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आरटीआई कानून में संशोधन जनता के साथ विश्वासघात!

मोदी सरकार भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर सत्ता में आई थी और स्लोगन दिया था ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’। भ्रष्टाचार से लड़ने का सबसे कारगर हथियार आरटीआई में संशोधन कर उसे ही पंगु बना रहे हैं।
RTI
फोटो साभार : Economic Times

लोकतंत्र में जनता को ये अधिकार है कि वो सरकार से सवाल करे।

वो सरकार से पूछे कि टैक्स के जरिए जो पैसे उनसे वसूले जा रहे हैं, उसे कहां खर्च किया जा रहा है?

जनता का हक़ है कि शासन-प्रशासन के एक-एक काम के बारे में जानकारी हासिल करे और उसको जवाबदेह बनाये।

सरकार की जवाबदेही से ही कोई लोकतंत्र मजबूत बनता है।

भारत में सरकार के काम-काज को देखने के लिए कोई कानून नहीं था। कोई किसी तरह नहीं जान सकता था कि उसके प्रतिनिधि को कितने पैसे मिले और कहां कहां पर खर्च किए गए। राशन दुकानदार यह कहकर राशन नहीं देता था कि आगे से राशन नहीं आया है और आपके पास इस बारे में सही जानकारी पाने का कोई साधन नहीं था।

लम्बे संघर्ष के बाद सूचना का अधिकार (आर.टी.आई.) कानून 12 अक्टूबर, 2005 को बन पाया। राजस्थान से शुरू हुए जन सुनवाई आंदोलनों का परिणाम था जिससे बाद में देश भर के बुद्धिजीवी लोग जुड़े और नारा दिया ‘हमारा पैसा, हमारा अधिकार’।

कुछ लोग मानते हैं कि आरटीआई की जड़े 1996 में राजस्थान के बेवार में न्यूनतम आय के लिए 40 दिनों के धरना-प्रदर्शन में हैं तो कुछ लोग इसकी जड़े और पुराने रूप में देखते हैं जब दलित सरपंच प्यारे लाल जनसुनवाई के लिए मजदूर किसान शक्ति संगठन के पास पहुंचा।

इस तरह से सैकड़ों जन सुनवाई और भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने के बाद सरकार मजबूर हुई आरटीआई कानून लाने के लिए। सरकार को विवश किया कि वह आरटीआई कानून लाये। यह आंदोलन जोरदार तरीके से चला जिसके कारण कुछ राज्य सरकारें पहले ही आरटीआई कानून ले आईं, जैसा कि सन् 1997 में गोवा और तामिलनाडु, सन् 2000 में महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, सन् 2001 दिल्ली में, 2003 जम्मू और कश्मीर में आरटीआई कानून लाया गया।

भारी दबाव के बाद (क्योंकि मीडिया भी उस समय आरटीआई लाने की पक्ष में लिखती थी) वाजपेयी सरकार सन् 2002 में ‘सूचना पाने की आजादी’ (फ्रीडम ऑफ इन्फारमेशन) बिल लेकर आई। इस बिल को लोगों ने मंजूर नहीं किया और कहा कि सूचना पाने की आजादी नहीं यह हमारा अधिकार है कि हम सरकार से अपने पैसे के बारे में जानकारी ले सकते हैं। 2005 में यूपीए सरकार सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून लेकर आई। इसमें कहा गया था कि 30 दिन के अन्दर सूचना देना होगा नहीं तो आप राज्य सूचना आयुक्त, केन्द्रीय सूचना आयुक्त के पास अपील कर सकते हैं, दोषी अधिकारियों पर फाइन लगाने का भी प्रावधान था।

आरटीआई कानून में संशोधन

जन दबाव में सरकार आरटीआई कानून तो ले आई। लेकिन उसकी कभी भी मंशा यह नहीं रही कि लोगों को सूचना दी जाये जैसा कि भूतपूर्व सूचना आयुक्त शैलेश गांधी ने अपनी रिटायरमेन्ट से एक दिन पहले 5 जुलाई, 2012 को कहा था, ‘‘सूचना का अधिकार बड़े और ताकतवर लोगों को पसंद नहीं आ रहा है।" उन्होंने आगे कहा, "ट्रेनिंग में सरकारी अधिकारियों को सिखाया जाता है कि कैसे जवाब देने से बचा जाये।’’

यही कारण है कि सरकार ने आरटीआई कानून को लाने के बाद कभी भी इसको सशक्त करने का नहीं सोचा। एक आरटीआई कार्यकर्ता ने फाइल नोटिंग की सूचना लेनी चाही तो उसे सूचना नहीं दी गई। अपील में जाने के बाद पहले मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने कहा कि यह सूचना दी जा सकती है। इससे घबराई सरकार ने 2006 में आरटीआई में संशोधन कर कमजोर करना चाहा लेकिन भारी विरोध के कारण इसको बदला नहीं जा सका। वजाहत हबीबुल्ला ने 18 जुलाई, 2018 को आरटीआई संशोधन के खिलाफ एक मीटिंग में कहा कि ‘‘2006 में जब पहली बार इसमें सरकार ने संशोधन करने की कोशिश की तो आंदोलन के कारण इसे वापस लिया गया और तब देश के प्रधानमंत्री ने देश को आश्वासन दिया कि इस कानून में संशोधन नहीं किया जाएगा लेकिन जो सरकार इस तरह का संशोधन कर रही है उसको समझना चाहिए कि यह सरकार का दिया हुआ आश्वासन है उसे यह आश्वासन पूरा करना चाहिए।’’

मोदी सरकार अपने पहले कार्यकाल में आरटीआई में संशोधन नहीं कर पाई, लेकिन दूसरे कार्यकाल के पहले ही संसद सत्र में इस कानून में संशोधन कर एक अगस्त 2019 को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर करवा लिए।

मोदी सरकार कहती है कि आरटीआई संवैधानिक नहीं है, इसलिए इसके आयुक्त का वेतन चुनाव आयुक्त के बराबर नहीं रह सकता और न कार्यकाल ही तय किया जा सकता है, इसलिए आयुक्त का कार्यकाल और वेतन सरकार तय करेगी।

सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलू ने कहा है कि ‘‘सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर कहा है कि वोट देने का अधिकार और जानने का अधिकार संवैधानिक अधिकार है, इसलिए मुख्य सूचना आयोग और मुख्य चुनाव आयोग को बराबर का दर्जा है। ये बात लंबी बहस और सलाह के बाद आरटीआई एक्ट, 2005 में तय की गई है।’’ ‘केंद्र सरकार ये मान रही है कि मूख्य सूचना आयुक्त का कद मुख्य चुनाव आयुक्त के मुकाबले छोटा है। आरटीआई एक्ट ये कहता है कि ये संवैधानिक अधिकार है लेकिन संशोधन बिल 2018 में लिखा है कि ऐसा नहीं है, अगर संविधान के अनुच्छेद 324(1) के तहत मुख्य चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है तो अनुच्छेद 19(1)(अ) के तहत संवैधानिक अधिकारों को लागू करवाने वाला मुख्य सूचना आयोग कैसे असंवैधानिक संस्था हो जाता है?’’

आरटीआई में संशोधन से प्रभाव

एक्ट में बदलाव के बाद मुख्य सूचना आयुक्त से लेकर सूचना आयुक्तों की नियुक्ति से लेकर उन्हें हटाने का अधिकार भी केंद्र सरकार के पास चला गया है। पहले मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त को हटाने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति के पास था। राष्ट्रपति भी उन्हें तभी हटा सकते थे, जब सुप्रीम कोर्ट की जांच में कोई आयुक्त दोषी पाया जाता हो। राज्यों के मामले में मुख्य सूचना आयुक्त के साथ दूसरे आयुक्तों को हटाने का अधिकार राज्यपाल के पास था अब वह राज्य सरकार के हाथ में चला गया है। सूचना आयुक्तों को संवैधानिक संस्था के बराबर दर्जा इसलिए दिया गया था ताकि वे स्वतंत्रता और स्वायत्तता के साथ काम करें। सूचना आयुक्तों के पास ये अधिकार होता है कि सबसे बड़े पदों पर बैठे लोगों को भी आदेश दे सकें कि वे एक्ट के नियमों का पालन करें, लेकिन इस संशोधन के बाद अब उनका ये अधिकार छिन जाएगा।

केंद्रीय सूचना आयोग में सूचना आयुक्त रहे शैलेश गांधी का कहना है कि इस संशोधन के ज़रिये सरकार आरटीआई क़ानून में अन्य संशोधन करने का रास्ता खोल रही है। पहले मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने भी प्रस्तावित कदम को पीछे ले जाने वाला प्रस्ताव बताया जिससे कि सीआईसी और एसआईसी की स्वतंत्रता और स्वायत्तता से समझौता होगा। एक अन्य पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त एएन तिवारी ने कहा कि इन बदलावों से सूचना आयोग पंगु संस्थान में बदल जाएगा।

