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दिल्ली के सांप्रदायिक नरसंहार पर अमित शाह का मृत्यु-लेख

गृह मंत्री ने सत्य को दफ़ना दिया और चयनित तथ्यों के आधार पर एक वैकल्पिक कहानी को गढ़ दिया है। साथ ही उन्होंने दूसरों तथ्यों को विकृत कर दिया है।
Amit Shah
Image Courtesy: The Indian Express

दिल्ली में सांप्रदायिक नरसंहार के दो सप्ताह बाद, गृह मंत्री अमित शाह ने 11 मार्च को संसद में एक लंबा भाषण दिया। वे 23- 26 फरवरी के दौरान घटी उस भयावह हिंसा पर हो रही बहस का जवाब दे रहे थे जिसने बड़े पैमाने पर क्रूरता और हिंसा के कारण देश की राजधानी और दुनिया को झकझोर कर रख दिया था। 

याद रखें कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली में अधिकतर मज़दूर वर्ग और मध्यम वर्ग की घनी आबादी वाले इलाके हैं, यहाँ 53 लोगों की जान गई और करीब 200 लोग घायल हुए, साथ ही बड़ी तादाद में घरों, दुकानों, वाहनों, स्कूलों और धार्मिक स्थलों का व्यापक विनाश हुआ। यह केवल एक दंगा नहीं था बल्कि बड़े पैमाने का नरसंहार था, जिसे विभिन्न तरह के हथियारों के माध्यम से निशाना बनाकर अंजाम दिया गया था। चूंकि दिल्ली पुलिस शाह के अधिकार क्षेत्र में आती है, इसलिए यह ज़रूरी था कि वे संसद की बहस का जवाब दें।

लेकिन, दम भरने वाली निर्भीकता के साथ, गृह मंत्री और भाजपा के पूर्व अध्यक्ष ने एक वैकल्पिक कहानी गढ़ी, जो कि नरसंहार के कारण और उससे जुड़े सभी सवालों का जवाब देने से बचने की रणनीति थी, जैसे कि हिंसा की प्रकृति क्या थी, सुरक्षा बलों ने इसे रोका क्यों नहीं, आदि-आदि।

संसद में शाह ने अपने बयान में पूरी घटना को विरोधी दलों द्वारा निर्मित बताया, जिन्होंने घृणा फैलाने वाले भाषण दिए, अल्पसंख्यक समुदाय को गुमराह किया, और उन्होंने हिंसा को समप्रमाण शब्दों में वर्णन किया – कि दोनों समुदायों को भुगतना पड़ा। उन्होंने दंगाइयों के ख़िलाफ़ शीघ्र और प्रभावी कार्रवाई का आश्वासन भी दिया।

अपने बताने के अंदाज़ में शाह ने ऊंचा नैतिक आधार लेते हुए कहा कि 53 मृतक और 526 घायल लोग "भारतीय" हैं, लेकिन यह बताने से इनकार किया मरने वाले और घायल किस समुदाय से थे। हालांकि उनका यह अंदाज़ कई लोगों को अपील कर सकता है, लेकिन कभी-कभी कड़वी सच्चाई की आवश्यकता भी होती है - केवल तभी वास्तविक परिवर्तन हो सकता है।

कड़वा सच यह है कि 48 मृतकों में से जिनके बारे में विवरण दिया गया है, 39 कथित तौर पर अल्पसंख्यक समुदाय से हैं और बाक़ी (9) बहुसंख्यक समुदाय से हैं। यह अकेला तथ्य इस नरसंहार की प्रकृति को दर्शाता है। इसलिए, "भारतीय" के नाम पर वास्तविकता न बताना एक चालाकी है न कि देशभक्त मानवता।

सत्य को उलटा क्यों? एक वैकल्पिक कहानी क्यों? और, आख़िर वे ख़ुद इसमें लिप्त क्यों है? आइए हम कुछ उदाहरणों को देखें तो यह सब स्पष्ट हो जाएगा।

पुलिस की भूमिका

लोगों को परेशान करने वाले सबसे गंभीर और अच्छी तरह दस्तावेज़ की गई बात यह है कि न तो दिल्ली पुलिस दंगा रोकने के लिए आगे बढ़ पाई बल्कि अब उपलब्ध कई वीडियो बताते हैं कि उनमें से कुछ पुलिस वाले भारतीय जनता पार्टी से जुड़ी हिंसक भीड़ की मदद कर रहे थे और एक बर्बरता वाले केस में पुलिस के सामने ज़ख़्मी युवा को मारा जा रहा है और उसे राष्ट्रिय गान के लिए मजबूर किया जा रहा है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, पुलिस द्वारा उसे देरी से अस्पताल ले जाने के कारण उस युवा की बाद में मौत हो गई।

यह भी रिपोर्ट किया गया है कि मुस्तफ़ाबाद में पुलिसकर्मियों को फ़रूकिया मस्जिद में भीड़ की मदद करते देखा गया था, जैसा कि स्थानीय लोगों ने भी बताया है। पुलिसकर्मियों द्वारा महिला प्रदर्शनकारियों को पीटने और सांप्रदायिक आधार पर अश्लील गालियाँ देने की भी खबरें हैं।

पूरी बेल्ट में पर्याप्त सुरक्षा बल तैनात किए जाने में तीन दिन लग गए। तब तक, हिंसा में जान-माल का भारी नुकसान हो चुका था।

शाह ने इस सब को भुला कर पुलिस की तारीफ करते हुए कहा कि छोटे से क्षेत्र में फैली हिंसा को 36 घंटे के भीतर नियंत्रण में कर लिया गया। उन्होंने पूरी तरह से उन सवालों का स्पष्टीकरण देने से परहेज़ किया कि खुफिया रिपोर्ट के बावजूद पुलिस/सुरक्षा बलों की तैनाती शुरू में ही क्यों नहीं की गई, क्योंकि ये खबर थी कि इलाके में तनाव बढ़ रहा है। क्यों संकट के समय आए हज़ारों कॉल का जवाब नहीं दिया गया। यह सब उनकी निगरानी में हुआ, उन्होंने खुद दावा किया कि वे घटनाओं पर निगरानी रखने के लिए पुलिस अधिकारियों के साथ बैठे थे। फिर भी कोई प्रतिबंधात्मक कार्रवाई का आदेश नहीं दिया गया।

इस सब के बाद, शाह फिर से दंगे के आरोप में 2,600 से अधिक लोगों को गिरफ़्तार करने और 700 एफ़आईआर दर्ज करने के लिए पुलिस की पीठ थपथपाते हैं। वे यह भी नहीं बता पाए  कि पुलिस ने स्पष्ट न्यायिक दिशानिर्देशों के बावजूद गिरफ्तार किए गए लोगों के नामों की जानकारी देने से क्यों इनकार किया जबकि सभी एफआईआर को पुलिस स्टेशनों पर सूचना पट्टों पर प्रदर्शित किया जाना चाहिए। दरअसल, हाईकोर्ट में एक याचिका लंबित है जिसमें नाम मांगे गए हैं। लोगों से बात के आधार पर रिपोर्ट बताती है कि हिरासत में लिए गए और आरोपित किए गए बहुसंख्यक लोग अल्पसंख्यक समुदाय के हैं - लेकिन आधिकारिक बयानों के अभाव में इस पर अनिश्चितता है।

स्पष्ट रूप से, पुलिस ईमानदार और निष्पक्ष नहीं रही है। रिपोर्टों के अनुसार या तो यह पीछे खड़ी तमाशा देखती रही या फिर हमलावरों के साथ खड़ी रही है। फिर भी शाह उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। क्या इससे पीड़ितों में विश्वास पैदा होगा? क्या यह सांप्रदायिक विभाजन को पाट सकेगा?

किसके थे नफ़रत भरे भाषण? 

शाह ने अपने संसद के भाषण में एक और बड़ा उलटफेर करते हुए भाजपा नेताओं द्वारा दिए गए उन भाषणों को ख़ारिज कर दिया जिसमें उन्होंने देशद्रोहियों को गोली मारने या अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा घरों में घुस हमला करने और महिलाओं का बलात्कार करने की बात कही थी जिससे माहौल खराब हुआ और जिन भाषणों का सार्वजनिक दस्तावेज़ भी मौजूद है। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि नफरत भरे भाषणों के आरोपों की जांच की जा रही है।

फिर उन्होंने वर्णन किया कि उनके मुताबिक वास्तविक नफ़रत वाले भाषण कौन से हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के नेताओं ने 14 दिसंबर को एक रैली में नफरत भरे भाषण दिए और लोगों से बाहर आने की अपील की और कहा कि यह 'करो या मरो' की लड़ाई है। इसके साथ, गृह मंत्री ने न केवल अपने उस संस्करण का भी निर्माण करने की कोशिश की, कि यह वास्तव में विपक्ष था जिसने हिंसा को उकसाया, बल्कि अधिक महत्वपूर्ण ढंग से यह कहा कि इस हिंसा के लिए अल्पसंख्यक समुदाय ज़िम्मेदार था।

वे अनुराग ठाकुर (मोदी सरकार में मंत्री) और परवेश वर्मा (दिल्ली से भाजपा सांसद) के नफरत भरे भाषण को भूल गए। उन्होंने कुख्यात कपिल मिश्रा के भाषण को भुला दिया जिसे उसने एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के बगल में खड़े होकर दिया था, जिसमें वह सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की धमकी दे रहा था – जिसने व्यापक रूप से आग को भड़काने में चिंगारी का काम किया। 

वास्तव में, यह शाह ही थे जिन्होंने दिल्ली के विधानसभा चुनावों में भाजपा के अभियान का नेतृत्व और प्रबंधन किया था, जो अभियान सांप्रदायिक नरसंहार के दो सप्ताह पहले ही हुआ था। इस अभियान में ठाकुर और वर्मा सहित अन्य नेताओं के जरिए ज़हरीले और विभाजनकारी भाषणों का उभार देखा गया। लेकिन वे इसे भी भूल गए। शाह की कहानी एक समानांतर ब्रह्मांड में मनगढ़ंत कहानी जैसी है।

टेक्नोलॉजी एक रक्षक के रूप में

शाह ने अपने भाषण में इस तथ्य पर गर्व महसूस किया कि पुलिस ने 1922 "दंगाइयों" को उठा लिया है, पुलिस वीडियो और सोशल मीडिया की छवियों के ज़रिये फ़ेशियल रिक्गिशन तकनीक का इस्तेमाल करके मतदाता पहचान पत्र और ड्राइविंग लाइसेंस डाटाबेस के साथ मिलान कर रही है।

इसके महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि 40 टीमों ने इस पर काम किया है। उन्होंने उत्तर प्रदेश के आसपास के चार ज़िलों के डाटाबेस को भी खंगाला है। फिर, कहा चूंकि प्रौद्योगिकी धर्म को नहीं मानती है, इसलिए यह एक 'निष्पक्ष' अभ्यास है।

लेकिन जैसा कि कई देशों के विशेषज्ञों ने अक्सर बताया है, चेहरे की पहचान तकनीक बहुत ही अनिश्चित है। कुछ मामलों में, तो चार-पाँच मिलान गलत पाए गए हैं। इसके अलावा, अगर लोग मास्क पहने हुए थे, हेलमेट लगाया था या चेहरे के चारों ओर कपड़ा बांध रखा था, तो इस तकनीक से कुछ भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। वीडियो बताते हैं कि बड़ी संख्या में लोग हेलमेट और मास्क पहने हुए थे।

फिर भी, शाह और उनकी 40 टीमों ने इस अभूतपूर्व उपलब्धि को हासिल करने का दावा किया है। क्या इसका कोई पुष्ट प्रमाण है? क्या कोई सावधानी बरती गई है है कि यह तकनीक सटीक नहीं हो सकती है?

और फिर, ज़मीनी रिपोर्टों से पता चला कि वास्तव में अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों के एक बड़े हिस्से को उठाया जा रहा है। यह तर्क नहीं दिया जा रहा है कि अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा कोई हिंसा नहीं की गई थी। वास्तव में, यह हिंसा पहले दिन हुई थी। लेकिन, जैसा कि शाह ने कहा - विदेश से पैसा लाया गया, विपक्षी दलों ने अल्पसंख्यक समुदाय को उकसाया, उन्हें सीएए आदि के विरोध में गुमराह किया, इसलिए, कहानी को निर्णायक रूप से उलट दिया गया ताकि कहानी को पूरी तरह से घूमा दिया जाए। 

अमित शाह ने जो किया है वह काफ़ी चालाकी से किया या कभी-कभी काफी बेरुखी से इसे अंजाम दिया- उन्होंने दिल्ली नरसंहार को एक दंगे का रूप दे दिया, और फिर इसे अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा उकसाया और भड़काया बताया है। और, साथ ही उन्होंने दिखाने की कोशिश की कि वे और भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ऐसे दंगाइयों से निपटने के लिए सक्रिय हैं और निष्पक्ष रूप से ख़ासी मेहनत कर रहे हैं और इसके प्रति दृढ़ भी हैं।

शाह ने इस तरह का मृत्यु-लेख लिख दिया है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Amit Shah’s Epitaph for Delhi Communal Carnage

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