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राज्य की हिंसा पर हमने आंखें क्यों बंद कर ली हैं?

हिंसा केवल तस्वीरों और वीडियो में नहीं होती। राज्य की भी होती है। कानूनों, नीतियों और व्यवहारों के जरिए भी होती हैं। बहुत गहरी होती हैं।
राज्य की हिंसा पर हमने आंखें क्यों बंद कर ली हैं?

हिंसा केवल तस्वीरों और वीडियो में नहीं होती। हिंसा राज्य की भी होती है। बहुत क्रूर होती है। केवल लाठी और डंडों की नहीं होती। बल्कि लाठी और डंडों के बिना भी होती है। कानूनों, व्यवहारों और नीतियों के जरिए होती है।

हम सब की एक अच्छी आदत है। हम तस्वीर और वीडियो की हिंसा देखकर उखड़ पड़ते हैं। द्रवित हो जाते हैं। लेकिन हम सबकी इस अच्छी आदत से ज्यादा गंभीर एक बुरी आदत भी है। जहां लाठी, पत्थर और मारपीट का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। वहां की हिंसा नहीं देखते। जबकि वह हिंसा ज्यादा खतरनाक होती है। ज्यादा गहरी होती है। पूरी जिंदगी बदल देती है या तबाह करते रहती है।

सबको पता है कि ₹5 की पारले जी की बिस्कुट ₹4 में नहीं मिलता है। ₹10 लाख रुपए कि कार ₹5 लाख रुपए में नहीं मिलती है। लेकिन अपनी उपज का वाजिब दाम न मिलने की वजह से 1868 रुपए की धान कोई व्यापारी ₹1 हजार रूपए से कम में खरीद लेता है। किसानों के साथ यह हिंसा सालों साल से चलती आ रही है, जहां भारत की आधी आबादी लगी हुई है।

सालों साल से किसानों को अपनी उपज का दाम नहीं मिल रहा है। राज्य को इसकी पूरी खबर है। लेकिन राज्य और सरकार इसे अनदेखा करते आ रहे हैं। तो इसे क्या कहा जाना चाहिए? क्या इसे हिंसा नहीं कहा जा सकता?

प्रधानमंत्री के वजीफे सहित एक किसान की औसत कमाई महीने की ₹6 हजार है। महीने में ₹6 हजार की कमाई के साथ 5 लोगों का परिवार किस तरीके से जीता होगा? जरा उसके बारे में सोच कर देखिए। क्या क्या इस परिवार के बच्चे पढ़ पाते होंगे? क्या इस परिवार की बच्चियों को संतुलित खाना मिल पाता होगा? क्या इस परिवार की जरूरतें पूरी हो पाती होंगी? क्या यहां पर सालों साल से चली आ रही हिंसा आपको नहीं दिखाई दे रही? झंडा उठाकर देश की सलामी ठोकना गर्व की बात है. लेकिन अपने ही देश में जब हम तक खाना पहुंचाने वाले लोगों की यह दयनीय स्थिति हो जाए और हमें उन्हें उपद्रवी कह कर दिखाया जाए तो क्या यह हमारे लिए शर्मिंदगी की बात नहीं है?

साल 2000 से लेकर 2016 तक अपनी उपज का वाजिब कीमत न मिलने की वजह से किसानों को तकरीबन 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। हर साल तकरीबन आर्थिक तंगी की वजह से 10,000 से अधिक किसान आत्महत्या करते आ रहे हैं। किसानों के मेहनत की कमाई से दूर रख कर उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर किए जाने को क्या कहा जाना चाहिए? क्या इसे हिंसा नहीं कहा जाए? आखिर क्यों सालों साल से चली आ रही ऐसी हिंसा को पूरी तरह से नजरअंदाज कर हम केवल आम जनता के तरफ से अहिंसक विरोध प्रदर्शनों में हुए छिटपुट हिंसा को इतना बड़ा कर देखने के आदी होते जा रहे हैं कि हमारे सामने का सच हमें नहीं दिख पाता?

यह पहली बार नहीं है कि किसान सरकार के सामने आकर उनसे अपने हक के लिए विरोध कर रहे हैं। सालों साल से वाजिब कीमत पाने के लिए किसानों का आंदोलन पूरे देश भर में चलते आ रहा है। कई महीने की तैयारी के बाद पिछले 2 महीने से किसान शांतिपूर्ण तरीके से सरकार से अपनी बात कह रहे थे। जब पूरा देश अपनी रजाइयों में ठंड में गर्माहट की मौज ले रहा था तब दिल्ली के बॉर्डर पर कड़कड़ाती हुई ठंड में किसान अपनी मांग के लिए अहिंसा के साथ डटे हुए थे। इस बीच तकरीबन 160 से अधिक किसानों की विरोध प्रदर्शन में मौत भी हो गई। यह सारी नाइंसाफियों को अनदेखा कर जब मीडिया वालों के भड़काने पर हम भड़क कर मीडिया वालों की तरह ही किसानों को उपद्रवी कहने लगते हैं तो उस समय हम अपनी इंसानियत को शर्मसार कर रहे होते हैं। जब हम लाठी-डंडा-पत्थर लेकर किसानों को मारने निकल पड़ते हैं। तो हम अपने इंसानियत को मार रहे होते है।

