Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

मोदी सरकार के निशाने पर प्रवासी भारतीय पत्रकार क्यों ?

एनआरआई मीडिया से जुड़े पत्रकार नरेन्द्र मोदी सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि सरकार अपने दूतावासों द्वारा प्रवासी मीडिया संस्थानों पर यह दबाव डाल रही है कि मोदी सरकार की आलोचना न की जाए। कई मीडिया संस्थानों पर दबाव इतना बढ़ा है कि उन्होंने सही ढंग से पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों को ही नौकरी से निकाल दिया है।
Modi
Image courtesy : India Today

कुछ दिन पहले भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक और अमेरिकी मीडिया कंपनी वाइस (vice) के पत्रकार अंगद सिंह को दिल्ली में उनके फ्लाइट से उतरने के तीन घंटे के भीतर ही आईजीआई एयरपोर्ट से वापस भेज दिया गया। अंगद सिंह के परिवार ने आशंका जाहिर की है कि शायद उनकी पत्रकारिता के कारण भारत सरकार ने उनके साथ ऐसा किया है। अंगद ‘वाइस न्यूज़’ के लिए दक्षिण एशिया के मामलों को कवर करते हैं।  उन्होंने शाहीन बाग प्रदर्शन पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी और कोविड-19 के दौरान सरकारी व्यवस्था की खामियों, महामारी की दूसरी लहर के दौरान अंतिम संस्कारों की बड़ी संख्या, आक्सीजन की कमी और ग्रामीण भारत में कोविड से हुई मौतों के बारे रिपोर्टिंग की थी।

अंगद के परिजनों ने दावा किया है कि कुछ समय पहले भारत के दलितों को लेकर एक डॉक्यूमेंट्री बनाने के लिए उन्होंने भारत आने के लिए वीज़ा आवेदन दिया था, जिसे अस्वीकार कर दिया गया था| इस बार वे निजी कारणों से ही भारत आये थे न कि पेशेवर काम से; अंगद के एक सहयोगी पत्रकार का कहना है कि किसान आंदोलन के दौरान उनकी (अंगद की ) निगरानी में ‘वाइस न्यूज़’ के लिए डॉक्यूमेंट्रीज़ बनी हैं। पिछले साल भी किसान आंदोलन पर डॉक्यूमेंट्री बनाने के लिए पत्रकार अंगद को खुद आना था पर उन्हें वीज़ा नहीं दिया गया था।  

अंगद सिंह के मामले के बाद यह बात फिर उभर कर सामने आई है कि मोदी सरकार अपना दबाव सिर्फ भारतीय मीडिया संस्थानों और पत्रकारों पर ही नहीं डालती बल्कि प्रवासी भारतीय मीडिया संस्थानों और प्रवासी पत्रकारों की जुबानबंदी के लिए भी हर संभव कोशिश करती है। अंगद सिंह से पहले भी भारतीय मूल के विदेशों में बसने वाले अथवा विदेशी/प्रवासी मीडिया में काम करने वाले कई पत्रकारों के मामले सामने आ चुके हैं। एनआरआई मीडिया से जुड़े पत्रकार नरेन्द्र मोदी सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि सरकार अपने दूतावासों द्वारा प्रवासी मीडिया संस्थानों पर यह दबाव डाल रही है कि मोदी सरकार की आलोचना न की जाए। कई मीडिया संस्थानों पर दबाव इतना बढ़ा है कि उन्होंने सही ढंग से पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों को ही नौकरी से निकाल दिया है। पीड़ित पत्रकारों का कहना है कि हालांकि यूपीए सरकार के समय भी दबाव होता था परंतु मोदी सरकार के आने के बाद स्थिति बहुत बिगड़ गई है।

2014 में सबसे पहला मामला सरी, वैनकूवर के पत्रकार गुरप्रीत सिंह का सामने आया था। भारतीय दूतावास ने उनके रेडियो मालिक के द्वारा दबाव डाला कि वे नरेन्द्र मोदी के हक में अपने रेडियो शो करें। उस समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उत्तरी अमेरिका की यात्रा पर आए हुए थे। गुरप्रीत को यह हिदायत दी गई कि इस यात्रा के दौरान वे नरेन्द्र मोदी की आलोचना न करें। गुरप्रीत को इस्तीफा इसलिए देना पड़ा क्योंकि उसने अपने शो में उस व्यक्ति को बोलने का मौका दिया जो मोदी की यात्रा के दौरान विरोध प्रदर्शन की तैयारी कर रहा था और रेडियो मालिक को यह पसंद नहीं था। उस समय यह पत्रकार (शिव इंदर सिंह) भी उसी रेडियो नेटवर्क का भारतीय प्रतिनिधि था। जब गुरप्रीत सिंह को इस्तीफा देना पड़ा तो रोष स्वरूप मैंने भी नौकरी से इस्तीफा दे दिया।

