खंडवा के आदिवासियों ने बताया- वन विभाग ने कानून तोड़कर किस तरह उजाड़ डाले उनके आशियाने
मध्य प्रदेश के खंडवा बुरहापुर में वन अधिकारियों ने 10 जुलाई को 40 आदिवासी परिवारों को वन भूमि से अवैध रूप से बेदखल कर दिया था। यही नहीं, पुलिस प्रशासन पर घरों को उजाड़ने और संपत्तियों की लूट के साथ, आदिवासियों की करीब 250 एकड़ जमीन में बोई फसल को भी कैमिकल आदि डालकर नष्ट कर दिए जाने के आरोप हैं। इस मामले को लेकर जागृत आदिवासी दलित संगठन के बैनर तले स्थानीय पीड़ित लोगों ने सोमवार को ऑनलाइन प्रेस कांफ्रेंस कर अपनी बात रखी। सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) की सचिव व वरिष्ठ पत्रकार तीस्ता सीतलवाड़ ने उनके साथ निरंतर चल रहे भेदभाव व उत्पीड़न पर बातें कीं।
जागृत आदिवासी दलित संगठन से जुड़े अंतराम अलावे ने कहा कि वन विभाग आज भी अंग्रेजों के जमाने के कानून से आदिवासियों को बेदखल कर रहा है। उन्होंने कहा कि अगर उन्हें हम हमारे हक वाले कानूनों के बारे में बात करते हैं तो वे हमें धमकाते हैं। इसके साथ ही हमारी फसलों को भी उजाड़ देते हैं जबकि ऐसा करना कानून सम्मत नहीं है। अवासे ने बताया कि 10 जुलाई को नेगांव, जामनिया में आदिवासी समुदाय के घरों को जबरन उजाड़ दिया गया।
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने 23 अप्रैल 2021 को पारित आदेश में कोरोना काल के दौरान किसी भी विभाग द्वारा बेदखली पर प्रतिबंध लगाया गया है। यह आदेश पहले 23 अगस्त तक जारी रहेगा। इसी तरह खंडवा जिले में वन कानून से जुड़े आदिवासियों पर अत्याचार के मामलों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश आरपी सोलंकी की अध्यक्षता में एक “शिकायत निवारण प्राधिकरण” स्थापित किया था। नेगांव, जामनिया निवासियों ने भी प्राधिकरण के सामने अपना पक्ष रखा था और प्राधिकरण ने 7 नवंबर 2015 में पाया कि 110 आदिवासी परिवारों का पूर्व से इस भूमि पर काबिज होना प्रतीत होता है।
अलावे ने कहा कि हम अगर अपने हक की बात करते हैं तो वे वन्य जीव संरक्षण सहित ऐसे कानूनों में हमें फंसाते हैं जिनकी जानकारी भी हमें नहीं है। उन्होंने कहा कि जब हम 10 जुलाई की घटना का विरोध जताने व अपने साथियों को छुड़ाने के लिए पहुंचे तो हमारे एक साथी को बुरी तरह पीटा गया। हमें किसी भी घटना को लेकर बार बार प्रतिरोध जताना पड़ रहा है। वन विभाग की कारस्तानी के बारे में हम कई बार एसपी व डीएम को अवगत कराते रहे हैं लेकिन इसके बाद भी कुछ ही दिन में हमारे साथ फर्जी तरीके से फंसाने की वारदातें सामने आती रहती हैं।
जागृत आदिवासी दलित संगठन के कार्यकर्ता रतनलाल अलावे ने कहा कि हम जंगल व अपनी आजीविका बचाने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं। हम अगर प्रशासन से शिकायत करने जाते हैं तो वे हमारी सुरक्षा का आश्वासन तो देते हैं लेकिन अगले ही किसी गांव में ऐसी घटना सामने आ जाती है। उन्होंने कहा कि जमनिया गांव की घटना में जब फॉरेस्ट विभाग ने आदिवासियों के घर उजाड़े तो आस पास के लोगों ने उनके घरों में लूट की। उन्होंने आरोप लगाया कि वन विभाग द्वारा घर उजाड़ने व लूट की तैयारी कई दिन पहले से कराई जा रही थी। उन्होंने घरों से सामान व बर्तन आदि खुलेआम लुटवाए। उन्होंने कहा कि यहां एक गांव में शेरसिंह नामक आदिवासी को पशुओं के लिए चारा (ज्वार) काटकर लाते वक्त वन विभाग द्वारा उठा लिया गया व रेंज लाकर बुरी तरह पीटा गया। संगठन से जुड़े एक अन्य कार्यकर्ता कैलाश भाई को कानून की जानकारी के चलते बुरी तरह पीटा गया। रतनलाल ने कहा कि हम जंगल बचाते हैं जबकि वन विभाग जंगल काटने वालों का साथ देता है। उन्होंने कहा कि जब वन कटाई करने वालों से पूछा जाता है तो वे कहते हैं कि डीएफओ आदि को पैसे देकर वे कटाई करते हैं। ऐसे में हमारी कोई सुनवाई नहीं होती और इबारती व सैकड़ों साल पुराने पेड़ों को लगातार काटा जा रहा है।
