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चिनफिंग की नेपाल यात्रा: भारत की संवेदनाओं का रखा गया ध्यान

यात्रा को लेकर भारत में चिंतित होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि चीन के दक्षिण एशिया में अपने हित हैं और यह सोचना भ्रम होगा कि भारत को शांत करने के लिए वो इन देशों से अपने संबंधों में कटौती कर ले।
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अगर किसी ने सोचा होता कि पिछले कुछ समय से जारी हमारी आक्रामक ''ताकत की नीति'' के साये में शी चिनफिंग की नेपाल यात्रा हो रही है और इनमें भारत के प्रति विरोधी नजरिया हो सकता है, तो चीजें ऐसी नहीं होतीं। चिनफिंग की 12 और 13 अक्टूबर को हुई यात्रा की सबसे अहम बात ट्रांस हिमालयन कनेक्टिविटी रही है। आखिरकार नेटवर्क बन रहा है। बड़े प्रोजेक्ट पर अपनी तमाम चिंताओं के बाद, आखिरकार काठमांडू ने कदम आगे बढ़ा लिए। हाल की चिनफिंग की यात्रा  के दौरान नेपाल में चीन के प्रोजेक्ट के बारे में फायदे-नुकसान पर विमर्श होता रहा। कौन कहता है कि नेपालियों के पास खुद का दिमाग नहीं होता?

चीन अब 70 किलोमीटर लंबे बेहद दुर्गम पहाड़ी रेलवे ट्रैक बनाने की उपयोगिता के लिए अध्ययन करवाएगा। यह रेलवे ट्रैक ''दुनिया की छत'' से होते हुए काठमांडू को गायरॉन से जोड़ेगा। ज्वाइंट स्टेटमेंट के मुताबिक़, ''दोनों देश 'बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव' के तहत, जिसमें ट्रांस हिमालय के इलाकों में बंदरगाह, सड़क, रेलवे, उड्डयन और संचार का जाल बिछाया जाएगा, जिससे नेपाल के विकास में बड़ा योगदान होने की आशा है, उससे संबंधित एमओयू पर तेजी से काम करेंगे।

चीन, नेपाल को दक्षिण एशिया के साथ होने वाले व्यापार के लिए एक क्षेत्रीय केंद्र बनाना चाहता है। चिनफिंग ने इसे साफ तौर पर समझाते हुए बताया कि चीन नेपाल को ''स्थलरूद्ध'' से ''स्थलबद्ध'' देश बनाना चाहता है। एक नेपाली अधिकारी ने इसे और खुलकर बताते हुए कहा, 'जब हमारी नाकेबंदी की जाएगी, तो इन सुविधाओं से हमें वैकल्पिक व्यापार का रास्ता मिलेगा।' अधिकारी का इशारा भारत द्वारा 2015 और 2016 में नेपाल की नाकेबंदी की तरफ था। नाकेबंदी से नेपाल में कुछ महीनों तक ईंधन और दवाईयों की कमी हो गई थी।  

कुलमिलाकर इन बड़े अवसंरचना प्रोजेक्ट से बीजिंग की दक्षिण एशिया के बाजारों से संबंधित दीर्घकालीन रणनीति की झलक मिलती है। इसमें नेपाल के विकास में योगदान कर अच्छे संबंध बनाने के अलावा भारत और बांग्लादेश शामिल हैं। तिब्बत की सुरक्षा चीन का मुख्य हित है। नेपाल सीमा जगह-जगह से खुली है, जिसके चलते तिब्बती लड़ाकों को घुसपैठ कर तिब्बत को अस्थिर करने का रास्ता मिलता है। हाल के सालों में जब नेपाल और चीन के संबंध बेहतर हुए हैं, तबसे सीमा सुरक्षा में काफी सुधार आया है।

हालांकि अनिश्चित्ताएं बनी हुई हैं। 5 अक्टूबर को चिनफिंग की नेपाल और भारत यात्रा से पहले, धर्मशाला में निर्वासित कथित तिब्बती सरकार ने एक उकसाने वाले स्टेटमेंट में कहा कि बीजिंग के पास अगले दलाई लामा के चुनाव के लिए कोई अधिकार नहीं हैं। निर्वासित सरकार के राष्ट्रपति या सिक्यांग लोबसेंग सांग्ये को अमेरिका ने बनाया है। इस तरह नेपाल की तिब्बत के साथ सीमा एक बड़ा मुद्दा बन जाती है। कथित तौर पर चिनफिंग के काठमांडू में विदेशी ताकतों के अलगाववादियों को समर्थन पर चेतावनी से भी यह साफ हो जाता है।