गुरप्रीत सिंह बताते हैं, “दूतावास के अधिकारियों द्वारा अभी भी मेरी स्वतंत्र पत्रकारिता में रूकावटें खड़ा करने की कोशिशें की जाती हैं। कई मंचों पर वे मेरे खिलाफ नफरत और बेइज्जती वाला रवैया अपनाते हैं। साल 2018 में  सरी में केरल के बाढ़ पीड़ितों के लिए एक संस्था की ओर से प्रोग्राम करवाया गया था और मुझे भी उस कार्यक्रम में दूतावास अधिकारी के साथ विशेष तौर पर बुलाया गया था।जब इस कार्यक्रम में मेरे बोलने की बारी आई तो दूतावास अधिकारी ने प्रबंधकों को चेतावनी दी कि यदि गुरप्रीत बोलेगा तो वे उठ कर चले जाएंगे। आखिर में प्रबंधकों ने मुझे बोलने से रोक दिया। कमाल की बात है कि आप भारत में तो लेागों की जुबान बंद कर रहे हो पर कनाडा जैसे मुल्कों में भी हमारे बोलने के अधिकार को कुचल रहे हो।”

मोदी की यात्रा के समय ‘2002 का गुजरात हत्याकांड’ नामक रेडियो रिपोर्ट तैयार करने वाली कनाडा की पत्रकार तेजिन्दर कौर की भी ऐसी ही कहानी है।  उसकी इस रिपोर्ट पर उसके रेडियो और भारतीय दूतावास ने एतराज प्रकट किया था। तेजिन्दर कौर का आरोप है, “मुझे मानव अधिकारों के मुद्दे उठाने और  मोदी की उत्तरी अमेरिका की यात्रा के ख़िलाफ प्रदर्शन में शामिल होने के कारण निशाना बनाया गया। मुझे सोशल मीडिया के इस्तेमाल बारे भी सख्त निर्देश दिए गए। सोशल मीडिया अकाउंट्स पर क्या लिखना है और क्या नहीं लिखना? इस बारे भी मुझे हिदायतें दी गईं। मुझे कहा गया कि मैं मोदी की आलोचना न करूं। मैंने भी साफ-साफ कहा कि यह मेरा निजी माध्यम है। इसके बाद मुझे मेरे मीडिया संस्थान ने कुछ समय के लिए छुट्टी पर जाने का सुझाव दे दिया। मैंने स्टैंड लिया कि या तो मुझे शो करने दिया जाए या फिर मैं इस्तीफा दे रही हूं। और आखिरकार मुझे रेडियो छोड़ना पड़ा।”

ब्रिटिश कोलम्बिया में पंजाबी प्रैस क्लब के पूर्व प्रधान गुरविंदर सिंह धालीवाल को पिछली यूपीए सरकार और मौजूदा एनडीए सरकार दोनों के ही विरोध को झेलना पड़ा है। सन् 2010 में जब उन्हें भाषा विभाग पंजाब की ओर से साहित्यिक पत्रकारिता के लिए शिरोमणि अवार्ड देने का एलान किया गया तो उस समय उनका मल्टीपल वीजा रद्द कर दिया गया। दोबारा वीजा हासिल करने के लिए उन्हें दो साल का समय लगा। यह भी तब संभव हो पाया जब पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला के अधिकारियों ने मामले में दखल देकर कहा कि अपने पीएचडी के काम के लिए गुरविंदर को यूनिवर्सिटी आना ज़रूरी है।

