जनांदोलन की रेडिकल दिशा, सधी रणनीति और बुलंद हौसले के साथ किसान-आंदोलन इस देश का भविष्य है
गुरुवार, 22 जुलाई से किसानों का ऐतिहासिक संसद-मार्च शुरू हो रहा है। संयुक्त किसान मोर्चा की घोषणा के अनुसार, "संसद के प्रत्येक कार्य दिवस के दिन, देश भर से आये हुए विभिन्न संगठनों के चुनिंदा 200 किसान कार्यकर्ता और नेता मोर्चे द्वारा तय दिशानिर्देशों के अनुरूप शांतिपूर्ण तरीके से संसद भवन की ओर मार्च करेंगे।"
"26 जुलाई और 9 अगस्त को महिला किसान नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा विशेष संसद विरोध मार्च निकाला जायेगा। महिलाएं किसानों की आजीविका और भविष्य के लिए इस लंबे और ऐतिहासिक संघर्ष में सबसे आगे रहीं हैं और इन दो दिनों के विशेष मार्च में महिलाओं की अद्वितीय और यादगार भूमिका को याद किया जाएगा।"
वे पूरे सत्र के दौरान संसद के बाहर किसान-संसद लगाएंगे। उधर मानसून-सत्र के पहले दिन से जासूसी कांड की जांच के साथ साथ 3 कृषि-कानूनों को रद्द करने का नारा संसद के दोनों सदनों में गूंज रहा है।
किसान-प्रश्न अंततः परिधि से निकलकर केंद्र तक पहुंच गया है। यह सचमुच शक्ति संतुलन में sea-change है कि जिस आंदोलन को 26 नवम्बर को दिल्ली की सीमाओं से ही खदेड़ देने की योजना थी और 26 जनवरी को देशद्रोही साबित कर कुचल देने की साजिश महज चंद कदम दूर रह गयी थी, वह किसान आंदोलन आज संसद का एजेंडा डिक्टेट कर रहा है।
रणनीति के तहत किसानों ने संख्या को भले सीमित रखा है, पर संसद के अंदर और बाहर किसान-प्रश्न पर इस synchronised action का सामाजिक-राजनीति सन्देश गहरा और ऐतिहासिक महत्व का है।
दरअसल, किसान आंदोलन ने 8 महीने से चल रहे अपने ऐतिहासिक आंदोलन को नई ऊँचाई पर ले जाने के लिए बहुस्तरीय रणनीति तैयार की है।
इसी के तहत किसानों ने मानसून-सत्र के लिए देश के सभी सांसदों के नाम पीपुल्स ह्विप जारी किया है, जिसमें कहा गया है, " संसद के दोनों सदनों में सांसदों को किसान आंदोलन की मांगों, अर्थात् केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए 3 काले कृषि कानूनों को निरस्त कराने और किसानों की सभी फसलों के एमएसपी पर कानूनी गारंटी के लिए कानून बनाने का निर्देश दिया जाता है। जब तक केंद्र सरकार संसद के पटल पर किसानों की मांगों को स्वीकार करने का आश्वासन नहीं देती तब तक सदन में कोई अन्य कार्य करने की अनुमति न दी जाय। सांसदों को सदनों से वॉकआउट न करने का भी निर्देश दिया जाता है, वरना सत्ताधारी दल बिना किसी बाधा के अपना काम करेगा। यदि सांसदों को सदनों के अध्यक्ष/सभापति द्वारा निलंबित भी किया जाता है, तो भी उन्हें सदन में जाकर केंद्र सरकार का विरोध करने का निर्देश दिया जाता है। "
जाहिर है यह किसान आंदोलन के evolution में अगला चरण है, अवधारणा के स्तर पर एक जीवंत जनांदोलन द्वारा सांसदों के लिए " पीपुल्स ह्विप " के विचार का गहरा प्रतीकात्मक महत्व है।
इस देश में जन-सत्ता की स्थापना, रिप्रेजेंटेटिव से पार्टिसिपेटरी डेमोक्रेसी की ओर, जनतंत्र को औपचारिक से वास्तविक बनाने की दिशा में यह कदम है, किसी भी सच्चे जनांदोलन की यह कसौटी है । इसने पहली और दूसरी आज़ादी की लड़ाई के पीछे के विचार, उनके लक्ष्य और नारों की याद ताजा कर दी है। यह पीपुल्स पॉवर का assertion है।
यह राष्ट्रीय राजनीति में किसान प्रश्न के महत्व तथा किसान-आंदोलन की ताकत को तो स्थापित करेगा ही, राजनीतिक दिशा के सम्बंध में किसान आंदोलन के अंदर चल रही तीखी बहस को उच्चतर धरातल पर ले जा कर हल करने में मदद करेगा।
