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अयोध्या फ़ैसला : संघ की उदारता से पाखंड की बू आती है

1980 के दशक में हर किसी ने आरएसएस की सांप्रदायिक रणनीति को रोकने की कोशिश की थी, लेकिन सब असफल रहे।
Ayodhya issue

पिछले हफ़्ते में शायद ही कोई ऐसा दुर्लभ दिन बीता होगा जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश में उन उपायों की घोषणा न की हो जिनकी वजह से बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले (जिसे अयोध्या टाइटल विवाद भी कहा जाता है) के बाद, देश सांप्रदायिक तबाही के भंवर में न फंस जाए।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने सभी बड़े कार्यक्रमों को रद्द कर दिया है और सभी प्रचारकों या पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को अपने क्षेत्रों में रहने के निर्देश दिए हैं और अपने समर्थकों को चेतावनी दी है कि वे सुप्रीम कोर्ट के मामले में सोशल मीडिया पर उत्तेजक बयान पोस्ट करने से बचें या फिर त्रिकोणीयविवाद में यदि फ़ैसला अयोध्या में राम मंदिर बनाने के पक्ष में आता है तो उस पर ज़्यादा उत्तेजित न हों।

ये उपाय निश्चित तौर पर स्वागत योग्य हैं।

फिर भी आरएसएस में यह दूरदर्शिता तीन दशक के बाद बहुत देर से आई है। इस गुज़रे वक़्त ने अयोध्या में राम मंदिर बनाने के मसले पर हुए आंदोलन ने धीरे-धीरे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की खाई को चौड़ा कर दिया है, इस खाई को पाटना 6 दिसंबर 1992 की बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना के बाद लगभग नामुमकिन हो गया है। आरएसएस की मांग थी कि मंदिर का निर्माण वहीं किया जाए जहां बाबरी मस्जिद थी जिस पर दावा किया गया था कि भगवान राम का जन्म वहीं हुआ था।

6 दिसंबर को संघ तथा भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने, कारसेवकों या धार्मिक स्वयंसेवकों जिनका लगभग एक लाख से अधिक की संख्या में होने का अनुमान लगाया गया था, वे मस्जिद पर चढ़ गए और उसे मलबे में तब्दील कर दिया। इन हिंदुत्व के दिग्गजों ने बाद में दावा किया कि कारसेवकों के स्वस्फ़ूर्त ग़ुस्से ने मस्जिद को ढाह दिया था, जिन्हें उस वक़्त ऐसा ना करने के लिए न तो समझाया जा सकता था और न ही नियंत्रण में किया जा सकता था। 

जो लोग 1992 में जन्मे हैं उन्हें आज लगेगा कि संघ एहतियाती उपाय इसलिए कर रहा है कि संगठन को यह एहसास हो गया है कि सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील जगहों पर बड़ी भीड़ इकट्ठी करने से काफ़ी जोखिम होगा, वह भी ऐसे अवसर पर जब यह सांप्रदायिक चिंगारी भड़काने का काम करेगा। दंगे के प्रकोप को कम करने के उपाय के तौर पर संघ को मिलेनियल्स से प्रशंसा मिलेगी।

लेकिन मिलेनियल्स को जो बात नहीं पता चलेगी वह यह है कि 1989 से 1992 के बीच भारत का  राजनीतिक वर्ग, उस दौर में जब रामजन्मभूमि आंदोलन अपने उफान पर था, संघ परिवार को हमेशा अनुचित व्यवहार करने के लिए कोसता था और उसे दम-खम के साथ रोकता था। मिसाल के तौर पर, हर कुछ महीने में अयोध्या में कारसेवकों को इकट्ठा न होने देना जिसे वे केंद्र सरकार पर बाबरी मस्जिद स्थल उन्हें सौंपने के लिए दबाव बनाते थे। या फिर उन्हें इसके बजाय वैकल्पिक रास्ते के लिए वार्ता के लिए बुलाया जाता था ताकि किसी समझौते पर पहुंचा जा सके, या अयोध्या टाइटल विवाद पर न्यायिक फ़ैसले की प्रतीक्षा करने के लिए कहा जाता था।

लेकिन आरएसएस ने हमेशा कहा है कि अयोध्या मसला न्यायपालिका के दायरे से बाहर का मसला है। भारतीय जनता पार्टी या भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने 11 जून, 1989 को पालमपुर में एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें कहा गया था, ''भाजपा का मानना है कि इस [अयोध्या] विवाद की प्रकृति ऐसी है कि इसे केवल क़ानून की अदालत द्वारा हल नहीं किया जा सकता है।"