गुरविंदर धालीवाल ने बताया, “मुझसे औपचारिक तौर पर अधिकारियों ने ऐसे सवाल किए जैसे कि मैं भारत विरोधी हूं; मसलन मैं कभी किसी खालिस्तानी मुहिम का हिस्सा तो नहीं रहा?” गुरविंदर का कहना है, “मैंने सिर्फ तथ्य आधारित पत्रकारिता करने की कोशिश की है, मेरा मानना है कि मैं मानव अधिकारों के मुद्दों पर बात करता रहूंगा चाहे वह 1984 का सिख कत्लेआम हो या फिर 2002 का गुजरात कत्लेआम।” वे बताते हैं कि स्थानीय संस्थाओं के दबाव अधीन दूतावास अधिकारी पत्रकारों को चुप करवाने की कोशिशें करते हैं और जब पत्रकार तब भी नहीं झुकते तो उन्हें व्यक्तिगत तौर पर निशाना बनाया जाता है।

2014 में जब भाजपा सत्ता में आई तब भी गुरविंदर धालीवाल का वीजा रोका गया। धालीवाल का मानना है, “सरकार चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की यदि आप मुद्दे उठाते हो तो आपको निशाना बनाया जाता है। मोदी सरकार के समय में यह रुझान और फला-फूला है।”
   
एक प्रवासी साप्ताहिक अख़बार के संपादक ने अपना नाम उजागर न करने की शर्त पर बताया कि उसे सही ढंग से पत्रकारिता करने के कारण कई बार वीजा मामले में उलझाया गया। 2007 में उन्हें अंगद की तरह दिल्ली ऐयरपोर्ट से ही वापिस मोड़ दिया गया था। 2015 में उन्हें किसी पारिवारिक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए पंजाब आना था, उस समय भी वीजा नहीं दिया गया। इन पत्रकारों का कहना है कि वे किसी ‘ब्लैक लिस्ट’ में शामिल नहीं हैं लेकिन फिर भी उन्हें निशाना बना कर अपमानित किया जाता है।

वीजा रद्द कर देना या ‘ब्लैक लिस्ट’ में शामिल कर देने का डर प्रवासी भारतीय पत्रकारों की जुबानबंदी का एक कारगर हथियार है। एनआरआई पत्रकार अपनी जन्मभूमि से भावनात्मक तौर पर जुड़े हुए होते हैं, उनकी ज्यादातर रिश्तेदारियां और ज़मीन-जायदाद भारत में ही हैं, इसलिए वे अपनी मिट्टी से जुड़े रहना चाहते हैं। एक दूतावास अधिकारी ने तीन साल पहले मुझे जानकारी दी थी, “केवल पांच लोगों द्वारा अलग से लिखी गई लिखित शिकायत वीजा रद्द करने के लिए पर्याप्त है“।

यह ‘ब्लैक लिस्ट’ क्या होती है? इस बारे कनाडियन पत्रकार गुरप्रीत सिंह बताते हैं, “असल में भारत सरकार ने भी इसे परिभाषित  नहीं किया है। जो भी सरकार से अलग सुर रखता है, चाहे वह वामपंथी हो, खालिस्तानी हो या फिर लिबरल हो उसे सरकार ‘ब्लैक लिस्ट’ में डाल देती है। यह ‘ब्लैक लिस्ट’ व्यक्ति के स्वतंत्र विचारों का गला घोंटने के काम आती है।” समय -समय पर भारत सरकार द्वारा विदेशों में रहने वाले सिखों की ‘ब्लैक लिस्ट’ रद्द करने के दावों और वादों को भी गुरप्रीत सिंह निरा पाखंड बताते हैं।

भारत में रहकर एनआरआई मीडिया के लिए काम करने वाले पत्रकारों के लिए भी कम चुनौतियां नहीं हैं। 2016 में मैं खुद सरकार के विरोध का निशाना बन चुका हूं। उस समय मैं कनाडा के एक नामवर रेडियो रैड एफएम के लिए काम करता था। मेरा काम पंजाब और भारत की ख़बरों के विशलेषण का था। पहले मुझे मेरे साथी होस्ट द्वारा कहलाया गया कि मैं प्रधानमंत्री की आलोचना न करूं ,मुझे यह भी कहा गया कि मैं नरेन्द्र मोदी को ‘नरेन्द्र मोदी’ नहीं ‘नरेन्द्र मोदी जी’ कहकर संबोधन करूं। लेकिन मेरा तर्क यह था कि जब कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को ‘ट्रूडो’ कहते हैं, बराक ओबामा को ‘बराक ओबामा’ कहते हैं तो मोदी को ‘मोदी जी’ कहने की क्या जरूरत है?