26 जनवरी को क्या हुआ? आजादी के बाद दिल्ली में पहली बार इतनी अधिक तिरंगे दिखे जितने आज तक नहीं दिखे थे। किसानों ने अभूतपूर्व शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया। राजपथ पर होने वाली जवान की परेड के साथ दिल्ली में किसानों की परेड हुई। इन सभी अद्भुत और शानदार लम्हों को छोड़कर मीडिया कैमरे ने लाल किले पर धार्मिक झंडा फहराते हुए कुछ किसानों की झुंड को दिखा दिया है। यह नहीं दिखाया कि वहां मौजूद पुलिस ने ऐसा होने क्यों दिया। उसके बाद यह मीडिया ने यह नैरेटिव बनाया कि उपद्रवियों और खालिस्तानियों ने मिलकर देश की गरिमा पर प्रहार कर दिया। जैसा कि सभी जागरूक नागरिक को दिखता है कि मीडिया मौजूदा सरकार के इशारे पर काम करती है, ठीक वैसा ही मीडिया कर रही थी। सरकार का बड़े होते विरोध प्रदर्शनों को दबाने का यह तरीका है कि किसी भी तरह से सामाजिक भेदभाव की दीवार खड़ी कर दी जाए। मीडिया इसे पूरे देश भर में दिखा दे। जन भावनाएं सरकार के पक्ष में मोड़ दी जाए और विरोध प्रदर्शन को सरकारी बल से कुचल दिया जाए।

अभूतपूर्व परेड के साथ किसान नेताओं ने हिंसा की भी नैतिक जिम्मेदारी ली। जैसा कि कोई नहीं करता। भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री ने तो आज तक यह कभी नहीं किया। लेकिन होता क्या है?  नागरिकता संशोधन कानून में शांति और सद्भाव के पक्ष में जुड़े हुए लोगो की तरह किसान नेताओं पर भी राज्य की कार्यवाही होती है। सब पर एफ आई आर दर्ज कर दी जाती है। लुकआउट का नोटिस जारी कर दिया जाता है। इसके अलावा सरकार भाड़े के गुंडे भिजवाकर बॉर्डर पर मौजूद किसानों पर लाठी पत्थर का इस्तेमाल आंदोलन खत्म करने के लिए करवाती है। इन सब में मीडिया सरकार का पूरी तरह से साथ देती है। क्या इसे राज्य और सरकार की हिंसा नहीं कहा जाना चाहिए?

शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात रख रहे किसानों पर सरकार ने हर तरह से हमला किया है। पुलिस की मौजूदगी में बिना किसी रोक-टोक के लाठी और पत्थर चलाकर आंदोलनकारियों को विभाग तरीके से खूब मारा पीटा गया है। इन सब के वीडियो उपलब्ध हैं। लेकिन इन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। इन्हें खुली छूट मिली हुई है। उल्टे जो शांतिपूर्वक अपनी बात कह रहे हैं, सरकार और मीडिया मिलकर उन्हें खलनायक बताने में लगी हुई है. क्या यह राज्य और सरकार की हिंसा नहीं है? एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर क्या इसे नहीं महसूस किया जाना चाहिए?

कोई यह भी कह सकता है कि सरकार ने किसानों से बार-बार बात की, लेकिन किसानों ने भी तो बात नहीं मानी? यह बोलते वक्त वह यह नहीं बताता है कि किसानों की शुरू से मांग थी कि तीनों कृषि कानूनों की आत्मा ही किसानों के हक में नहीं है। इसलिए सरकार इसे वापस ले और एमएसपी की लीगल गारंटी दे। किसान शुरू से ही यह बात कहते आ रहे हैं। लेकिन सरकार उन्हें बात करने के नाम पर बरगला रही थी। आप यह भी कह सकते हैं कि सालों साल से किसानों के साथ चली आ रही सरकारी हिंसा के साथ सरकार की बातचीत का रवैया जोड़ दिया जाए तो यह हिंसा के साथ प्रताड़ित करने वाली बात हो जाएगी। लेकिन जनता पता नहीं क्यों इसे नहीं देखना चाहती? इस पर नहीं बोलना चाहती है?

सरकार और मीडिया की भाषा देखिए। 26 जनवरी की झंडा फहराने वाली दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद सरकार और मीडिया की दयनीय भाषा व्यवस्था बनाने में नहीं बल्कि समाज को बांटने के काम में लगी हुई दिखेगी। ऐसी भाषा जो असहमति को कुचलने के लिए निकल रही हो। ऐसी भाषा जिसमें संवैधानिक मूल्यों की सीधे-सीधे हत्या की जा रही हो। ऐसी भाषा जिसने किसानों के वैध हक को उपद्रवियों की तरह पेश करने का काम कर रही थी। ऐसी भाषा जिसकी आड़ में पूंजीपतियों से शोषित हो रहा समाज नहीं दिखता है। ऐसी भाषा जिसका इस्तेमाल में मरी हुई सरकारी संस्थाएं नहीं दिखती हैं, जिन्हें नागरिकों के जायज हक को सुनने और सुलझाने के लिए बनाया गया था। ऐसी भाषा जहां झूठी भावुकता पैदा कर किसानों और आम जनता के हक को मारा जाता है। किसान आंदोलन को कुचलने के नाम पर सरकार और मीडिया की तरफ से यह सब हो हो रहा है। जहां से जायज बातें आ रही हैं, वह जगहें इंटरनेट से जुड़े कुछ प्लेटफार्म हैं। अब इन्हें बंद करने के लिए सरकार ने दिल्ली के बॉर्डर के इलाकों से इंटरनेट भी बंद कर दिया है। क्या एक नागरिक के तौर पर हमारा यह हक नहीं बनता कि हम राज्य और सरकार के इस हिंसक रवैये को भी देखें?

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