इस पंक्ति को भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने दोहराया, जो बाद में देश के प्रधानमंत्री बने। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हिरेन मुखर्जी को लिखे एक पत्र में, वाजपेयी ने 1989 में लिखा था कि, "इस संवेदनशील विवाद जैसे मसले में, जिसने लोगों के एक बड़े वर्ग की भावनाओं (वह भी धार्मिक मसला) को छू लिया है, अदालत का फ़ैसला लागू करना बेहद मुश्किल होगा।”

अतीत के ये उद्घोष मिलेनियल्स को आश्चर्यचकित कर सकते हैं, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को स्वीकार करने की इच्छा के संकेत के रूप में आरएसएस के एहतियाती उपायों की व्याख्या करने में ग़लत नहीं ठहराया जा सकता है। आख़िरकार, आरएसएस ने पिछले ही हफ़्ते कहा था कि सभी को “खुले दिमाग़” के साथ सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को स्वीकार करना चाहिए।

यहाँ मिलेनियल्स को फिर से सोचने की ज़रूरत है।

नवंबर 2017 में, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था, "राम मंदिर को रामजन्मभूमि पर ही बनाया जाएगा और उस भूमि पर कुछ और नहीं बनाया जाएगा।" भागवत की यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या टाइटल विवाद पर सुनवाई शुरू करने के एक हफ़्ते पहले यानी 5 दिसंबर को आई थी, फिर सुनवाई को आगे की तारीख़ के लिए बढ़ा दिया गया था।

आरएसएस प्रमुख की टिप्पणी पर भारत के 26वें मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एएम अहमदी को इस लेखक को यह बताने के लिए प्रेरित किया कि, “मैं कहूंगा, भागवत का बयान अयोध्या मामले पर चल रही सुनवाई के परिणाम को प्रभावित करने का ही एक रूप है… कुछ लोग अयोध्या पर भागवत की टिप्पणी को केस की सुनवाई कर रही बेंच पर दबाव डालने की रणनीति के रूप में देख सकते हैं।"

भागवत द्वारा 2018 की विजयदशमी पर दिए गए भाषण को न्यायपालिका को प्रभावित करने का एक ओर प्रयास माना जा सकता है। उन्होंने कहा था, "जन्मभूमि स्थल को मंदिर निर्माण के लिए अभी तक नहीं दिया गया है, हालांकि सभी प्रकार के प्रमाणों की पुष्टि कर दी गई है कि वहाँ पर एक मंदिर था।" इस साल की शुरुआत में, भागवत ने एक बार फिर कहा कि अयोध्या में मंदिर का निर्माण होगा। उनकी बयानबाज़ी सुप्रीम कोर्ट के सामने केंद्र सरकार के उस वचन का विरोध करती है, जो इस्माइल फ़ारुक़ी मामले में दर्ज है, कि अयोध्या में मंदिर और मस्जिद दोनों का निर्माण किया जाएगा।

यह कहना मुश्किल है कि क्या न्यायमूर्ति एसए बोबडे, जो इस महीने के अंत में भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश बन जाएंगे, एक बयान देते वक़्त क्या उन्होंने भागवत को ध्यान में रखा था जब उन्होंने कहा था, “कुछ लोगों के पास बोलने की स्वतंत्रता काफ़ी है। ऐसा युग कभी नहीं देखा गया, जहां कुछ लोगों को बोलने की इतनी भारी स्वतंत्रता हो।”

अब विडंबना तो यह है कि अपनी अभिव्यक्ति की “अपार” स्वतंत्रता का बार-बार इस्तेमाल करते हुए यह कहना कि अयोध्या में केवल राम मंदिर का ही निर्माण होगा, भागवत का संगठन चाहता है कि देश के नागरिक सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को "खुले दिमाग़" के साथ स्वीकार करें।

शायद, यह विरोधाभास संघ के उस दृढ़ विश्वास से उत्पन्न हो रहा है कि अयोध्या टाइटल विवाद में हिंदू पक्ष की दलीलें सुप्रीम कोर्ट को राम मंदिर बनाने के लिए बाबरी मस्जिद स्थल को सौंपने के लिए राज़ी कर लेंगी।

शायद, संघ का आत्मविश्वास बाबरी मस्जिद के क़ानूनी इतिहास से उपजा है, जिसे 125 साल में  मस्जिद से मंदिर में परिवर्तित कर दिया गया, 1885 से 2010 के बीच अधिकतर न्यायिक फ़ैसलों के ज़रीये, इस कहानी को एजी नूरानी ने अपनी किताब The Babri Masjid Question: 1558 and 2003; Volume I and II  में बाहर लाते हैं।