मेरे द्वारा भारत के अल्पसंख्यकों और मानव अधिकारों के मुद्दे उठाने पर भी रेडियो मालिकों को एतराज था। एक दिन मेरे द्वारा जब कारगिल दिवस पर रिर्पोटिंग की गई तो रेडियो मालिकों ने मुझे कहा कि आपके शो पर श्रोताओं ने नाराजगी प्रकट की है, बेहतर होगा कि तीन महीनें बाद आप हमारे नए प्रोग्रामिंग का हिस्सा बनें। बाद में रेडियो स्टाफ ने मेरे फोन उठाने बंद कर दिए। मेरे कनाडियन मित्रों ने जब रेडियो सीईओ के साथ इस मुद्दे पर बैठक की तो मित्रों को बताया गया कि मोदी और भारतीय सेना की आलोचना करने के कारण उन्हें यह कार्यवाही करनी पड़ी। यह मुद्दा कनाडियन ब्राडकास्टिंग ऑथोरिटी के सामने भी उठ चुका है।
 
करीब तीन-चार साल पहले कनाडा के पंजाबी टी.वी. होस्ट पैरी दुले का मुद्दा भी कनाडा के स्थानीय अख़बारों में चर्चा का विषय बना रहा कि भारत सरकार ने उनकी निष्पक्ष रिर्पोटिंग के कारण उनका सम्बन्ध अलगाववादी गतिविधियों वाले ग्रुप के साथ जोड़ दिया और कनाडा सरकार को कहकर उनका नाम ‘नो फ्लाई लिस्ट’ में शामिल करवा दिया था। जिस कारण वह कनाडा में जहाज़ द्वारा सफर नहीं कर सकते थे।  

2020 में कनाडा के एक मीडिया ग्रुप ने खबर प्रकाशित की कि भारतीय इंटेलिजेंस एजेंसी ‘रॉ’ एक भारतीय पत्रकार/सम्पादक के जरिए कनाडा के नेताओं को भारतीय सरकार के पक्ष में माहौल बनवा रही है। इसी रिपोर्ट को बाद मेंद क्विंट ने 17 अप्रैल 2020 में प्रकाशित किया।
 
उत्तरी अमेरिका के एक अन्य पत्रकार का कहना है, “यहां के प्रवासी मीडिया, भारतीय दूतावास  और भारतीय राजनीतिक पार्टियों की इकाईयों में एक गठजोड़ बना हुआ है। भारत से आने वाले राजनीतिक नेता और  उनकी राजनीतिक इकाईयां भारतीय दूतावास के साथ बढ़िया सम्बन्ध बनाए रखना चाहते हैं इसलिए जब यहां किसी पत्रकार पर संकट आता है तो भारत में कोई आवाज़ उनके हक में नहीं उठती। विदेशों में भारतीय स्टेट का चरित्र बखूबी दिखाई देता है।”

टोरेंटो के एक रेडियो होस्ट ने अपना दुखड़ा सुनाते हुए कहा, “कुछ समय पहले जब मैंने कश्मीर के बारे में प्रोग्राम पेश किया तो दूतावास अधिकारियों ने मुझे बुलाकर हिदायत दी कि भारत विरोधी ऐसे कार्यक्रम आगे से न किये जाएं।”

टोरेंटो से ‘सरोकारां दी आवाज़’ अख़बार के सम्पादक हरबंस सिंह जानकारी देते हैं कि, “यहां बसने वाले पंजाबी स्थानीय मुद्दों की जगह पंजाब और भारत में घट रही घटनाओं को जानने में ज्यादा रूचि रखते हैं। पिछले दस सालों में प्रवासी मीडिया का प्रभाव पंजाब की राजनीति में बढ़ा है, चाहे 2012 में मनप्रीत बादल का उभार हो या फिर 2014 में आम आदमी पार्टी द्वारा पंजाब में चार लोकसभा सीटें जीता जाना हो, इसमें प्रवासी मीडिया का भी अहम योगदान रहा है। इसी कारण भारत की राजनीतिक पार्टियां एनआरआई मीडिया में विशेष रूचि लेने लगी हैं। लोकसभा व विधानसभा चुनावों में एनआरआई मीडिया को सियासी पार्टियों द्वारा विज्ञापन दिए जाते हैं।”

