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क्या कृषि कानूनों को लेकर हो रहे विरोध को सरकार नज़रअंदाज़ कर पाएगी?

जानकारों का मानना है कि सरकार अपनी नीतियों में बदलाव तभी करेगी कि जब यह विरोध वोटों में तब्दील होने लगे। फिलहाल बिहार और बंगाल चुनाव के साथ कई राज्यों में उपचुनाव सामने हैं। इन्हें किसान राजनीति का लिटमस टेस्ट भी मान सकते हैं।
कृषि कानूनों को लेकर हो रहे विरोध
Image courtesy: The Indian Express

कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने केन्द्र सरकार को आड़े हाथों लेते हुये कहा है कि नये कृषि कानूनों की आड़ में खरीद सिस्टम को दुरूस्त करने के बजाय इसे नष्ट किया जा रहा है जिसका बुरा असर किसानों पर ही नहीं बल्कि पूरे देश पर पड़ेगा।

तीन दिन की खेती बचाओ यात्रा के दूसरे दिन सोमवार को राहुल ने बरनाला चौक पर रैली को संबोधित करते हुये कहा कि मोदी सरकार को सत्ता पर काबिज हुये छह साल हो गये और यह सरकार गरीब, किसान और मजदूर विरोधी नीतियां बनाकर इन पर लगातार हमले कर रही है। अब नीतियां इनकी मदद के लिये नहीं बल्कि कुछ गिने चुने औद्योगिक घरानों के लिये बनायी जा रही हैं।

इससे पहले रविवार को भी राहुल गांधी ने केंद्र सरकार पर निशाना साधते हुए सवाल किया कि अगर ये अधिनियम किसानों के लिए हैं तो वे लोग विरोध क्यों कर रहे हैं? गांधी ने कहा कि अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो इन विवादित कानूनों को निरस्त कर दिया जाएगा। उन्होंने पूछा कि कोरोना वायरस महामारी के दौरान इन कानूनों को लागू करने की ऐसी क्या 'जल्दी' और जरूरत थी।

राहुल ने कहा कि प्रधानमंत्री कहते हैं कि किसानों के लिए कानून बनाए जा रहे हैं। अगर कानून किसानों के लिए बनाए जा रहे हैं तो फिर आपने लोकसभा और राज्यसभा में चर्चा क्यों नहीं की?

पंजाब का हर किसान आंदोलन क्यों कर रहा है? किसानों को आशंका है कि केंद्र द्वारा किए जा रहे कृषि सुधारों से न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को समाप्त करने का रास्ता साफ होगा और वे बड़ी कंपनियों की ‘दया’ पर आश्रित रह जाएंगे।

गौरतलब है कि हाल ही में संपन्न मानसून सत्र में संसद ने कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधा) विधेयक-2020 और कृषक (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन समझौता और कृषि सेवा पर करार विधेयक-2020 को मंजूरी दी। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 27 सितंबर को इन विधेयकों को स्वीकृति प्रदान कर दी, जिसके बाद ये कानून बन गए।

किसानों ने बढ़ाया 'रेल रोको आंदोलन'

वहीं, दूसरी ओर पंजाब में किसान-मजदूर सोमवार को भी रेल ट्रैक पर डटे रहे। प्रदेश में कई जगहों पर रेलवे ट्रैक पर धरना दे रहे किसान-मजदूरों ने इससे पहले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और राज्यपाल वीपी सिंह बदनौर के पुतले फूंके हैं। प्रदर्शनरत किसानों का कहना है कि अगर सरकार न मानी तो वे दशहरा और दीपावली भी रेल की पटरियों पर मनाएंगे।

किसान-मजदूर संघर्ष कमेटी के महासचिव सरवन सिंह पंधेर ने एलान किया कि अब उनका धरना 8 अक्तूबर तक जारी रहेगा। अमृतसर के जंडियाला गुरु के गांव देवीदासपुर के पास ट्रैक पर धरने पर बैठे किसान-मजदूर संघर्ष कमेटी के सैकड़ों सदस्यों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का पुतला फूंककर मोदी सरकार के खिलाफ नारेबाजी की।

पंजाब में किसानों के 31 संगठन साझे तौर पर रेलवे ट्रैक पर धरना दे रहे हैं। इसके अलावा पेट्रोल पंपों व टोल प्लाजा पर भी धरना दिया जा रहा है। मोहन भागवत का पुतला फूंकने के सवाल पर पंधेर ने कहा कि आरएसएस मोदी सरकार को रिमोट कंट्रोल से चला रहा है। आरएसएस प्रमुख को मोदी सरकार पर दबाव डालना चाहिए कि इस कानून को वापस लिया जाए।

उन्होंने कहा कि भाजपा के जो नेता बातचीत का न्योता दे रहे हैं, उनका केंद्र सरकार से कोई नाता नहीं है। ये नेता किसानों के बीच भ्रम पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। भाजपा को अगर किसानों की चिंता है तो वह मोदी को कानून रद्द करने के लिए कहें।

क्या सरकार झेल पाएगी यह विरोध?

गौरतलब है कि केंद्र सरकार द्वारा कृषि विधेयक के लोकसभा और राज्यसभा में पारित किए जाने के बाद से ही देशभर में किसान इसके विरोध में प्रर्दशन कर रहे हैं। यह प्रदर्शन उत्तर भारत से शुरू हुआ और धीरे धीरे दक्षिण भारत के राज्यों में फैल गया है। फिलहाल हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश इसका गढ़ बना हुआ है। आपको यह भी याद दिला दें कि देश भर के 250 किसान संगठनों की अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआइकेएससीसी) ने 25 सिंतबर को भारत बंद का आह्वान किया तो पूरे देश में प्रदर्शनों की बाढ़ आ गई थी।

इस प्रदर्शन को मजदूरों यूनियनों समेत विपक्षी पार्टियों का भी पूरा समर्थन मिल रहा है। गौरतलब है कि नए कानूनों को सरकार लंबे समय से लंबित सुधार बता रही है लेकिन किसानों को इस बात को लेकर चिंता है कि यदि ये कानून लागू किया जाता है तो एपीएमसी (कृषि उपज विपणन समितियों) और एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) व्यवस्था खत्म हो जाएगी।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या सरकार यह विरोध झेल पाएगी? या फिर क्या सरकार किसानों के विरोध और दूसरी राजनैतिक पार्टियों के दबाव में न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने का कोई कानून लाएगी? फिलहाल तो केंद्र सरकार में कृषि मंत्री कहते हैं कि एमएसपी कभी कानूनी था ही नहीं, यह प्रशासनिक फैसला रहा है और अब भी है।

बहरहाल, इन सवालों का जवाब भविष्य के गर्भ में हैं। हालांकि कई राज्यों में चुनावों के मद्देनजर फेरबदल की संभवना हो सकती है लेकिन शायद यह तभी हो जब विरोध बढ़े और चुनावों में इसका असर दिखे। अभी हाल फिलहाल बिहार में विधानसभा चुनाव है। आपको याद दिला दें कि इसके पहले 2015 में बिहार चुनावों के पहले भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश को छोड़ दिया गया था।

इसी तरह गुजरात में खराब प्रदर्शन और राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में सत्ता गंवाने के बाद सरकार ने किसान सम्मान निधि की घोषणा की थी। ऐसे में जानकारों का यही मानना है कि सिर्फ प्रदर्शन से सरकार पर फर्क नहीं पड़ने वाला है। सरकार अपनी नीतियों में बदलाव तभी करेगी कि जब यह विरोध वोटों में तब्दील होने लगे। फिलहाल बिहार और बंगाल चुनाव के साथ कई राज्यों में उपचुनाव सामने हैं। इन्हें किसान राजनीति का लिटमस टेस्ट भी मान सकते हैं।

( समाचार एजेंसी भाषा के इनपुट के साथ )  

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