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आधी पुलिस मानती है कि मुस्लिम अपराधी होते हैं - सर्वे 

40 फीसदी पुलिस वाले रेप के दोषियों, बच्चा चुराने वालों और अपहरण करने वालों के लिए मॉब लिंचिंग का समर्थन करते हैं। 35 फीसदी पुलिस वाले मानते हैं कि यह स्वभाविक है कि भीड़ गौ हत्या के दोषियों को दंड दे। 20 फीसदी पुलिस वाले मानते हैं कि गंभीर अपराधियों का ट्रायल करने की बजाए, उन्हें मार दिया जाना चाहिए।  
police and pubic

पुलिस से जुड़ा एक नया सर्वे सामने आया है। यह सर्वे CSDS( Centre for Study of Developing Societies) और कॉमन कॉज ने मिलकर किया है। इस सर्वे का नाम ‘Status of Policing in India Report 2019: Police Adequacy and Working Conditions' है। इस सर्वे को करने के लिए 21 राज्यों के 12 हज़ार पुलिसकर्मियों की मदद ली गयी। इनसे पूछे गए सवाल-जवाब के आधार पर इस रिपोर्ट का निष्कर्ष निकाला गया है। 

इस सर्वे के अनुसार 28 फीसदी पुलिस वालों का मानना है कि आपराधिक मामलों की छानबीन में राजनीतिक दबाव सबसे बड़ी बाधा बनकर सामने खड़ी होती है। पांच में से दो पुलिस वाले मानते हैं कि कोई भी छानबीन स्वतंत्र नहीं होती है, उसमें किसी न किसी तरह के दबाव जरूर काम करते है।  13 फीसदी पुलिसकर्मी मानते हैं कि छानबीन में पुलिस व्यवस्था का इंटरनल दबाव काम करता है, 41 फीसदी पुलिसकर्मी  मानते हैं कि क़ानूनी दबाव काम करता है, 25 फीसदी पुलिसकर्मी मानते हैं कि समाज का दबाव काम करता है, 9 फीसदी पुलिसकर्मी मानते हैं कि पुलिस से जुड़ा दबाव काम करता है और 12 फीसदी ने ऐसे सवालों पर कोई  जवाब नहीं दिया। 

रिपोर्ट के मुताबिक़, 14 प्रतिशत पुलिसवाले मानते हैं कि किसी अपराध से मुस्लिम ज़रूर जुड़े हुए हैं।  वहीं 36 प्रतिशत पुलिसवाले ये मानते हैं कि किसी अपराध में मुस्लिम कहीं न कहीं जुड़े हुए हैं। ये आंकड़ा जोड़कर50 प्रतिशत तक हो जाता है। अधिकांश पुलिस वाले यह मानते हैं कि पुलिस का काम करने के लिए शारीरिक मजबूती और आक्रमकता की  अधिक जरूरत होती है। इसकी कमी महिलाओं में होती है।  इसलिए महिलाएं पुलिस का काम सँभालने के लायक नहीं होती है। बहुत खतरनाक आपराधिक मामलों की छानबीन के लिए उपयुक्त नहीं होती।   इसके साथ पुलिस वालों के काम का घंटा निर्धारित नहीं होता है , उन्हें कभी भी काम करना पड़ सकता है।  इसलिए महिलाओं के लिए यह पेशा ठीक नहीं है। इस  रिपोर्ट  में इस तरह के कई पूर्वाग्रह दिखाए गए हैं। 

इस  रिपोर्ट से यह बात भी निकलकर समाने आई है कि 40 फीसदी पुलिस वाले रेप के दोषियों, बच्चा चुराने वालों और अपहरण करने वालों के लिए मॉब लिंचिंग का समर्थन करते हैं। 35 फीसदी पुलिस वाले मानते हैं कि यह स्वभाविक है कि भीड़ गौ हत्या के दोषियों को दंड दे। 20 फीसदी पुलिस वाले मानते हैं कि गंभीर अपराधियों का ट्रायल करने की बजाए, उन्हें मार दिया जाना चाहिए।  अपराधियों के लिए तकरीबन 75 फीसदी पुलिस वालों ने हिंसा का समर्थन किया। छोटे - मोटे अपराधों  के लिए 37 फीसदी पुलिस वालों ने क़ानूनी बहस में पड़ने की बजाए सीधे दंड देने को ठीक ठहराया। 40 फीसदी पुलिस वालों ने 16 से 18 साल के बच्चों के किये हुए अपराधों को वयस्कों की तरह मानकर सजा सुनाने की वकालत का समर्थन किया। 

बहुत सारे राज्यों में अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के कोटे को भरा नहीं गया है।  साल 2007 के मुकाबले 2016 में पुलिस में औरतों का प्रतिशत 11.4 फीसदी से घटकर 10.2 फीसदी हो गया। इस रिपोर्ट में यह बात भी निकलकर सामने आई कि  पुलिसकर्मियों का सबसे अधिक ट्रांसफर चुनावों के दौरान होता है।  

उत्तराखंड, झारखंड, महाराष्ट्र और बिहार के दो-तिहाई पुलिस अधिकारी ये मानते हैं कि मुस्लिम ही अपराध कर सकते हैं। इन राज्यों में उत्तराखंड की स्थिति सबसे खराब है।  उत्तराखंड में हर पांच में से चौथा पुलिसकर्मी ये सोचता है कि मुस्लिम अपराध ही करेंगे। 

नागालैंड को छोड़ दें तो सभी राज्यों में पुलिसकर्मी 11 से 18 घंटे तक काम करते हैं। औसत तकरीबन 14 घंटे है। 10 में से आठ पुलिसकर्मी को ओवरटाइम के लिए पैसा नहीं मिलता। 24 फीसदी पुलिसकर्मी 16 घंटे से ज्यादा काम करते हैं। 20 फीसदी को 13 से 16 घंटे तक ड्यूटी करनी पड़ती है, 16 घंटे से ज्यादा काम करने वालों की तादाद 24 फीसदी है। 80 फीसदी पुलिसकर्मी आठ घंटे से ज्यादा ड्यृटी करते हैं।

46 प्रतिशत से अधिक पुलिसकर्मी कहते हैं कि उन्हें ज़रुरत के वक़्त सरकारी गाड़ी नहीं मिलती है।  आगे बढ़ें तो 37 प्रतिशत पुलिसवाले ये मानते हैं कि छोटे-मोटे अपराधों में कानूनी केस नहीं होना चाहिए, बल्कि पुलिस को खुद ही इन छोटे-मोटे केसों का निबटारा करने की छूट होनी चाहिए। निचले स्तर पर पुलिस प्रशिक्षण का स्तर काफी खराब है। बीते पांच सालों में 6.4 % कर्मियों को ही सेवा के दौरान प्रशिक्षण दिलाया गया। अधिकारियों को तुलनात्मक रूप से ज्यादा प्रशिक्षण मिलता है। 

रिपोर्ट में देश के पुलिस थानों की खस्ता हालत भी बयां की गई है। जिन 22 राज्यों में अध्ययन किया गया उनमें करीब 70 पुलिस थानों में वायरलेस डिवाइस उपलब्ध नहीं है। करीब 224 पुलिस थानों में टेलीफोन नहीं है।  12 %पुलिस वालों ने कहा कि उनके थानों में पानी का इंतजाम नहीं है।18 % ने कहा कि स्वच्छ शौचालय उपलब्ध नहीं हैं।14 % ने बताया कि उनके यहां आम लोगों के बैठने के लिए जगह नहीं है। तीन में से एक सिविल पुलिसकर्मी को कभी भी फोरेसिंक टेक्नॉलाजी पर प्रशिक्षण नहीं मिला।

महिलाओं के लिए अलग शौचालय नहीं है। पांच में से एक महिला पुलिसकर्मी ने बताया कि हमारे लिए अलग शौचालय नहीं है। चार में से एक ने कहा कि थानों के तहत यौन उत्पीड़न शिकायत समिति नहीं है।

इस तरह से इस रिपोर्ट का इशारा साफ है कि  आपराधिक और झगड़े से जुड़े मामलों का निपटारा करने के लिए नागरिकों के  सबसे नजदीक मौजूद सरकारी संगठन 'पुलिस' की स्थिति बहुत खराब है। 

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