Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

आभासी मुद्दों के जरिये जनता को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की साज़िश!

गरीबी और बेरोजगारी के समाधान के रूप में आरक्षण को प्रस्तुत कर दिया गया है। सभी जानते हैं कि मलेरिया के लिए डायरिया की दवा कारगर सिद्ध नहीं होगी। घुसपैठियों का विमर्श भी कुछ इसी प्रकार का है।
सांकेतिक तस्वीर

प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सहयोग से सत्ताधारी दल द्वारा कुछ गैर ज़रूरी और घातक मुद्दों को लगातार चर्चा में बनाए रखने की इतनी पुरजोर और कारगर कोशिश की जा रही है कि स्वयं को देश को दिशा देने की विलक्षण योग्यता से संपन्न समझने वाला बुद्धिजीवी वर्ग इनका समर्थन और विरोध कर इन्हें जीवित रखने में जाने अनजाने योगदान दे रहा है। दु:खद यह है कि ये मुद्दे देश की संसद में भी उठ रहे हैं और इन पर हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधि चुनावी राजनीति के संकीर्ण लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अदूरदर्शितापूर्ण ढंग से प्रतिक्रिया दे रहे हैं।

जब सरकारें जनकल्याण की भावना के स्थान पर लाभ हानि के गणित द्वारा संचालित होने लगें और मानव श्रम को लागत बढ़ाने वाला तथा कार्यकुशलता में कमी लाने वाला माना जाने लगे तब नौकरियों और रोजगार के अवसरों में कमी आना स्वाभाविक है। ऐसी दशा में सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण निर्धन की वसीयत की भांति है जो उत्तराधिकारियों को लाभ तो न देगी अपितु उनके मध्य वैमनस्य और विवाद अवश्य उत्पन्न करेगी। हम चर्चा कर रहे हैं कि यह संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल है। यह न्यायालय के निर्देशों पर खरा नहीं उतरेगा। इसका क्रियान्वयन कठिन होगा। यह अंततः जाति आधारित जनगणना के नतीजों को सार्वजनिक करने और जातियों की जनसंख्या के अनुरूप उनके लिए आरक्षण के विचार को बढ़ावा देगा। अनुसूचित जाति एवं जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के लोग आशंकित हैं कि कहीं यह आरक्षण के सामाजिक-शैक्षिक आधारों को कमजोर करने की साजिश तो नहीं है और उनके लिए निर्धारित कोटे में चोर-दरवाजे से कोई अतिक्रमण तो नहीं प्रारंभ हो गया है। इन वर्गों के आरक्षित पदों पर नियुक्ति के बैक लॉग का मसला समय समय पर चर्चा में आता रहा है और प्रभावित तबका शासन प्रशासन में सवर्णों के आधिपत्य और फलस्वरूप सरकारों में सदाशयता और इच्छा शक्ति के अभाव को इसके लिए उत्तरदायी ठहराता रहा है। जबकि सवर्ण मानसिकता इसके लिए दावेदारों की कमी और अयोग्यता को जिम्मेदार मानती है।

हम सब चकित हैं कि यह 10 प्रतिशत का आंकड़ा किस जनसंख्यात्मक सर्वेक्षण के आधार पर प्राप्त किया गया और आठ लाख वार्षिक आय वाले लोगों को आर्थिक रूप से कमजोर किस आधार पर माना गया। लेकिन लोकसभा और राज्य सभा में यह बिल  पारित हो गया। पारित होने से पूर्व बुनियादी मुद्दों पर रस्मी और सतही चर्चा हुई। वह भी संभवतः इसलिए कि अपने वंचित-आदिवासी- पिछड़े वोट बैंक को दिलासा दी जा सके और शायद अपने अंतर्मन में छिपी ग्लानि को भी इस तरह कम किया जा सके। बिल के विरोधियों में इस बात की खीज अधिक थी कि सरकार इसका चुनावी फायदा लेगी। इक्का दुक्का अपवादों को छोड़कर सबने बिल का समर्थन किया और इस तरह इस बात पर मुहर लग गई कि संख्याबल में कम होने के बाद भी भारत की चुनावी राजनीति में सवर्ण वर्ग के दबदबे के सम्मुख शरणागत होना ही पड़ता है। 

गरीबी और बेरोजगारी के समाधान के रूप में आरक्षण को प्रस्तुत कर दिया गया है। सभी जानते हैं कि मलेरिया के लिए डायरिया की दवा कारगर सिद्ध नहीं होगी। किंतु राजनीतिक दलों ने रोगी को इस प्रकार प्रशिक्षित कर दिया है कि वह आश्वस्त है कि मलेरिया की औषधि ही डायरिया का निराकरण करेगी बल्कि वह तो इस दवा की मांग भी कर रहा है। उसे नहीं पता कि गरीबी और बेरोजगारी का इलाज इन राजनीतिक दलों के पास नहीं है इसीलिए आरक्षण देकर उसे छला जा रहा है।

आर्थिक आधार पर आरक्षण का तर्क न्यायसंगत और प्रगतिशील लगता है किंतु छुआछूत या अस्पृश्यता जैसी भयंकर और घृणित कुरीति दुर्भाग्यवश हमारे समाज का अविभाज्य भाग रही है। यहां जाति के विमर्श को शोषण और असमानता को चिरस्थायी बनाने के औजार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। इसीलिए ऐतिहासिक तौर पर सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर दिया गया आरक्षण अपनी तमाम सीमाओं के बाद भी यहां एक अनिवार्यता का रूप ले लेता है। हो सकता है कि इस आरक्षण ने वंचितों में सवर्णों को अपना आदर्श समझने वाले एक प्रभुत्व संपन्न वर्ग को जन्म दिया हो जो अपने साथियों से घृणा करता हो, यह भी संभव है कि राजनीतिक दलों में सवर्ण नेतृत्व की प्रभावशाली स्थिति और वंचित नेतृत्व की सवर्ण मानसिकता के कारण आरक्षण अपने उद्देश्यों को प्राप्त न कर पाया हो किंतु यह भी सच है कि जातिवाद और अस्पृश्यता जैसी भारतीय समाज की विचित्र समस्या का आरक्षण जैसा ही कोई हल संभव है जिसमें अतार्किकता का पुट है और जिसके स्वरूप में जातिवाद को समाप्त करने के स्थान पर उसे शक्ति प्रदान करने की भी पूरी गुंजाइश अंतर्निहित है।

योग्य व्यक्तियों को नौकरी न मिल पाने का तर्क पहली नजर में सही लगता है किंतु इसमें एक दोष छिपा होता है। जिस क्षेत्र में हम योग्य और श्रेष्ठ होते हैं वहां तो हम इसका आश्रय ले लेते हैं किंतु जिस क्षेत्र में हम कमजोर और पिछड़े होते हैं वहां राज्य के संरक्षण, सहायता और सहयोग की मांग करने लगते हैं, राज्य का लोककल्याणकारी स्वरूप हमें प्रिय लगने लगता है लेकिन शक्तिसम्पन्न होते ही हम योग्यतम की उत्तरजीविता की चर्चा करने लगते हैं।

सामान्य वर्ग को आर्थिक आधार पर आरक्षण अजीबोगरीब परसेप्शन्स द्वारा देश को संचालित करने की बचकानी कोशिशों का एक नमूना है। एक परसेप्शन यह है कि सामान्य वर्ग की बेरोजगारी के लिए वंचितों को मिलने वाला आरक्षण जिम्मेदार है। दूसरा परसेप्शन यह है कि कुछ राजनीतिक दल सामान्य और सवर्ण वर्ग के गुप्त समर्थक हैं और उनके साथ खड़े हैं जबकि कुछ राजनीतिक दल सवर्णों के प्रच्छन्न विरोधी हैं। तीसरा परसेप्शन यह है कि हम भले ही आपके लिए कुछ न कर सकें हों लेकिन हम ही आपके वास्तविक साथी हैं और इसीलिए आपको हमें चुनना होगा।

भारतीय राजनीति में इससे भी असंगत, हास्यास्पद और विडम्बनापूर्ण घटनाएं हुई हैं इसलिए सामान्य वर्ग के आरक्षण का यह प्रकरण हमें शायद न चिंतित करे किंतु इसके पीछे एक घातक विचार छिपा हुआ है। यह देश के अलग अलग वर्ग के लोगों में एक ऐसा भाव बोध उत्पन्न करने की रणनीति का हिस्सा है जिसके अनुसार उनकी बदहाली के जिम्मेदार राजसत्ता के कार्यक्रम और नीतियां न होकर समाज का ही कोई दूसरा वर्ग है जो उनका हक मार रहा है।

घुसपैठियों का विमर्श भी कुछ इसी प्रकार का है। दूसरे देशों से अवैध रूप से हमारे देश में प्रवेश करने वाले घुसपैठियों और उनकी आपराधिक गतिविधियों से हम सबको कठोरता से निपटना होगा- इस बात पर सर्वसहमति है। लेकिन इसके बहाने अंततः हमने धर्म के द्वारा संचालित होने वाले उन कट्टरपंथी मुल्कों को अपना रोल मॉडल बना लिया है जो हिंसा, गृह युद्ध और आतंकवाद से ग्रस्त होकर विकास की दौड़ में पिछड़े हुए हैं और अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा तिरस्कृत हैं। सेकुलर भारत में घुसपैठियों को धर्म के आधार पर परिभाषित और चिह्नित करने वाला नागरिकता संशोधन बिल उन देशों में हिंदुओं के लिए भयंकर समस्या पैदा करेगा जहां वे अल्पसंख्यक हैं तथा उन्हें अत्याचारों का सामना करना होगा किंतु इससे भी अधिक चिन्ता का विषय यह है कि घुसपैठियों की परिभाषा धीरे धीरे संकीर्ण होती जाएगी और इस प्रक्रिया को रोक पाना कठिन होगा। देश के भीतर एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में काम की तलाश में जाने वाले लोग भी घुसपैठियों की श्रेणी में आने लगेंगे। मूल निवासी और बाहरी का संघर्ष तेज होने लगेगा। अलग अलग धर्मावलंबियों में हिंदुस्तान की धरती पर मालिकाना हक जमाने की होड़ लग जाएगी। देश के निवासी अपनी दुर्दशा के लिए एक दूसरे को उत्तरदायी ठहराने लगेंगे। संदेह, अविश्वास, घृणा और हिंसा जब बेलगाम हो जाएंगे तो नतीजे विनाशकारी ही होंगे। ऐसे ही अनेक प्रयोग जारी हैं। धार्मिक सर्वोच्चता के लिए जनसंख्या बढ़ाने का विमर्श इसी प्रकार का है जिसमें यह बताया जा रहा है कि एक अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय जनसंख्या वृद्धि द्वारा  बहुसंख्यक बनने की चेष्टा कर रहा है और देश के संसाधनों का दोहन कर ताकतवर बन रहा है। इसी प्रकार धर्मांतरण द्वारा देश में बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय को अल्पसंख्यक बनाने के षड्यंत्र का मिथक है। यथार्थ के धरातल और आंकड़ों की कसौटी पर ऐसे दावे खरे नहीं उतरते। हर धर्म में कट्टरपंथी हैं और उनकी कुंठित मानसिकता से उपजे अनर्गल विचारों को देश और समाज की प्रतिनिधि चिंतन धारा नहीं कहा जा सकता।

यह परसेप्शन गढ़ने और फिर उस परसेप्शन के आधार पर देश को चलाने की कोशिशों का दौर है। यह सोशल मीडिया में चलने वाली फेक न्यूज को जन आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति मान कर कानूनों के बनाए जाने का समय है। यह वह दौर है जब न्यायपालिका पर लोकप्रिय निर्णय लेने का दबाव बनाया जा रहा है। आश्वस्त करने वाली बात यह है कि जनता इन मुद्दों पर आपस में जूतमपैजार करते बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और प्रवक्ताओं से जरा भी प्रभावित नहीं है। वह रोटी, कपड़ा,मकान, रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे जरूरी मुद्दों पर ठोस काम चाहती है। वह स्वयं पर आने वाले आभासी संकटों और इनसे बचाने वाले आभासी रक्षकों की हवाई मदद के खोखलेपन से भली भांति परिचित है। हाल ही में पांच राज्यों के विधानसभा के नतीजे यह दर्शाते हैं कि आभासी मुद्दे जनता को भटकाने में नाकाम रहे हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest