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पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना (EIA) मसौदे का विरोध क्यों किया जाना चाहिए?

मोदी सरकार के साथ दिक्कत है कि यह पर्यावरण को सहयोगी के तौर पर नहीं बल्कि विकास के बाधक के रूप में देखती है। पर्यावरण प्रभाव आकलन, 2020 अधिसूचना मसौदा भी कुछ ऐसा है। यह औद्योगिक परियोजनाओं के लिये पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रियाओं को संचालित करने वाले नियमों को कमजोर करता है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर

विकास का मतलब केवल जीडीपी ग्रोथ, रुपया, पैसा, सड़क, बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल नहीं है बल्कि विकास का मतलब इन सबके साथ उस जिम्मेदारी का भी अहसास है जो इस पृथ्वी पर एक दूसरे को खुश रखते हुए जीने के लिए जरूरी है। इस लिहाज से विकास के साथ सबसे पहले प्रकृति का स्वाभाविक तौर पर जुड़ाव हो जाता है। यानी सड़क, बिजली, पानी के साथ अगर पेड़-पौधे ना हो, स्कूल और अस्पताल के साथ अगर बेहतर सेहत के साथ रहने वाला माहौल ना हो तो विकास अर्थहीन है।

भाजपा का विकास भी कुछ ऐसा ही है जिसमें पर्यावरण को सहयोग की तौर पर नहीं बल्कि विकास में बाधा के तौर पर देखा जाता है। साल 2014 के बाद सत्ता संभालने वाली भाजपा के मंत्रियों के कई ऐसे बयान हैं जो पर्यावरण को दोयम दर्जे से देखते हैं और खुलकर कहते हैं कि पर्यावरण से जुड़े नियम कानून विकास में बाधा की तरह काम करते हैं।

विकास की यात्रा में पड़ रही इसी बाधा यानी रुकावट को दूर करने के लिए भाजपा सरकार ने पर्यावरण प्रभाव आकलन यानी इन्वायरमेंट इंपैक्ट असेसमेंट का नियम बदल कर एक नया ड्राफ्ट तैयार किया है। इस ड्राफ्ट का पर्यावरण कार्यकर्ताओं, पर्यावरण जानकारों, पब्लिक पॉलिसी निर्माताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा जमकर विरोध किया जा रहा है।

जैसा कि नाम से ही साफ है एनवायरमेंटल इंपैक्ट असेसमेंट यानी ऐसा मूल्यांकन जो पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव को बताता है। आजादी के बाद बहुत लंबे समय तक पर्यावरण पर ज्यादा गौर नहीं किया गया। इंदिरा गांधी की सरकार कई मामलों में बदनाम रही लेकिन साल 1986 में इंदिरा गांधी की सरकार ने एनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एक्ट 1986 पास किया। इसी कानून के जरिए एनवायरमेंटल इंपैक्ट असेसमेंट से जुड़े प्रावधान आते हैं।

साल 1994 में एनवायरमेंटल इंपैक्ट असेसमेंट से जुड़े नियम पहली बार सामने आए। उसके बाद इन नियमों में साल 2020 में फेरबदल होने जा रहा है। इसलिए आगे बढ़ने से पहले यह ध्यान में रखना चाहिए कि एनवायरनमेंट से जुड़े कानून में बदलाव होने नहीं जा रहा है बल्कि एनवायरमेंट इंपैक्ट असेसमेंट से जुड़े रूल्स यानी नियम में बदलाव होने जा रहा है। इसे बदलने के लिए किसी संसद की मत की जरूरत नहीं पड़ेगी बल्कि सरकार गजट में एक नोटिफिकेशन के साथ ही इसे बदल देगी।

आसान भाषा में कहा जाए तो किसी तरह के कल कारखाने, पॉवर प्रोजेक्ट, खनन, इंफ्रास्ट्रक्चर, रियल एस्टेट से जुड़े प्रोजेक्ट लगाने पर वहां के पर्यावरण पर भी प्रभाव पड़ता है। प्रभाव का मूल्यांकन करने के बाद ही कल कारखाने लगाने, कल कारखाने के तौर तरीके में बदलाव करने और कल कारखाने ना लगाने जैसी सरकारी इजाजतें दी जाती है। इन इजाजतों से जुड़े सरकारी नियम में बदलाव होने जा रहा है और इस बदलाव का जमकर विरोध किया जा रहा है।

इस विरोध के कई पहलू हैं। चलिए उन सब पर चर्चा करते हैं। सबसे बड़ा विरोध पोस्ट फैक्टो क्लीयरेंस से जुड़े नियम पर है।

इसका मतलब है की प्रोजेक्ट लगाने के बाद भी एनवायरमेंट इंपैक्ट से जुड़े सरकारी इजाजत की अर्जी लगाई जा सकती है। यानी बिना यह जाने और बताएं की आसपास के जल, जमीन, हवा पेड़, पौधों जैसे पर्यावरणीय पहलुओं पर कल कारखाने का क्या प्रभाव पड़ेगा कोई इंडस्ट्रियल प्रोजेक्ट लगाया जा सकता है।

इस पहलू पर न्यूज़क्लिक से बात करते हुए मंथन संगठन के पर्यावरण कार्यकर्ता श्रीपद धर्माधिकारी ने बताया कि सरकार यह कह रही है कि पर्यावरणीय पहलुओं का अतिक्रमण होने के बाद भी अगर कोई environment clearance मांगता है तो उसे एनवायरमेंट क्लीयरेंस दे दिया जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि नुकसान होने के बाद भी मंजूरी मिल जाएगी। पहले नियम यह था कि प्रोजेक्ट शुरू होने के 6 महीने के अंदर एनवायरमेंट क्लीयरेंस ले लेना जरूरी था। इसका फायदा यह था कि अगर प्रोजेक्ट की वजह से पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है तो प्रोजेक्ट में  इस तरह का फेरबदल किया जाए कि नुकसान ना हो। अब 6 महीने की अवधि को हटा दिया गया है और यह लिख दिया गया है कि प्रोजेक्ट शुरुआत के बाद में आने वाले पर्यावरण क्लीयरेंस को भी क्लीयरेंस दे दी जाएगी।

यह ठीक है ऐसे ही है जैसे कर चोरी करने वालों के लिए सरकार यह नियम बनाती है कुछ दिनों के अंदर कर वापस कर दीजिए तो कोई दंड नहीं दिया जाएगा। लेकिन जरा सोचिए जब कुछ दिन को हटाकर कर को लौटाने वाला सरकारी विज्ञापन छपे तो क्या इसका कोई फायदा होगा? इसका तो यह मतलब हुआ कि आप जो मर्जी सो कीजिए। जब भी आपको गलत लगे तो सरकार के पास चले जाइए सरकार बिना दंड दिए क्लीयरेंस दे देगी और फिर जो आपको करना है करते रहिए।

हिमालय की तलहटी में काम करने कर रहे पर्यावरण कार्यकर्ता अखिलेश कुमार कहते हैं कि किसी उद्योग, कल कारखाने, द्वारा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की ज्यादा शिकायतें नागरिकों की तरफ से आती रही हैं। जैसे किसी ने जा कर कह दिया कि मेरे शहर के शुगर मिल का धुंआ हवाओं को जानलेवा बना रहा है। इस पर कार्यवाही की जाए। नागरिकों द्वारा लगाई जाने वाली इस अर्जी के अधिकार को नए नियमों से हटा दिया गया है। अब केवल कल कारखाने से जुड़ा कर्मचारी और सरकार का अधिकारी ही पर्यावरण उल्लंघन से जुड़े शिकायतें दर्ज कर सकते हैं। नागरिकों की निगरानी को नए नियम से हटा दिया गया है।

श्रीपद धर्माधिकारी अपनी बात रखते हुए कहते हैं कि पर्यावरण से जुड़े नियम का उल्लंघन करने पर दंड के तौर पर फाइन लगाया जाता है। फाइन लगाने का सिद्धांत ऐसा होना चाहिए ताकि उद्योग के मालिक से वाजिब पैसा वसूला जा सके। इस सिद्धांत को ताक पर रखकर ऐसा नियम बनाया गया है जिसमें मालिक ही एक रेगुलेटरी बॉडी बनाएगा। इस रेगुलेटरी बॉडी में बैठे  एक्सपर्ट ही यह तय करेंगे की अमुक साल में पर्यावरण का कितना नुकसान हुआ है और कितना पैसा सरकार को नुकसान की भरपाई के लिए देना चाहिए। अगर ऐसा नियम है तो कोई भी समझ सकता है कि मालिक के रहम पर चलने वाली रेगुलेटरी कमेटी किसके लिए काम करेगी।

Environment impact assessment तय करने के लिए जनता की भागीदारी भी होती है। जिस जगह प्रोजेक्ट लगाया जाता है, उस जगह की स्थानीय जनता से प्रोजेक्ट की शुरुआत में यह पूछना होता है कि प्रोजेक्ट लगाने पर आसपास के पर्यावरण और माहौल पर कैसा प्रभाव पड़ेगा?

 नए वाले ड्राफ्ट में इस नियम को पूरी तरह से कमजोर कर दिया गया है। कई सारे मामलों में तो जनता की भागीदारी की जरूरत ही नहीं है। जैसे अगर पहले से मौजूद प्रोजेक्ट का एक्सपेंशन 50% से कम का किया जा रहा है तो उस प्रोजेक्ट के लिए ना ही एनवायरमेंट इंपैक्ट असेसमेंट की जरूरत है और ना ही पब्लिक पार्टिसिपेशन की। अगर प्रोजेक्ट सरकार द्वारा घोषित किया गया स्ट्रैटेजिक महत्व का प्रोजेक्ट है तब भी पब्लिक पार्टिसिपेशन की जरूरत नहीं है।

कुछ मामले में अगर पब्लिक पार्टिसिपेशन की जरूरत को रखा भी गया है तो यह कहा गया है की प्रोजेक्ट के सबसे अंतिम पड़ाव पर भी स्थानीय जनता से प्रोजेक्ट से पड़ने वाले प्रभाव के बारे में पूछा जा सकता है। इसके लिए पहले 30 दिन का प्रावधान था। यानी 30 दिन मिलते थे, जिसके भीतर स्थानीय जनता प्रोजेक्ट के पहलुओं पर बातचीत करते थे, अब इसे कम करके 20 दिन कर दिया गया है।

यह प्रावधान बहुत जरूरी है लेकिन पहले भी इसे अच्छी तरह से लागू नहीं किया जाता था और अब तो इस प्रावधान को ही कमजोर कर दिया गया है। पहले अफसरों को पैसा खिलाकर स्थानीय गुंडों को झंडा पकड़ा कर कंपनियां पब्लिक पार्टिसिपेशन का काम कर देती थी लेकिन पब्लिक पार्टिसिपेशन में एनवायरनमेंट एक्टिविस्ट भी जुड़े होते थे तो उनकी वजह से बहुत सारे प्रोजेक्ट पर लगाम लग जाती थी। अब इस नए नियम में यह प्रावधान कर दिया गया है कि केवल स्थानीय जनता ही पब्लिक पार्टिसिपेशन से जुड़े एनवायरमेंट इंपैक्ट असेसमेंट में शामिल होगी। जो लोग प्रोजेक्ट की वजह से सीधे प्रभावित नहीं हो रहे हैं उनकी भागीदारी पब्लिक पार्टिसिपेशन मे नहीं होगी।

इसका मतलब है कि अंग्रेजी में सरकारी अफसर गांव के लोगों को कुछ भी थमा कर चला जाएगा उस पर बातचीत भी हो जाएगी लेकिन पर्यावरण कार्यकर्ताओं के राय की कोई महत्व नहीं होगी। इस तरह से environment impact assessment से पब्लिक पार्टिसिपेशन के प्रावधान को भी कमजोर कर दिया गया है।

एक बार एनवायरमेंट क्लीयरेंस मिल जाने के बाद यह क्लियरेंस एक तयशुदा अवधि तक काम करता है। अब इस अवधि को भी नए नियम के तहत बढ़ा दिया गया है। जैसे रिवर वैली प्रोजेक्ट के लिए मिला एनवायरनमेंट क्लीयरेंस 10 साल के लिए वैलिड होता था। अब इसे 15 साल कर दिया गया है। कोयला खनन से जुड़ा एनवायरमेंट क्लीयरेंस 30 साल का होता था अब इसे 50 साल के लिए कर दिया गया है। सोचिए इतनी बड़ी अवधि में एक प्रोजेक्ट और उसके भूगोल में कितना बड़ा परिवर्तन हो जाता है तो क्या इतनी बड़ी अवधि के लिए मिला एनवायरमेंट क्लीयरेंस जायज है?

इन सबके अलावा विरोध का सबसे बड़ा कारण है स्ट्रैटेजिक महत्त्व के काम। सरकार का साफ कहना है कि जो उद्यम या काम स्ट्रैटेजिक महत्व के होंगे उनके लिए एनवायरमेंट इंपैक्ट असेसमेंट की कोई जरूरत नहीं है। अब यह स्ट्रैटेजिक महत्व के उद्यम क्या होंगे इसका निर्धारण सरकार करेगी। सिद्धांत के तौर पर तो देश के अति महत्वपूर्ण क्षेत्र स्ट्रैटेजिक महत्व के क्षेत्र माने जाते हैं। लेकिन अगर सरकार के पास यह तय करने की शक्ति है कि क्या स्ट्रैटेजिक होगा और क्या नहीं होगा तो बात साफ है कि सरकार जिसे चाहे उसे एस्टेजिक बता सकती है और उसे एनवायरमेंट इंपैक्ट असेसमेंट के नियमों से छुटकारा मिल सकता है।

कहने का मतलब यह है कि प्रस्तावित किए गए नए एनवायरमेंटल इंपैक्ट असेसमेंट के ड्राफ्ट में छेद ही छेद है। इतने छेद कि वकीलों के लिए आसानी से इसमें छलनी ढूंढी जा सकती है और किसी भी कल कारखाने को एनवायरनमेंट इंपैक्ट असेसमेंट जैसे नियमों से छुटकारा दिलाया जा सकता है। अगर प्रकृति को लेकर सरकार का ऐसा रूप है तो विरोध प्रदर्शन भी जायज है।

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