यह किसान-आंदोलन के बढ़ते आत्मविश्वास का भी द्योतक है, जिसने पूरे देश की संघर्षशील जनता को नई उम्मीद और हौसला दिया है।
ह्विप जारी करते हुए किसान आंदोलन ने सच्चे जनतंत्र के बुनियादी उसूल को बुलंद किया है, " सांसदों को सूचित किया जाता है कि सरकार के काम से संबंधित आम जनहित के किसी भी मामले को संसद और सांसदों के समक्ष लाने के नागरिकों के लंबे समय से स्थापित संवैधानिक अधिकार के तहत यह पीपुल्स व्हिप जारी किया जा रहा है। इस संबंध में, सांसदों को उस पर ध्यान देने और उस पर कार्रवाई करने का निर्देश दिया जाता है, और इसे उन मतदाताओं के प्रत्यक्ष निर्देश के रूप में माना जाना चाहिए जिन्होंने उन्हें संसद सदस्य के रूप में चुना है और जिनके प्रति वे संवैधानिक रूप से जवाबदेह हैं। "
ह्विप का उल्लंघन करने वालों को चेतावनी दी गयी है, " पीपुल्स व्हिप यह स्पष्ट करता है कि जो सांसद व्हिप के निर्देशों को स्वीकार करने और उसके कार्यान्वयन में विफल रहते हैं, भारत के किसान हर पटल पर उनका विरोध करने के लिए बाध्य होंगे। "
विपक्ष पर दबाव बनाकर अपनी माँगों को संसदीय विमर्श के केंद्र में ले आने की किसान-आंदोलन की रणनीति सफल होती दिख रही है। अलबत्ता, प्रधानमंत्री ने बेहद धूर्तता के साथ संसद में किसानों के समर्थन में गूंजते नारों और मांगों को दबाने के लिए आइडेंटिटी पॉलिटिक्स का कार्ड खेलते हुए नए मन्त्रियों के परिचय की सामान्य औपचारिकता को उत्पीड़ित तबकों के एम्पावरमेंट से जोड़ने की कोशिश की।
विपक्ष के सांसदों को धन्यवाद देते हुए संयुक्त किसान मोर्चा ने प्रधानमंत्री के वक्तव्य का कड़ा प्रतिवाद किया है, "संयुक्त किसान मोर्चा संसद के भीतर किसानों के मामले को उठाने के लिए विपक्ष को धन्यवाद देता है। विपक्षी सांसदों ने संसद के दोनों सदनों में उन मुद्दों को उठाया जिन्हें किसान आंदोलन कई महीनों से उठा रहा है। प्रधानमंत्री ने विपक्षी सांसदों के नारों के जवाब में आरोप लगाया कि विपक्षी दल महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अन्य वंचित समुदायों और किसानों के बच्चों को मंत्री-पद पर पदोन्नत करने का विरोध कर रहे हैं। "
" नरेंद्र मोदी का बयान, दरअसल, निरर्थक है क्योंकि संसद भवन में गूंज रहे नारे किसान आंदोलन से सीधे संसद पहुंचे थे। जो नारे लगाए जा रहे थे, वे हाशिए के नागरिकों के ही थे, जिन्हें विभिन्न क्षेत्रों में सरकार के अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक कानूनों और नीतियों का सामना करना पड़ रहा है। हम प्रधानमंत्री को याद दिलाना चाहते हैं कि महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, किसानों और ग्रामीण भारत के अन्य लोगों सहित देश के हाशिए पर रहने वाले समुदायों को सच्चा सम्मान तभी मिलेगा जब उनके हितों की वास्तव में रक्षा की जाएगी। इसके लिए सरकार को तीन किसान विरोधी कानूनों और चार मजदूर विरोधी श्रम संहिताओं (लेबर कोड) को रद्द करने और ईंधन की कीमतों को कम से कम आधा करने के अलावा सभी किसानों को एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांगों पर अमल करना चाहिए। इसके बिना, महज अपने बचाव के लिए बोले गए उनके खोखले शब्द अर्थहीन हैं। "
किसान नेता दिल्ली में सड़क से संसद तक अपना फोकस बनाये रखते हुए अब अपना ध्यान मिशन UP की ओर शिफ्ट कर रहे हैं, जबकि सरकार की रणनीति किसानों को हरियाणा में उलझाने की है ।
संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक में फ़ैसला किया गया है कि 5 सितंबर को UP के मुजफ्फरनगर में किसानों की राष्ट्रीय महापंचायत आयोजित की जाएगी जिसमें पूरे देश से किसान भाग लेंगे। इसी महापंचायत से " भाजपा हराओ, मिशन यूपी-उत्तराखंड " लांच किया जाएगा।
सरकार के संवेदनहीन, किसान-विरोधी रुख के खिलाफ जनता के गुस्से और लड़ाकू संकल्प को व्यक्त करते हुए आंदोलन का प्रमुख चेहरा बन चुके राकेश टिकैत ने बयान दिया है कि ऐसा लग रहा है कि देश में अब जंग होगी, युद्ध होगा। वरिष्ठ किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल ने दोहराया कि अगले कुछ महीनों में किसान ‘मिशन यूपी-उत्तराखंड’ में पूरी ताक़त के साथ जुटेंगे। किसान नेता युद्धवीर सिंह ने कहा है कि किसानों की यह लड़ाई नवंबर, 2021 में बुलंदियों पर होगी, मुज़फ्फरनगर की महापंचायत इसका लॉन्चिंग पैड बनेगी।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तराखंड के दो जिलों हरिद्वार और उधमसिंह नगर में किसान आंदोलन का व्यापक असर है। 5 सितंबर की महापंचायत के बाद उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड दोनों राज्यों में बीजेपी की मुश्किलें बढ़नी तय हैं ।
उत्तर प्रदेश किसान समन्वय समिति बनाने की पहल
इस बीच लखनऊ में उत्तर प्रदेश के आंदोलनरत किसान संगठनों ने बैठक की। बैठक में प्रदेश में कार्यरत दो दर्जन संगठनों ने हिस्सा लिया तथा 10 अन्य संगठनों ने इस प्रयास में शामिल होने की सहमति दी।
बैठक में सर्व सम्मति से तय हुआ कि " उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन को तेज करने के लिए सभी संगठनों को जोड़ कर "उत्तर प्रदेश किसान समन्वय समिति" बनाई जाएगी। इस समन्वय समिति में अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति से जुड़े सभी संगठन, किसान संयुक्त मोर्चे से जुड़े सभी संगठन, गाजीपुर बॉर्डर कमेटी से जुड़े संगठन और इन तीनों संयुक्त मंचों से बाहर रह कर भी किसान आंदोलन में हिस्सा ले रहे यूपी के सभी संगठनों को शामिल किया जाएगा।"
" बैठक में 9 अगस्त भारत छोड़ो दिवस पर प्रदेश भर में "मोदी गद्दी छोड़ो" अभियान चलाने और मऊ जिले के घोषी में एक किसान रैली आयोजित करने का फैसला हुआ। मुजफ्फरनगर, अवध, पूर्वांचल, मुरादाबाद और बुंदेलखंड क्षेत्रों में किसान रैलियां करते हुए अक्टूबर में लखनऊ में किसानों की एक बड़ी रैली करने पर सहमति बनी है।"
उधर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में ही किसान गन्ना बकाया भुगतान के सवाल पर 15 जुलाई से अनिश्चित कालीन धरने पर बैठे थे । उनकी मांग थी कि गन्ना किसानों का इस साल 2020-21 का बकाया 10 हजार करोड़ का भुगतान किया जाय तथा डीजल, खाद, बीज आदि की महंगाई के मद्देनजर प्रति क्विंटल 450/- की दर तय हो। किसानों की एक बेहद महत्वपूर्ण मांग 2011 से चले आ रहे बकायों के ब्याज के भुगतान की थी।
लेकिन, योगी सरकार ने उनसे बात करना दूर, 19 जुलाई की मध्यरात्रि में जबरन उनका धरना खत्म करा दिया।
दरअसल, यह प्रावधान है कि बकाया भुगतान पर 15% की दर से किसानों को ब्याज देय होगा। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव के समय 2017 मे यह वायदा किया था कि गन्ना किसानों को 14 दिन के अंदर भुगतान कर दिया जायेगा, वरना ब्याज मिलेगा। प्रदेश में उनकी पार्टी की सरकार का 5 साल का कार्यकाल बीतने को आ रहा है, लेकिन किसानों का मिलों पर 11 से 12 हजार करोड़ बकाया ब्याज अब तक उन्हें नहीं मिला। यहां तक कि गन्ना आयुक्त ने 2019 में इसके लिए आदेश भी जारी कर दिया, लेकिन सरकार ने स्वयं अपने ही आदेश को रद्दी की टोकरी में डाल दिया और किसानों को ब्याज नहीं मिला।