मोदी सरकार के समय में भारतीय दूतावास का प्रभाव प्रवासी भाईचारे के सांझे सांस्कृतिक केन्द्रों, मंदिर, गुरुद्वारों आदि में बढ़ा है। इन संस्थाओं को कंट्रोल करके एनआरआई मीडिया की जुबानबंदी की जाती है क्योंकि मंदिर, गुरुद्वारों से मिलने वाले विज्ञापन प्रवासी मीडिया की आमदनी का स्रोत होते हैं। 2017 में जब भारतीय पत्रकार राणा अय्यूब कनाडा यात्रा पर गईं तो सरी के ऐतिहासिक गरुद्वारे में भारतीय अधिकारियों के दबाव के चलते उन्हें बोलने नहीं दिया गया। दलील यह दी गई कि राणा अय्यूब का भाषण भाईचारिक सद्भावना के लिए खतरा होगा। जबकि इसी गुरुद्वारे में नरेन्द्र मोदी का जोर-शोर से स्वागत किया गया। 2018 में जब सामाजिक कार्यकर्त्ता तीस्ता सीतलवाड़ कनाडा पहुंची तो प्रवासी मीडिया को निर्देश दिए गए कि उसकी कवरेज न की जाए, फलस्वरूप कनाडा के मुख्यधारा के मीडिया ने तो तीस्ता सीतलवाड़ की कवरेज की जबकि प्रवासी मीडिया में यह कवरेज नाम मात्र रही।

अमेरिका के कैलीफोर्निया स्टेट के पंजाबी अख़बार ‘साड्डे लोक’ के सम्पादक सतनाम सिंह खालसा का कहना है, “जब हम गौरक्षा के नाम पर भारत में अल्पसंख्यकों की हत्या की ख़बर छापते हैं या मोदी या संघ के साथ जुड़ी आलोचनात्मक सम्पादकीय लिखते हैं तो हमें भारतीय दूतावास की तरफ से परेशानियों का सामना करना पड़ता है। दूतावास अधिकारी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके हमें विज्ञापन देने वाले संस्थानों पर अपना दबाव बरतते हैं। अब मेरे अख़बार में मंदिरों के विज्ञापनों की 50 प्रतिशत की कमी हो गयी है।” न्यूयार्क के पंजाबी टी.वी. चैनल ‘टी.वी. 84’ के सीईओ डॉ. अमरजीत सिंह ने भी ऐसा ही प्रभाव दिया है। बहुत सारे गुरुद्वारों व मंदिरों ने दूतावास के प्रभाव में उनके चैनल को विज्ञापन देने बंद कर दिए हैं।  

जिस तरह भारत में पत्रकारों पर ट्रोल हमले होते हैं, उसी तरह विदेशी मीडिया में भी यह नया रुझान पैदा हुआ है कि यदि कोई होस्ट रेडिया या टी.वी. टॉक शो में भारत सरकार या नरेन्द्र मोदी की आलोचना करता है तो संघ और भाजपा से जुड़े लोग उस होस्ट को अपमानजनक टिप्पणियों वाले फोन कॉल्स/मैसेज करने शुरु कर देते हैं। हाल ही में पाकिस्तानी मूल के कनाडियन पंजाबी पत्रकार हरून गफ्फार ने जब एक प्रैस कांफ्रेस दौरान भारतीय कश्मीर में फौज द्वारा महिलाओं के साथ की गई ज्यादतियों के बारे में सवाल किया तो भाजपा से जुड़े लक्ष्मी नारायण मंदिर, सरी के प्रधान पुरुषोत्तम गोयल ने हरून को अपशब्द बोलने शुरु कर दिए जिसका स्थानीय मीडिया ने भी विरोध किया।

प्रवासी पत्रकारों का यह गिला है कि भारतीय मीडिया की तरह प्रवासी मीडिया पर भी भारत सरकार हर तरह से अपना दबाव बनाने की कोशिश करती है, प्रवासी मीडिया का एक हिस्सा भी भारत सरकार के साथ मिलकर चलने की कोशिश करता है और जब किसी प्रवासी पत्रकार पर समस्या आती है तो भारत के लोकतांत्रिक और पत्रकार संगठन भी इसका ख़ास नोटिस नहीं लेते।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest