केंद्र और राज्य सरकार मणिपुर हिंसा रोकने में क्यों नहीं सफल हो रही?
मणिपुर पिछले एक महीने से हिंसा की चपेट में है। पिछले महीने 3 मई यानी आज से ठीक एक महीने पहले ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन (एटीएसयूएन) द्वारा निकाली गई "आदिवासी एकता रैली" के बाद फैली इस हिंसा ने राज्य को हर ओर से अपनी चपेट में ले लिया है। अभी तक हिंसा के कारण सरकारी आंकड़ों के अनुसार 98 से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है, वहीं हजारों लोग घायल हैं। इसके अलावा हजारों घर जल कर तबाह व बर्बाद हो चुके हैं। देश के गृह मंत्री से लेकर, गृह राज्य मंत्री, सीडीएस और तमाम हाईप्रोफाइल लोगों की मौजूदगी के बाद भी सरकार अब तक हिंसा रोकने में सफल नहीं हो पाई है। जब राज्य में इतने बड़े नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की मौजूदगी के बाद भी हिंसा नहीं रुक रही हो तो सरकार की मंशा पर सवाल उठना लाजिम है। क्या सरकार वाकई में हिंसा को रोकने के लिए गंभीर है, और अगर गंभीर है तो वह उसे रोकने में कामयाब क्यों नहीं हो पा रही है? हिंसा शुरू होने के एक महीने बाद भी वह उसे नियंत्रित करने में सक्षम क्यों नहीं दिख रही है और मणिपुर में हिंसा का स्तर कितना बड़ा है? आइए इन तमाम सवालों के जवाब जानते हैं सिलसिलेवार तरीके से...
मणिपुर में हिंसा का स्तर कितना बड़ा?
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले एक महीने में भीड़ द्वारा करीब 4000 हथियार और 5 लाख राउंड कारतूस लूट लिए गए हैं। अब तक हिंसा से संबंधित मामलों में कुल 3734 प्राथमिकी दर्ज की गई हैं और हिंसा भड़काने के जुर्म में 68 लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अब तक हिंसा में 98 लोग मारे गए हैं और 310 लोग घायल हो चुके हैं। वहीं 37000 से भी अधिक लोगों को हिंसा से बचने के लिए अपने घर को छोड़ कर सुरक्षित स्थानों पर शरण लेनी पड़ी है।
मणिपुर के मुख्यमंत्री कार्यालय के अनुसार अब तक 4104 आगजनी के मामले सामने आए हैं। यहां जारी हिंसा को रोकने के लिए राज्य प्रशासन के अलावा केंद्रीय सशस्त्र बल की 84 कंपनियों को राज्य में तैनात किया गया है। पूरे राज्य में बीते एक माह से कर्फ्यू लगा हुआ है हालांकि बीते कुछ दिनों से प्रदेश के कुछ जिलों में कर्फ्यू में छूट दी गई है। इसके अलावा अभी तक पूरे प्रदेश में इंटरनेट बैन है। कर्फ्यू और इंटरनेट बैन के कारण आम जीवन अस्त-व्यस्त बना हुआ है। मणिपुर में हिंसा की हालिया स्थिति और उसके स्तर पर बात करते हुए, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के उत्तर पूर्व भारत के अध्ययन के विशेष केंद्र (Special Center for the Study of North East India) के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ जी. अमरजीत शर्मा कहते हैं कि “जिस तरह से आम लोगों ने बीते दिनों में गहरे और दर्दनाक दंगों का अनुभव किया है जो कि किसी गृह-युद्ध से कम नहीं था। हालिया समय में उत्पन्न हुई हिंसा गंभीर चिंता का विषय है इसे केंद्र और राज्य सरकारों को तुरंत रोकना चाहिए।'’
इससे पहले उत्तर-पूर्व भारत में खासकर मणिपुर में हुई किसी भी हिंसा में इस स्तर के आधुनिक हथियार का इस्तेमाल नहीं हुआ था जिसके कारण इस बार की हिंसा काफी अलग और खतरनाक प्रतीत हो रही है। इस बार की हिंसा में हथियार, गोला-बारूद और बड़ी बंदूकें शामिल हैं और कोई बड़ा गेम प्लान भी है, इसलिए यह डराने वाला है। वह आगे कहते हैं कि “ऐसी खबरें आ रही हैं कि सीमा पार से लोग हथियार और गोला-बारूद लेकर मणिपुर आ रहे हैं, यह और भी डरावना है और अगर सरकार ने इस पर नियंत्रण नहीं किया तो आने वाले समय में यह कहर बरपाएगा।'’
राज्य और केंद्र सरकार के बयानों में विरोधाभास देखकर लगता है कि वह हिंसा से पूरी तरह वाक़िफ़ नहीं
राज्य और केंद्र सरकार के बयानों में विरोधाभास देखकर लगता है कि दोनों सरकारें या तो इस भयावह स्तर की हिंसा से पूरी तरह वाकिफ़ नहीं हैं, या फिर इस हिंसा के ख़तरे को गंभीरता से नहीं ले रही हैं। राज्य के मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह और देश के गृह मंत्री अमित शाह, हिंसा को लेकर अलग-अलग पटल पर खड़े हुए नज़र आ रहे हैं।
एन. बिरेन सिंह ने हालिया समय में जारी हिंसा को “जातीय संघर्ष” न कहते हुए हिंसा को “कुकी मिलिटेंट” और सुरक्षा बलों के बीच हो रही लड़ाई करार दिया है। उन्होंने कहा कि प्रदेश में हो रही हिंसा के पीछे साफतौर पर “कुकी समुदाय” का हाथ है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि प्रशासन ने जिन 40 मिलिटेंट को “जवाबी कार्रवाई” में मार गिराया है वह सब राज्य में हिंसा फैलाने वाले 40 कुकी “मिलिटेंट” थे।
वहीं दूसरी ओर, सीडीएस लेफ्टिनेंट जनरल अनिल चौहान ने हाल ही में प्रेस से बात करते हुए कहा कि मणिपुर में “मौजूदा अशांति” मुख्य रूप से एक “जातीय संघर्ष” है न कि किसी भी तरह का “विद्रोह”। गृह मंत्री अमित शाह ने भी सीडीएस के बयानों को दोहराते हुए मणिपुर के अपने चार दिवसीय दौरे के अंतिम दिन प्रेस वार्ता के दौरान कहा कि हालिया हिंसा "जातीय संघर्ष" है। वहीं उन्होंने एन. बीरेन सिंह के “जवाबी कार्रवाई” में मारे गए 40 कुकी “मिलिटेंट्स” के बयान को भी खारिज कर दिया।
गृह मंत्री और सीडीएस का यह बयान मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह के बयान से बिल्कुल उलट है। सवाल यह उठता है कि प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार इतने गंभीर मुद्दे पर भी एक पटल पर क्यों नहीं है? इससे यह बात साफ तौर पर ज़ाहिर होती है कि केंद्र और राज्य सरकार ने इस हिंसा की गंभीरता का आंकलन करने में गंभीरता नहीं बरती जिस कारण हिंसा इस स्तर पर फैल गई।
सरकार मणिपुर में हिंसा रोकने में क्यों नहीं कामयाब हो पा रही?
मणिपुर में हिंसा की शुरुआत हुए एक महीना हो चुका है। इस हिंसा से प्रदेश की जनता हर ओर से परेशान है। हिंसा का स्तर घटने के बजाय बढ़ता नजर आ रहा है। हालांकि गृह मंत्री अमित शाह के दौरे के बाद हिंसा में सुधार की उम्मीद की जा रही है।
सरकार द्वारा हिंसा न रोक पाने के सवाल पर डॉ जी. अमरजीत शर्मा कहते हैं, “राज्य में इतनी कड़ी सुरक्षा के बावजूद हिंसा पर काबू पाने में इतना समय लग गया है, जो अपने आप में देश की सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़ा करता है।'’ इसके अलावा उन्होंने कहा कि “देश के गृह मंत्री से लेकर देश के गृह राज्य मंत्री के अलावा सीडीएस की मौजूदगी और उनके दौरों के बाद जब राज्य में हिंसा नहीं रुक पा रही है तब यह इन लोगों की हिंसा रोकने की मंशा पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं।'’
गौरतलब है कि हिंसा शुरू हुए एक महीना हो चुका है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की डबल इंजन सरकार द्वारा इस पर अभी तक काबू नहीं किया गया है। डॉ जी. अमरजीत शर्मा का मानना है कि “हिंसा होने के एक माह के बाद भी केंद्र और राज्य सरकार पर्याप्त रूप से हिंसा को रोकने की कोशिश नहीं कर रही हैं, अगर वह हिंसा को रोकने का पर्याप्त प्रयास करती तो अब तक हिंसा रुक चुकी होती।” हिंसा न रुकने के पीछे के कारणों को संदेह की दृष्टि से देखते हुए वह कहते हैं कि “यह हिंसा शायद किसी कारणवश नहीं रुक रही है और इस हिंसा से किसी को राजनीतिक फायदा मिलने वाला है।”
मणिपुर में एक महीने से जारी हिंसा का राजनीतिक उद्देश्य क्या है? क्या इस हिंसा को जारी रखने से किसी राजनीतिक दल को फायदा मिलने वाला है। आखिरकार सरकार इस हिंसा को एक महीने के बाद भी रोकने में कामयाब क्यों नहीं हो पाई हैं? डॉ जी. अमरजीत शर्मा कहते हैं कि “सक्षम सेना और हाईप्रोफाइल नेताओं की मौजूदगी के बाद भी हिंसा खत्म नहीं हो पा रही है तब यह तमाम सवाल उठने जायज़ हैं। सरकार क्यों एक दूसरे को आपस में लड़ाना चाहती है। हिंसा को बहुत पहले सरकार को रोक लेना चाहिए था।”
क्या मणिपुर फिर से पुराने “संघर्ष” वाले दौर में जा रहा?
उत्तर-पूर्व भारत की राजनीति से जुड़े जानकारों का मानना है कि मणिपुर में जारी हिंसा राज्य को फिर से “उग्रवाद” के पुराने दौर में ले जा सकती है। दरअसल उत्तर-पूर्व के लगभग सभी राज्य बीते कई दशकों से भयावह रूप से विद्रोह का सामना करते आए हैं। मणिपुर ने भी बीते दशकों में भयावह रूप से विद्रोह देखा है।
हालिया दशकों के विद्रोह के इतिहास पर नज़र डाले तो 1990 के दशक का नागा विद्रोह याद आता है। 1990 के दशक में, नागा नेशनल मूवमेंट "ग्रेटर नगालिम" की मांग नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ़ नागालैंड, आईएम वृहद स्तर पर कर रही थी। यहां गौर करने वाली बात यह है कि आज जो हिंसा जिन दो समुदायों यानी मैतेई और कुकी के बीच हो रही है, उस दौर में यह दोनों समुदाय एक दूसरे के साथ खड़े थे। हालाँकि, "कुकीलैंड" की मांग उठने के बाद दोनों समुदायों के बीच संबंध बिगड़ने लगे थे।
बीते कुछ समय से उत्तर-पूर्वी भारत के राज्य शांति की ओर लौट रहे थे और उनकी स्थिति में काफी सुधार होता दिख रहा था। मणिपुर में भी सरकार और नागरिक समाज के प्रयासों से राज्य पिछले कुछ वर्षों से शांति की ओर बढ़ रहा था। लेकिन 3 मई को अचानक भड़की हिंसा की वजह से शांति के लिए वर्षों से की जा रही तमाम कोशिशों पर पानी फिरता हुआ नज़र आ रहा है।
इस मसले पर बात करते हुए डॉ जी. अमरजीत शर्मा कहते है कि “हालिया प्रकरण काफी दुखदायी है, राज्य और केंद्र सरकार को इस मुद्दे को गंभीरता से लेना चाहिए।” वह आगे कहते हैं कि “हालिया समय में जारी हिंसा 90 के दशक में हुई हिंसा से भी भयावह दिख रही है जो कि मणिपुर को पुराने संघर्ष वाले दौर में ले जा सकती है। यदि इस हिंसा को समय रहते नियंत्रित नहीं किया गया, तो मणिपुर एक स्थायी जातीय दोष के साथ-साथ एक गहरे खंडित समाज को जन्म दे सकता है।”
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मणिपुर के भू-रणनीतिक महत्व के कारण यहां फैली हिंसा पूरे भारत के लिए ख़तरा
मणिपुर में जारी हिंसा पर काबू पाना न केवल मणिपुर के लिए बल्कि देश के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है। दरअसल म्यांमार की सीमा पर आने के कारण यह प्रदेश हमेशा से ही "मिलिटैंट" और "अलगाववादियों" के लिए “सुरक्षित पनाहगाह” रहा है। इसके अलावा मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में अफीम की खेती के चलते भी यह इलाका ड्रग माफियाओं के निशाने पर रहा है। पिछले कुछ समय से वर्तमान सरकार नशा माफियाओं पर नकेल कसने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही थी। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार हिंसा की आड़ में सीमा पार से असामाजिक तत्व मणिपुर आकर ड्रग तस्करी के कारोबार को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं।
अफीम की खेती और इसके सीमा पार संबंधों के बारे में बात करते हुए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के उत्तर पूर्व भारत के अध्ययन के लिए विशेष केंद्र में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ राखी भट्टाचार्जी आशंका व्यक्त करते हुए कहती हैं कि “यह संभव है कि म्यांमार के ड्रग माफिया हिंसा के मद्देनजर मणिपुर आकर अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने की कोशिश कर रहे हों।” उनका कहना है कि मणिपुर में पैदा की हुई अफीम की कीमत म्यांमार में भारत के मुकाबले तकरीबन दस गुना भाव में बिकती है। म्यांमार में अफीम के बढ़ते अवैध कारोबार और वहां से इसे दूसरे देशों में भेजने के कारण मणिपुर में उत्पादित अफीम का महत्व काफी बढ़ जाता है। यही कारण है कि मणिपुर, माफियाओं की पसंदीदा जगह है। उनका मानना है, “अगर सीमा पार से असामाजिक तत्व मणिपुर में प्रवेश कर ड्रग के गैरकानूनी कारोबार को बढ़ाने में सफल हो जाते हैं तो यह राज्य के लिए बहुत खतरनाक होगा।”