प्रदेश में 70 लाख परिवार गन्ना उत्पादन से जुड़े हुए हैं, जाहिर है यह किसानों का, विशेषकर पश्चिम उत्तर प्रदेश और तराई के किसानों का सबसे सम्वेदनशील प्रश्न है, जो सरकारों की तकदीर तय करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। जाहिर है गन्ना किसानों की नाराजगी की योगी सरकार को भारी कीमत चुकानी होगी।
आज किसान-आंदोलन न सिर्फ सरकार के षडयंत्रो और दमन का मुकाबला कर रहा है, बल्कि आंदोलन को derail करने और प्रकारांतर से सरकार की मदद करने वाली गैर-सरकारी साजिशों के प्रति भी बेहद सतर्क है ।
हाल ही में 14 जुलाई को सिख फ़ॉर जस्टिस नामक अलगाववादी संगठन का जहर उगलता वीडियो आया था जिसमें कहा गया था कि 22 जुलाई को संसद मार्च के दौरान किसानों के हाथ में तिरंगा नहीं होना चाहिए। और भी बहुत सी बेहद आपत्तिजनक, भड़काऊ बातें की गई थीं। संयुक्त किसान मोर्चा ने तत्परता पूर्वक बयान जारी कर किसानों को आगाह किया।
"संयुक्त किसान मोर्चा ने विदेशों में स्थित "सिख फॉर जस्टिस" नामक संगठन द्वारा दिए गए कथित बयान को संज्ञान में लिया है। एक अलगाववादी संगठन द्वारा जारी किया गया ऐसा आह्वान किसान विरोधी और किसान आंदोलन के हित के खिलाफ है, और मोर्चा इसकी कड़ी निंदा करता है।"
"न तो संयुक्त किसान मोर्चा और न ही किसान आंदोलन का ऐसे संगठनों से कोई लेना-देना है। मोर्चा किसानों को, जो अपनी आय सुरक्षा और भावी पीढ़ी के साथ-साथ 140 करोड़ भारतीयों की खाद्य सुरक्षा के लिए लंबे और कठिन लेकिन शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक संघर्ष में लगे हुए हैं, उनके न्यायोचित संघर्ष को भटकाने और पटरी से उतारने के प्रयासों से दूर रहने का निर्देश देता है।"
किसान आन्दोलन एक ओर हमारे समाज मे गहरी जड़ें जमाता जा रहा है, दूसरी ओर इसके समर्थन का वितान अमेरिका से लेकर यूरोप तक फैला रहा है। लंदन में भारतीय उच्चायोग पर हाल ही में प्रदर्शन हुआ है। यह कैसे पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित कर रहा है और उससे से हो रही किरकिरी को लेकर सरकार की चिंता कितनी बढ़ती जा रही है, उसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि पिछले दिनों किसान आंदोलन कनाडा में छात्रों के syllabus में शामिल किया गया है। इसको लेकर मोदी सरकार ने कनाडा सरकार से अपना विरोध दर्ज कराया है ! मोदी सरकार की यह चाह सचमुच हास्यास्पद है कि दुनिया के तमाम देश उनसे पूछ कर अपना पाठ्यक्रम तय करें! यह सरकार की घबराहट दिखाता है।
किसान-आंदोलन एक तबके का परम्परागत किस्म का formal प्रोटेस्ट न हो कर, एक organic जनांदोलन बन चुका है, जिसकी स्पिरिट पूरे समाज में व्याप्त हो चुकी है। पिछले दिनों पुलिस वैन में गिरफ्तार एक 13 साल के बच्चे की वीडियो वायरल हुआ जो जेल जाते समय कह रहा है कि अगर मैं जेल में मर जाऊं तो लेने के लिए सिंघु बार्डर ( जो आज किसान आंदोलन का मक्का (हेडक्वार्टर) बना हुआ है ) से किसी किसान नेता को भेज देना।
ऐसे दृश्य देखते हुए आज़ादी की लड़ाई के दौर के खुदीराम बोस और करतार सिंह सराभा जैसे शहीदों की याद ताजा हो जाती है।
ऐसे आंदोलन से, बेशक, मोदी-शाह को डरना चाहिए, जो देश की तरुणाई के अंदर यह इंकलाबी जज्बा पैदा कर रहा है। इस रेडिकल स्पिरिट, स्पष्ट वैचारिक समझ, सधी हुई रणनीति और बुलंद हौसले के साथ किसान आंदोलन इस देश का भविष्य है। यह अपराजेय है !
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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