आदिवासियों के अनुसार, निमाड में अवैध लकड़ी की तस्करी में लिप्त एवं पैसों के बदले अवैध कटाई को मौन समर्थन देने वाला वन विभाग आदिवासियों के ऊपर जंगल नष्ट करने के झूठे आरोपों की आड़ में अपना भ्रष्टाचार छुपना चाह रहा है। हीरापुर वाकड़ी क्षेत्र में हो रहे कटाई की लगातार 1 साल से ग्रामीणों द्वारा शिकायत की जा रही है, पर वन विभाग कोई कार्यवाही नहीं कर रहा है। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा छतरपुर जिले में हीरे के खदान के लिए 2.15 लाख से भी ज्यादा पेड़ों को नष्ट करने की सरकार के योजनाओं का भी तीखा विरोध किया गया। उल्लेखनीय है कि पर्यावरण संबन्धित संसदीय समिति के अनुसार, देशभर में पिछले पाँच साल में 1.75 लाख एकड़ जंगल उद्योगों को हस्तांतरित किए जा चुके हैं।
संगठन से जुड़ी आशा सोलंकी ने कहा कि हमें वन विभाग द्वारा कई बार परेशान किया गया है। हमें 2005-10-12 में बार बार परेशान किया गया। हमारा घर उजाड़ दिया गया। हम थाने में जाते हैं तो वे हमारी रिपोर्ट नहीं लिखते हैं। वे कहते हैं कि अपनी रिपोर्ट खुद लिखकर लाओ, वे हमसे कहते हैं कि अपने बच्चों को पढ़ाते क्यों नहीं हो। ऐसे में उन्होंने कहा कि जब हमें बार बार उज़ाड दिया जाता है तो हम अपने बच्चों को कैसे पढ़ाएं। एक अन्य महिला ने बताया कि हमारा घर उज़ाड़ दिया गया, हमें राशन तक नहीं दिया गया, हमारी मुर्गियां चुरा ली गईं, बर्तन उठा लिए गए। आसपास के गांव के लोगों ने जामनिया गांव में उजाड़े गए आदिवासियों को अनाज पहुंचाकर अपनी तरफ से सहायता दी जबकि प्रशासन को कोई फिक्र ही नहीं है।
जमनिया गांव में प्रशसन द्वारा 40 आदिवासियों के घरों को तोड़े जाने के दौरान 130 क्विंटल अनाज, 16 बकरियां, 309 मुर्गियां, 5 मोबाइल, एक पूरी दुकान, 12 हजार के गहने लूटे गए। पीड़ितों ने एसपी को अपने नुकसान की सूची सौंपी है। इन लोगों ने वर्षों से जो भी पूंजी जमा की थी वह लूट ली गई। जामनिया गांव के रामलाल ने बताया कि हम कई साल से वहां खेती कर रहे थे। हमारे गांव में दावों के निराकरण की बात करने के बहाने वन विभाग के लोग आए और हमें बुलाकर हमला कर दिया गया। उऩ्होंने कोई नोटिस भी नहीं दिया था। हमें पीटा गया। जब एसपी ऑफिस का घेराव किया गया तो हमारे लोगों को छोड़ा गया।
संगठन से जुड़ी माधुरी जी ने कहा कि ग्राम जामनिया की इस घटना में वन अधिकार अधिनियम 2006 का उल्लंघन हुआ है तो मप्र हाईकोर्ट के आदेश का अवमानना और मप्र शासन के आदेश का भी खुला उल्लंघन हुआ है। वन अधिकार अधिनियम की धारा 4 (5) के अनुसार इस तरह जांच प्रक्रिया पूर्ण होने तक किसी को भी बेदखल नहीं किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार भी कोरोना काल में बेदखली अवैध हैं। इसके अलावा, स्वयं मध्य प्रदेश शासन के आदिम जाति कल्याण विभाग के आदेश एक मई 2019 के अनुसार, वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत दावों के पुनः जांच पूरी न हो जाने तक किसी भी दावेदार की बेदखली प्रतिबंधित है। नेगाँव, जामनिया क्षेत्र में बेदखल किए गए 40 परिवारों का जांच प्रक्रिया कानूनानुसार शुरू ही नहीं हुई है! वन अधिकार की प्रक्रिया कभी भी विधिवत रूप से नहीं चलाई गई, जिस कारण बड़ी मात्रा में लोग त्रुटिपूर्वक अपात्र किए गए। यह स्वयं मध्य प्रदेश सरकार द्वारा सूप्रीम कोर्ट में कबूला गया है।
इसी कारण मध्यप्रदेश में दावों की पुनः जांच आदेशित की गई थी। परंतु अभी भी ज़िला खंडवा में लगभग 2,416 (86%) और बुरहानपुर में 10,800 (99.5%) दावों का जांच प्रक्रिया लांबित है! इस कार्यवाही के दौरान 6 व्यक्तियों को जबरन उठा कर वन मंडलाधिकारी (निगम) चरण सिंह के ऑफिस मे बंधक बना कर रखे जाने और उनके फोन छीने का भी तीखा विरोध हुआ। मप्र हाईकोर्ट द्वारा (W.P. no 8820/2021) 23.04.21 को पारित आदेश में कोविड काल के कारण किसी भी विभाग द्वारा बेदखली पर प्रतिबंध लगाया गया है। यह आदेश पहले दिनांक 15.07.21 तक और अब 23.08.21 तक लगाया गया है। जिसकी भी अफसरों द्वारा धज्जियां उड़ा दी गई हैं।
गौरतलब यह भी है कि सैकड़ों साल से ऐतिहासिक अन्याय का शिकार रहा आदिवासी समाज आज भी वन विभाग के दमनकारी कानून का दमन सहने को मजबूर है, वो भी गोरे अंग्रेजों के बनाए दमनकारी ''भारतीय वन अधिनियम-1927'' कानून के तहत। यह भी तब, जब 2006 में नया ''वनाधिकार कानून-2006'' अमल में आ गया है जिसका उद्देश्य आदिवासी और अन्य परंपरागत (वनों पर निर्भरशील) समुदायों के वन भूमि पर अधिकारों (जो कभी अंग्रेजों ने उनसे छीन लिए थे!) को मान्यता प्रदान करना है। खास है कि वनाधिकार कानून-2006 की प्रस्तावना में ही आदिवासियों को ऐतिहासिक अन्याय से निजात दिलाने की बात कही गई है जबकि अंग्रेजों के बनाए कानून ''वन अधिनियम-1927'' की प्रस्तावना में राजस्व बढ़ाने की बात है। एक तरह से अंग्रेजों ने यह कानून भारतीय वन संसाधनों की लूट के लिए बनाया था। कायदे से देखा जाए तो वनाधिकार कानून-2006, अंग्रेजों के बनाए कानून ''वन अधिनियम-1927'' को सुपरसीड करता है लेकिन हैरत की बात यह है कि आजादी के 75 साल बाद भी अंग्रेजों का यह दमनकारी कानून ''लोगों के रहने व आजीविका'' के संवैधानिक अधिकारों पर न सिर्फ भारी पड़ रहा है बल्कि इसकी आड़ में वन विभाग का दमन निरंतर जारी है और बढ़ता जा रहा है। मध्यप्रदेश आदि कई राज्यों में यह दमन बहुत ज्यादा बढ़ गया है। यह भी तब, जब मध्य प्रदेश में वनाधिकार कानून लागू करने के साथ निगरानी व क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने वाले वन विभाग की कमान प्रदेश के एक आदिवासी राजनेता के हाथों में है।
खास है कि मध्य प्रदेश में बड़ी संख्या में आदिवासियों व परंपरागत वननिवासियों को वनाधिकार अधिनियम, 2006 के तहत पट्टा नहीं दिया जा रहा है। इससे उनके सामने रहने-जीने का संकट उत्पन्न हो गया है। वे सभी दहशत में हैं कि कहीं सरकार उन्हें बेघर न कर दे। बीते दिनों विधानसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में राज्य के आदिम जाति कल्याण मंत्री द्वारा बताया गया कि आदिवासियों एवं परंपरागत वननिवासियों द्वारा को उनके कब्ज़े की वन भूमि का पट्टा के लिए मध्यप्रदेश सरकार को 6 जुलाई, 2020 तक 3.79 लाख आवेदन प्राप्त हुए। इनमें से मात्र 716 आवेदन स्वीकृत किए गए। लगभग 2.85 लाख आवेदनों को ख़ारिज कर दिया गया और शेष पर निर्णय लिया जाना बाकी है। इतनी बड़ी संख्या में आवेदनों को खारिज किए जाने से वनों में रहने वाले लगभग 4 लाख ज्यादा आदिवासियों एवं परंपरागत वनवासी परिवारों के समक्ष आवास और जीविका की समस्या उत्पन्न हो गई है।
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