डॉ राखी भट्टाचार्जी मणिपुर की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भू-आर्थिक और भू-सामरिक (Geo-Economic and Geo-Strategic) महत्ता को रेखांकित करते हुए कहती हैं, “चूंकि मणिपुर, म्यांमार से सटा हुआ राज्य है जहां फिलहाल सेना का शासन है। अगर मणिपुर में हिंसा आने वाले समय में नहीं थमती है तो यह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी खतरा पैदा कर सकती है। यदि हालात अस्थिर बने रहते हैं तो यह ड्रग माफियाओं और विद्रोहियों के लिए सुरक्षित पनाहगाह के रूप में काम करेगा, जिस कारण मणिपुर में जो स्थिरता बीते समय में लौटती दिखी थी उस पर अंकुश लग जाएगा और सरकार और नागरिक समाज द्वारा वर्षों की कड़ी मेहनत को नष्ट हो जाएगी।''
राखी भट्टाचार्जी द्वारा उजागर की गई आशंकाओं को सुप्रीम कोर्ट में एनजीओ पीपुल्स अलायंस फॉर पीस एंड प्रोग्रेस (People's Alliance for Peace and Progress) द्वारा दायर याचिका से भी बल मिलता है। सीडीएस ने मणिपुर की हिंसा को “दो जातियों के बीच का संघर्ष” बताया था। उनके इस बयान को खारिज करते हुए उक्त एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और कहा कि सरकार को मणिपुर की हिंसा को सिर्फ “जातीय संघर्ष” के रूप में न देखकर म्यांमार से हो रहे क्रॉस बॉर्डर “नार्को-टेररिज्म” के दृष्टिकोण से भी देखना चाहिए। एनजीओ का कहना है कि म्यांमार देश से “कुकी-मिलिटेंट” भारत में प्रवेश कर मणिपुर में अफीम की खेती को बढ़ावा दे सकते हैं और यह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी खतरा बन सकता है।
हिंसा पर कैसे काबू पाया जाए?
पिछले महीने हुई हिंसा के कारण मैतेई और कुकी-चिन समुदायों के बीच जो खाई पैदा हुई है, उसे पाटना आसान नहीं होगा। मुख्यमंत्री जिस तरह से इस हिंसा को “पक्षपाती” हो कर देख रहे हैं उससे दोनों समुदायों के बीच की खाई का कम होना और मुश्किल होता हुआ नज़र आ रहा है। दूसरी ओर, इस स्तर पर फैली हिंसा और मौतों के कारण दोनों समुदायों में एक दूसरे के प्रति एक तरह का संदेह और अविश्वास पैदा हो गया है। इस कारण भी हिंसा बीते दिनों में कम होने के बजाए बढ़ती देखी गई है और अगर दोनों समुदायों के बीच इस अविश्वास को कम नहीं किया गया तो इस हिंसा पर काबू पाना कठिन होगा।
दोनों समुदायों के बीच पैदा हुए संदेह और अविश्वास को आने वाले समय में काबू में कर ही फैली हुई हिंसा को रोका जा सकता है। इस विषय पर बात करते हुए डॉ राखी भट्टाचार्जी कहती हैं कि “सरकार को हालिया समय में हिंसा के कारण पैदा हुई समस्याओं के पीछे के कारणों और उसके बाद उत्पन्न स्थिति का पूर्ण रूपेण समाधान करने के पहले अभी हालिया संघर्ष के प्रबंधन यानी की (Conflict Management) पर ध्यान देना चाहिए। हिंसा के लिए एक-दूसरे पर दोषारोपण के बजाए सरकार अगर इसके प्रबंधन पर ध्यान देती है तो इस हिंसा को रोका जा सकता है।”
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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