हें संशोधित करने के बारे में कोई चर्चा नहीं होती है। लेकिन इलेक्ट्रिक पंप-सेट आधारित भूजल सिंचाई को लगातार अधिक महंगा बनाने की कोशिश की जाती रही है।

और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर सरकार वास्तव में भूमिहीन, सीमांत और छोटे किसानों के बारे में चिंतित है तो उसे इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि लाभ का असमान वितरण भूमि के आसमान वितरण का परिणाम है और देश के अधिकांश हिस्सों में गंभीर किस्म के भूमि सुधार के अभाव में ऐसा है। फिर भी, इसे संबोधित करना केंद्र सरकार के एजेंडे में दूर-दूर तक नहीं है।

दिल्ली की ओर जाने वाली सड़कों पर लाल झंडों की मौजूदगी के बारे में सरकार और मीडिया ने विरोध प्रदर्शनों को वैचारिक और पक्षपातपूर्ण बताया है। यह चरित्र चित्रण इस बात को नज़रअंदाज़ कर देता है कि जिन लोगों ने एक के बाद एक तीन कृषि-क़ानूनों को बिना किसी लोकतांत्रिक चर्चा के पारित किया वे भी वैचारिक और पक्षपातपूर्ण हैं। अंतर यह है कि एक विचारधारा किसान और मेहनतकश जनता के अधिकारों के लिए लड़ रही है, और दूसरी उनके खिलाफ खड़ी है।

तेजल कानिटकर एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं और जूही चटर्जी एनआईएएस, बेंगलुरु में एक रिसर्च फ़ेलो हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें। 

Why Farmers are Protesting Electricity Amendment Bill, 2020

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest