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क्या विपक्ष पूर्वोत्तर के चुनावों से ज़रूरी सबक़ लेगा ?

अल्पसंख्यकों और आदिवासियों में भाजपा के प्रति बढ़ते समर्थन का मोदी जी का दावा गढ़ा हुआ नैरेटिव है
Northeast

पूर्वोत्तर के तीन राज्यों त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड की विधानसभाओं और कई राज्यों में उपचुनावों के साथ 2024 के फैसलाकुन चुनावों के लिए दुंदुभी बज चुकी है।

वैसे तो ये तीनों छोटे राज्य थे और लोकसभा की कुल जमा 5 सीटें ( त्रिपुरा 2, मेघालय 2, नागालैंड 1 ) इन 3 राज्यों से आती हैं तथा अलग ऐतिहासिक राजनीतिक पृष्ठभूमि और विशिष्ट सामाजिक संरचना के कारण नॉर्थ ईस्ट की राजनीति का अलग पैटर्न भी रहा है, ( त्रिपुरा व असम बेशक कुछ अर्थों में इसका अपवाद रहे हैं), इसलिए इन चुनाव नतीजों को पूरे देश के लिए generalise करके इनसे 2024 के लिए कोई sweeping निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता, जैसा गोदी मीडिया के चैनल रात-दिन कर रहे हैं और स्वयं प्रधानमंत्री ने जिस तरह पार्टी मुख्यालय में जश्न मनाते हुए चुनाव से निकलने वाला सन्देश सुना दिए, " 2024 में क्या होगा, यह उसकी प्रस्तावना है ! "

दरअसल भाजपा HQ में प्रधानमंत्री का भाषण चुनाव नतीजों के बहाने फर्जी नैरेटिव गढ़ने का क्लासिक उदाहरण है, जो मोदी-राज में पिछले 9 साल से चल रहा है।

पहले तो मोदी ने कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे द्वारा इन्हें छोटे राज्य कहने ( खड़गे ने कहा था-  "ये छोटे राज्य हैं। यहां जीत-हार से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। " ) को ही मुद्दा बना दिया और अद्भुत बाजीगरी दिखाते हुए उसे कथित छोटे लोगों के अपमान से जोड़ दिया। (ठीक वैसे ही जैसे मणिशंकर अय्यर द्वारा कहे गए नीच शब्द को कथित नीच जाति के अपमान से जोड़ दिया था।)। 

फिर उन्होंने इस मौके का इस्तेमाल victim card खेलने और विपक्ष के खिलाफ नफरत भड़काने के लिए किया-" जब कुछ लोग मोदी की कब्र खोदने की ख्वाहिश कर रहे हैं, जहाँ मौका पड़ता है कमल खिल ही जा रहा है। कुछ लोग बेईमानी भी कट्टरता से करते हैं। ये कट्टर लोग कहते हैं ' मर जा मोदी ' पर देश कह रहा है ' मत जा मोदी '।"

उन्होंने इन नतीजों के आधार पर यह घोषणा कर दी कि विपक्ष द्वारा प्रचारित myth को ध्वस्त करते हुए अल्पसंख्यक बहुल मेघालय और नगालैंड के नतीजों से साबित हो गया कि  अल्पसंख्यक भाजपा के साथ हैं। यह नया नैरेटिव गढ़ते हुए 'उत्साहित' मोदी ने  भविष्यवाणी कर दी कि गोवा और नॉर्थ ईस्ट की तरह केरल में भी भाजपा सरकार बनेगी! जबकि हकीकत यह है कि मेघालय में स्वयं मोदी, शाह और नड्डा के धुआंधार प्रचार के बावजूद भाजपा को महज दो सीटें मिली हैं, उससे अधिक 4 सीटें तो कांग्रेस को मिली हैं !

नगालैंड में राजनीति के अजब-गजब चरित्र को इस बात से समझा जा सकता है कि जहां क्षेत्रीय पार्टी NDPP को 25 सीटें मिली हैं, वहीं  शरद पवार की एनसीपी को 7, लोक जन शक्ति पार्टी ( राम विलास पासवान ) और अठावले की रिपब्लिकन पार्टी को 2-2 सीटें मिली हैं, इन्हीं सब के बीच भाजपा को भी 12 सीट मिली हैं।

जाहिर है इन दोनों राज्यों में अल्पसंख्यकों के बीच अपने लिए किसी बड़े समर्थन के बल पर नहीं, बल्कि वशिष्ट परिस्थितियों में उभरे मजबूत क्षेत्रीय दलों की पीठ पर सवार होकर भाजपा सत्ता तक पहुँची है। त्रिपुरा में तो बड़ी रिलीजियस माइनॉरिटी वाला phenomenon उस तरह है ही नहीं।

ठीक ऐसा ही निष्कर्ष उन्होंने आदिवासियों के बारे में भी पेश कर दिया। गुजरात से जोड़ते हुए उन्होंने नॉर्थ ईस्ट के नतीजों के आधार पर घोषणा कर दी कि आदिवासी भाजपा के साथ होते जा रहे हैं। सच्चाई यह है कि overwhelming आदिवासी बहुसंख्या वाले मेघालय में तो इन्हें मात्र 2 सीटें मिलीं ही, त्रिपुरा में भी वे न्यूनतम बहुमत पाने में जरूर सफल हो गए पर आदिवासी क्षेत्र में उनकी सीटें और वोट घट गया। नई आदिवासी पार्टी TMP को जो 13 सीटें मिलीं, वे मुख्यतः भाजपा-IPFT गठजोड़ की कीमत पर ही मिलीं। भाजपा 8 सीटें आदिवासी पार्टी टिपरा मोथा से हार गई। भाजपा की सहयोगी आदिवासी पार्टी की सीट 8 से घटकर 1 रह गयी। भाजपा के सबसे प्रमुख आदिवासी चेहरा उपमुख्यमंत्री जिष्णुदेव बर्मन मोथा के सुबोधदेव बर्मन से हार गए। मोदी जी के दावे के विपरीत यह सब आदिवासियों के भाजपा से जुड़ने नहीं, बल्कि उससे बढ़ते अलगाव का प्रतीक है। टिपरा मोथा के शीर्ष नेता ने भाजपा को चेतावनी भी दे दी कि " त्रिपुरा की 35% आदिवासी आबादी की वह उपेक्षा नहीं कर सकती। " त्रिपुरा में भाजपा गठबंधन के वोट में 10% से अधिक और सीटों में 10 की गिरावट हुई है।

वैसे त्रिपुरा में कुल मिलाकर टिपरा मोथा ( TMP ) ने भाजपा विरोधी विपक्षी वोटों को विभाजित करके भाजपा को लाभ पहुंचाया और वह एन्टी- इंकम्बेंसी को बीट करने में सफल रही। मोथा की अलग आदिवासी राज्य की मांग ने भी सम्भवतः त्रिपुरा के विभाजन की मांग के खिलाफ गैर-आदिवासी sentiment कुछ हद तक भाजपा की ओर मोड़कर उसे परोक्ष लाभ पहुंचाया।

जाहिर है इन परिणामों से यह निष्कर्ष निकालना कि अल्पसंख्यकों और आदिवासियों में बीजेपी की पैठ बहुत बढ़ती जा रही है और ये परिणाम 2024 के लिए  संकेत हैं कि जनता चाहती है कि "मोदी मत जा।", यह तथ्यों की अनदेखी करके गढ़ा गया फर्जी नैरेटिव है जिसका उद्देश्य जनता की आंख में धूल झोंकना है।

पर तीनों राज्यों में विशेषकर त्रिपुरा में घटे हुए बहुमत के साथ ही सही, भाजपा के पुनः सत्तारूढ़ होने के अहम सन्देश तो हैं ही, जिनकी उपेक्षा विपक्ष अपने विनाश की कीमत पर ही कर सकता है। सीमावर्ती संवेदनशील अल्पसंख्यक, आदिवासी बहुल पूर्वोत्तर भारत में बहुसंख्यकवादी फासीवादी पार्टी की बढ़ती घुसपैठ दूरगामी दृष्टि से राष्ट्रीय एकता और धर्मनिरपेक्ष-लोकतान्त्रिक राष्ट्र- निर्माण के लिए खतरे की घण्टी है। 

यह सचमुच चिंताजनक है कि नार्थ ईस्ट के इन तीन राज्यों को छोटा राज्य बताकर कांग्रेस अपनी हार को महत्वहीन दिखाना चाह रही है। शायद इसी सोच का नतीजा है कि त्रिपुरा में जहां फासीवाद राज्य दमन के खिलाफ लोकतन्त्र के restoration के लिए इतनी तीखी लड़ाई चल रही थी, वहाँ भारत-यात्री राहुल गांधी समेत कोई शीर्ष कांग्रेस नेता प्रचार के लिये गए ही नहीं !

बहरहाल, 2023 के चुनावों के इस पहले राउंड की कहानी कई राज्यों में हुए उपचुनावों के नतीजों के विश्लेषण के बिना न सिर्फ अधूरी है, बल्कि misleading भी है। गोदी मीडिया के प्रोपेगंडा से भले सचेतन ढंग से गायब हो, लेकिन पुणे के ब्राह्मण बहुल कस्बा पेठ ( यहाँ ब्राह्मण आबादी 30% है ) से 35 साल बाद भाजपा को हराकर कांग्रेस की जीत के दूरगामी संकेत हैं। ज्ञातव्य है कि लोकमान्य तिलक के वंशज भाजपा विधायक के निधन से खाली सीट पर यह उपचुनाव हो रहा था। दोनों दलों ने गैर-ब्राह्मणों को टिकट दिया लेकिन ऐसा लगता है कि नाराज ब्राह्मणों के समर्थन से कांग्रेस ने भाजपा को पटखनी दे दी। क्या यह शिवसेना को तोड़कर तख्ता पलट करने वाली भाजपा और उसकी गठबंधन सरकार के खिलाफ बढ़ते जनाक्रोश और MVA के प्रति मराठी मानुष के बढ़ते समर्थन का संकेत है ? अगर ऐसा है तो इसके न सिर्फ महाराष्ट्र के लिए बल्कि 2024   के लिए अहम निहितार्थ हैं।

इसी तरह पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले की सागरदीघी सीट पर जहां 63% मुस्लिम आबादी है, जिस तरह TMC उम्मीदवार,ममता बनर्जी के रिश्तेदार देवाशीष बनर्जी को वाम समर्थित कांग्रेस उम्मीदवार ने 22 हजार की comfortable margin से हरा दिया, वह ममता बनर्जी के लिए जबरदस्त धक्का माना जा रहा है। वहां ममता बनर्जी और उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी ने भी जमकर प्रचार किया था। ज्ञातव्य है कि 2021 में TMC ने उसी सीट पर 50% से ऊपर वोट हासिल कर 50 हजार से अधिक मार्जिन से जीत हासिल की थी। वहां 60% से अधिक महिला मतदाता भी हैं। क्या यह अल्पसंख्यकों तथा महिलाओं दोनों के बीच, जो अब तक ममता का मुख्य आधार थे, TMC से बड़े अलगाव का संकेत है? इंडियन एक्सप्रेस ने एक TMC नेता की यह स्वीकारोक्ति भी दी है कि स्कूल जॉब scam तथा पंचायत घोटाले का भी चुनाव पर असर पड़ा है।

जाहिर है बंगाल के उपचुनाव से निकलते सन्देश बेहद मानीखेज हैं और अगर वह एक ट्रेंड बना तो बंगाल की राजनीति में बड़े रद्दोबदल का बायस बन सकता है।

तमिलनाडु में स्टालिन ने अपने allliance की ओर से कांग्रेस की जीत को द्रविड़ियन मॉडल की जीत बताया है। अखिलेश यादव भी उनके जन्मदिन समारोह में गए थे और ऐसा लगता है कि पिछड़ा consolidation की रणनीति पर वे भी बढ़ रहे हैं। उसी समारोह में स्टालिन ने बहुत जोर देकर यह कहा कि कांग्रेस को नकार कर कोई विपक्षी एकता नहीं हो सकती न भाजपा को सत्ता से बेदखल किया जा सकता। उधर तेजस्वी यादव ने पूर्णिया रैली में इसी तरह के उद्गार व्यक्त किये।  क्या यह सब चुनावी दृष्टि से देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में व्यापक विपक्षी एकता (alliance) का मार्ग प्रशस्त करेगा ?

कुल मिलाकर विधानसभा चुनावों और उपचुनाव का पहला राउंड mixed bag रहा। इसमें विपक्ष और भाजपा दोनों के लिए जरूरी सन्देश हैं। क्या विपक्ष इन चुनावों से जरूरी सबक लेगा ? 

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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