वाशिंगटन से दबाव के बावजूद भविष्य में नेपाल चीन के साथ प्रत्यर्पण संधि पर हस्ताक्षर कर सकता है। चिनफिंग की यात्रा  के दौरान, दोनों देशों में आपराधिक मामलों पर साझा कानूनी मदद संधि पर हस्ताक्षर हुए हैं। यह प्रत्यर्पण संधि की पूर्ववर्ती है। काठमांडू में एक मित्र सरकार चीन की प्राथमिकता है। दोनों देशों ने अपने संबंधों को आगे बढ़ाते हुए, ''सहयोग की व्यापक साझेदारी'' को ''सहयोग की रणनीतिक साझेदारी'' कर दिया है।

इससे क्या पता चलता है? यात्रा के बाद जारी ज्वाइंट स्टेटमेंट बताता है कि दोनों के संबंध एक नए स्तर पर पहुंच चुके हैं। चीन अब नेपाल को ऊपर रखकर रणनीतिक तौर पर देखते हुए उसके विकास पर ध्यान लगा रहा है। ज्वाइंट स्टेटमेंट से दोनों के बीच बढ़ती व्यापारिक साझेदारी का भी पता चलता है। नेपाल, बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव का प्रतिनिधि बनने के लिए तैयार है।  

इस यात्रा में  चिनफिंग ने नेपाल को अगले दो सालों में 490 मिलियन डॉलर की मदद देने का भी ऐलान किया। लेकिन ऐसी मदद कभी-कभार ही परोपकारी कारणों से दी जाती हैं, इसमें मदद करने वाले के हित जुड़े होते हैं। लेकिन चिंता की बात तब होती है, जब यह मदद साम्राज्यवाद का रूप ले लेती हों। आखिर चीन नेपाल पर हावी होना क्यों चाहता है?

चीन के सामने असली राजनीतिक और कूटनीतिक चुनौती नेपाल के साथ बराबरी के संबंध हैं। चीन यह बात नहीं भूल सकता भारत से बहुत छोटे और कमजोर नेपाल ने भारतीय प्रभुत्व को मानने से इंकार कर दिया था। दरअसल चीन की नेपाल को लेकर असली चिंताएं तिब्बत में राष्ट्रवादी गतिविधियां हैं। चीन एक ऐसा नेपाल चाहता है जो राजनीतिक तौर पर स्थिर हो, ताकि चीन अपने व्यापार, निवेश और तिब्बत से होते हुए दक्षिण एशिया के भीतरी हिस्सों तक जुड़ने की योजनाएं बना सके।  

भले ही चीन-भारत के संबंधों में कितना भी तनाव हो, पर चीन लंबा दृष्टिकोण रखता है. वह जानता है कि जब RCEP तैयार हो जाएगा, तो भारत के साथ व्यापार और निवेश संबंधों में बहुत बड़ा उछाल आएगा। साफ है कि चीन की नेपाल यात्रा में भारत के प्रति विरोधी नजरिया नहीं था। ज्वाइंट स्टेटमेंट से भी पता चलता है कि कार्यक्रम को लेकर दोनों देशों का नजरिया पूरी तरह द्विपक्षीय था।  इसलिए चीन और नेपाल के प्रगाढ़ होते संबंधों से भारत में चिंता करने की जरूरत नहीं है। फिर भी अगर होती है, तो क्यों?

आसान भाषा में इसका चीन से कोई लेना-देना नहीं है। दूरदृष्टि की कमी वाली भारतीय नीतियों ने नेपाल के राजनीतिज्ञों और जनभावना को भारत से दूर कर दिया है। नेपाल भारत पर निर्भरता को अच्छी तरह से समझता है, लेकिन अब भारत के साथ उसका सद्भाव बुरी तरह हिल गया है। नेपाल की नाकाबंदी बहुत बड़ी गलती थी।

बहुध्रुवीय दुनिया में, ''गुटबंदी'' और ''प्रभावमंडल'' जैसी चीजें खत्म हो चुकी हैं। सभी छोटे, बड़े देशों के पास आज स्वतंत्र नीतियों पर चलने का विकल्प है। चीन की तरह भारत को भी दक्षिण एशिया की रणनीति में क्षेत्रीय स्थिरता और विकास को प्राथमिकता पर रखना चाहिए। भारत की विकलांगता विकास के साझेदार के तौर पर बुरे प्रदर्शन में है।
 
भारत के पास अधिकार है कि वो पड़ोस में चीन द्वारा दुश्मनी पैदा किए जाने की हर कोशिशों का जवाब दे। लेकिन इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि पांच गुनी ज्यादा जीडीपी वाले चीन, जो हर साल अपनी राष्ट्रीय शक्ति में राष्ट्रीय ताकत में बड़ा इज़ाफा कर रहा है, उसे भारत को ''हद'' में रखने की कोई जरूरत है। एक वैश्विक ताकत के तौर पर चीन के दक्षिण एशिया में अपने हित हैं। भारत को शांत करने के लिए चीन क्षेत्रीय देशों के साथ अपने संबंधों में कटौती करेगा, यह सोचना अवास्तविक होगा।

अंग्रेजी में लिखा मूल लेख आप नीचे लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं। 

Xi’s Nepal Visit Treaded Softly on Indian Sensitivities

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