सतर्क नागरिक संगठन की अंजलि भारद्वाज कहती हैं कि-‘‘सरकार से मांगी गई सूचनाएं लोगों को नहीं दी जाती है इसके लिए अपील में जाना पड़ता है जो कि सूचना आयुक्त के निर्देश पर ही विभाग देता है। अब सूचना आयुक्त की तनख्वाह और समय सीमा सरकार तय करेगी। पहले सूचना आयुक्त का कार्यकाल 5 साल या 65 साल की उम्र तक होता था और वेतन मुख्य चुनाव आयुक्त के बराबर होता था लेकिन अब कार्यकाल और वेतन सरकार ही तय करेगी।

सरकार का नज़रिया और लोगों पर प्रभाव

भारत में करीब 60 लाख लोग प्रति वर्ष आरटीआई का उपयोग करते हैं जिसमें गरीब तबके के लोग भी शामिल हैं जो अपने राशन, वृद्धा, विकलांग और विधवा पेंशन के लिए अर्जी लगाकर जानकारी लेते हैं। राजस्थान में 10 लाख लोगों की पेंशन बंद कर दी गई थी, उन लोगों ने आरटीआई से जानकारी मांगी तो उन्हें मृत बता दिया गया था। इस जानकारी को हासिल कर लोग पेंशन पाने के हकदार बने। दक्षिण दिल्ली के कई बस्तियों में सतर्क नागरिक संगठन ने राशन पर जनसुनवाई रखी जिसमें भ्रष्टाचार निकला कि दुकानदार राशन उठा लेता है लेकिन लोगों तक नहीं पहुंच पाता है जो कि दिल्ली जैसे शहर में बड़ा मुद्दा है। कुसुमपुर पहाड़ी (दिल्ली) में लोगों ने अपनी पेंशन और राशन आरटीआई लगाकर प्राप्त किया है।

इतने बड़े पैमाने पर किसी कानून का उपयोग जनता भारत में नहीं करती हैं। लेकिन केंद्रीय राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने राज्यसभा में आरटीआई संशोधन को लेकर पूछे गए सवाल के जवाब में कहा कि प्रस्तावित संशोधन में कोई सामाजिक या आर्थिक प्रभाव शामिल नहीं है इसलिए सरकार को बाहर से सलाह प्रक्रिया का पालन करने की ज़रूरत नहीं पड़ी।

नियम के मुताबिक अगर कोई संशोधन या विधेयक सरकार लाती है तो उसे संबंधित मंत्रालय या डिपार्टमेंट की वेबसाइट पर सार्वजनिक किया जाता है और उस पर आम जनता समेत विशेषज्ञों की राय मांगी जाती है। कुछ मामलों में सरकार अखबारों में भी विधेयक से संबंधित जानकारी प्रकाशित करवाती है और उस पर लोगों सुझाव भेजने के लिए कहा जाता है। इस बदलाव से आम लोगों के जीवन पर सामाजिक और आर्थिक दोनों प्रभाव पड़ता है लेकिन सरकार को लगता है कि इससे लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

सरकार का दायित्व

मोदी सरकार भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर सत्ता में आई थी और स्लोगन दिया था ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’। भ्रष्टाचार से लड़ने का सबसे कारगर हथियार आरटीआई में संशोधन कर उसे ही पंगु बना रहे हैं। आरटीआई सरकार के काम काज का लेखा जोखा होता है जो पैसा सरकार दे रही है वही सही जगह इस्तेमाल हो रहा है कि नहीं, जनता आरटीआई के द्वारा ही जानकारी लेती है। आरटीआई ऐसा हथियार है जो केवल जानने का ही नहीं सत्ता में बैठे लोगों से सवाल करने का भी अधिकार देता है।

मोदी जी को अपने वादे के अनुसार आरटीआई को और मजबूत करना चाहिए और व्हीसल ब्लोअर प्रोटेक्शन कानून जो कि 2004 में पास हो गया लेकिन लागू नहीं हुआ है उसको लागू करना चाहिए। अभी तक सूचना मांगने और उसका खुलासा करने के कारण 80 से अधिक आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। कई राज्यों में मुख्य सूचना आयुक्त तक नहीं हैं यहां तक केन्द्रीय आयुक्त के 11 में से 4 पद खाली हैं, जुलाई 2018 तक आंध्र में कोई आयुक्त ही नहीं था जिसके कारण हर जगह फाइलें पड़ी हुई हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग के वार्षिक रिपोर्ट 2017-2018 के अनुसार सन् 2014-15, 8.45 लाख, 2015-16 में 11.65 लाख और 2016-17 में 11.29 लाख आरटीआई के आवेदन का उत्तर नहीं दिया गया।

मोदी जी को आरटीआई में संशोधन की जगह पर शिकायत निवारण का ढांचा लाना चाहिए ताकि लोग अपनी समस्या का सही तरीके से सही समय पर हल पा सकें। मोदी जी ने 2014 के चुनाव में बहुत जोर शोर से लोकपाल का मुद्दा उठाया था लेकिन लोकायुक्त की नियुक्ति भी नही हो सकी है। शैलेश गांधी ने कहा कि पहला खतरा ताकतवर लोगों से हैं दूसरा खतरा न्यायपालिका से है जहां कई सालों तक फैसला नहीं हो पाता है।

कई बार देखा गया है कि सूचना आयुक्त और केन्द्रीय मुख्य सूचना आयुक्त के कहने के बाद भी सूचनाएं मुहैया नहीं कराई जाती हैं जैसे कि 16 अगस्त 2010 को आरटीआई के द्वारा रिजर्व बैंक से 100 बड़े डिफॉल्टर उद्योगपतियों को नाम, पता, कम्पनी, कर्ज की राशि, ब्याज के बारे में जानकारी मांगी गई थी। इस जानकारी को रिजर्व बैंक ने यह कहते हुए नहीं दिया कि यह लोगों की गोपनीयता का मामला है। इसके खिलाफ आयोग के पास अपील की गई जिसमें सूचना आयुक्त ने रिजर्व बैंक को 15 नवम्बर, 2011 को आदेश दिया कि यह जानकारी मुहैया कराई जाये। रिजर्व बैंक ने जानकारी नहीं दी और हाईकोर्ट में अपील दायर कर दी जिस पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की डिग्री की जानकारी आरटीआई के द्वारा मांगी गई जिसको दिल्ली विश्वविद्यालय ने गोपनीयता के आधार पर देने से मना कर दिया। अपील में जाने पर 21 दिसम्बर, 2016 को सूचना आयुक्त ने आदेश दिया कि डिग्री का निरीक्षण करने दिया जाये लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय इस मामले को लेकर हाईकोर्ट पहुंच गया। इस तरह के और भी मामले हैं जिसमें आयुक्त के कहने के बाद जानकारी नहीं दी गई और मामले को कोर्ट के पाले में डाल दिया गया।

मोदी जी लोगों से कहते हैं कि वह जवाबदेही और पारदर्शिता लाने वाली सरकार देंगे। लेकिन मोदी अपने मामले में ही आंख पर पट्टी बांधे बैठे रहे जबकि उनको आगे आकर कहना था कि कानून का सम्मान करो और जानकारी दो। मोदी जी जो भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर सत्ता में आए थे, उन्होंने भ्रष्टाचार से लड़ने की सबसे सशक्त हथियार आरटीआई को ही पंगु बना दिया।

यहां तक कि अब उनके कार्यकाल में कई विभागों के दफ्तरों में जाने और ब्रिफिंग के समय सवाल पूछने पर पाबंदी लगा दी गई। बेरोजगारी के आंकड़े पहले ही बंद करने के आदेश दे दिए गए हैं और जो लोगों के पास कानूनी हथियार आरटीआई था वह भी खत्म किया जा रहा है। मोदी जी का वह नारा उल्टा होता हुआ दिख रहा है जिसमें वे कहते थे कि ‘‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’’। अब कहना चाहिए कि ‘खाऊंगा, खिलाऊंगा लेकिन बताऊंगा नहीं’।

सूचना प्राप्त किए बिना कोई भी नागरिक अपना विचार व्यक्त नहीं कर सकता है या सरकार की गलत नीतियों की आलोचना नहीं कर सकता है, आलोचना को रोकने के लिए ही लोगों को जानकारी से वंचित किया जा रहा है।

अंत में मैं शैलेश गांधी के बातों को ही दोहराना चाहूंगा ‘‘देश की जनता को सूचना आयोगों पर दबाव डालना होगा लेकिन ऐसा लगता है कि जनता या तो सो गई है या मायूस हो गई है।" वे कहते हैं कि लोगों को जागरूक करने का काम जारी रखेंगे। मेरा भी मानना है कि जनता को जागरूक कर सड़क पर उतारना होगा नहीं तो सरकार जनता की गला घोंटती रहेगी और एक-एक करके जनता के सभी अधिकार छीन लिये जायेंगे।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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