या, शायद, संघ अब सांप्रदायिक तनाव नहीं चाहता है, क्योंकि केंद्र और उत्तर प्रदेश में भाजपा सत्ता में है। इस तरह की घटना मोदी सरकार के ख़िलाफ़ एक अन्य गवाही होगी जो पहले से ही धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ बर्ताव पर वैश्विक स्तर पर कटघरे में खड़ी है, कश्मीर में दो महीने से अधिक की तालबंदी इसकी सबसे बड़ी गवाह है।

यह इंडियन एक्सप्रेस द्वारा उस स्रोत के हवाले से स्पष्ट हुआ जिसने आरएसएस के संयुक्त महासचिव दत्तात्रेय होसाबले की अध्यक्षता में एक बैठक में भाग लिया था। सूत्र ने होसाबले के हवाले से कहा, “फ़ैसला हमारे पक्ष में है या नहीं, हमें इसे स्वीकार करना चाहिए और फिर अगली रणनीति का फ़ैसला करना चाहिए। लेकिन अगर फ़ैसले के बाद समाज में कोई गड़बड़ी होती है, तो यह राज्य और केंद्र में हमारे और हमारी सरकारों के ख़िलाफ़ जाएगा।”

लेकिन मिलेनियल्स को जो नहीं पता चलेगा वह यह कि 1989 और 1992 के बीच आरएसएस ने बहुत ही ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैया अपनाया था। इसने देश को सांप्रदायिक अराजकता में धकेल दिया था, क्योंकि संभवतः, पिछले हफ़्ते होसाबले की टिप्पणी के अनुसार, भाजपा उस वक़्त सत्ता में नहीं थी और अब चूंकि सत्ता में है इसलिए हिंसा के लिए दूसरों को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं।

वे संघ के 1989 शिलान्यास कार्यक्रम को जोड़ते हैं, जिसमें इंदौर, मध्य प्रदेश और भागलपुर, बिहार में राम मंदिर निर्माण के लिए अयोध्या में पक्की ईंटें भेजने वाले क़स्बे और गाँव शामिल थे। भागलपुर की सांप्रदायिक हिंसा में 396 लोगों की मौत हुई थी, लेकिन संभावना है, जैसा कि ग्रैफ़ और गैलनियर कहते हैं, कि इस हिंसा में एक हज़ार से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवाई थी।

25 सितंबर, 1990 को, बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाली थी, जिसे सोमनाथ से अयोध्या की तीर्थ यात्रा के रूप में देखा गया था लेकिन यह यात्रा अपने पीछे ख़ूनी निशान छोड़ती जाती थी। कर्नाटक में 66 और राजस्थान के जयपुर में 50 लोगों की मौत हुई थी। उत्तर प्रदेश के बिजनौर ज़िले में 48 लोगों की मौत हुई, हालांकि ग्रैफ़ और गेलोनियर का कहना है कि अनौपचारिक स्रोतों से मरने वालों की संख्या 200 के पार बताई गई थी।

तेलंगाना के हैदराबाद में 134 लोग मारे गए थे, लेकिन वास्तविक गिनती 200 और 300 के बीच की भी हो सकती थी। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में, आधिकारिक मृत्यु 75 थी, लेकिन पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ ने दावा किया था कि हिंसा में 150 से अधिक लोग मारे गए थे। मैंने उन स्थानों को सूचीबद्ध नहीं किया है जहां हिंसा में 30 या उससे कम लोग मारे जाने का दावा किया गया था।

बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद सूरत हिंसा के तांडव में फंस गया था। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़, ग्रैफ़ और गेलोनियर लिखते हैं, ''इन दंगों में 180-190 लोगों की जानें गई थीं। लेकिन अन्य स्रोतों के मुताबिक़ 200 मृतकों का आंकड़ा भी कम करके आंकना होगा।”

मुंबई में 210 मौत और महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों में 57 मौतें अलग से होने की सूचना थी। लेखक के मुताबिक़ "हालांकि, मरने वालों की वास्तविक संख्या 400 से अधिक थी।" जनवरी 1993 में, दंगों का दूसरा दौर चला और मुंबई में 557 लोगों के जीवन को लील लिया, या जो भी आधिकारिक आंकड़ों कहते हैं। इसके बाद मार्च के महीने में प्रतिशोध लेने के लिए शहर में सीरियल बम धमाके किए गए जिसमें 257 लोगों की मौत हो गई थी। एक बार फिर, मैंने उन शहरों का नाम को छोड़ दिया, जहां सूरत और मुंबई में हुई हिंसा की तुलना में तीव्रता कम थी।

मिलेनियल्स को शायद भाजपा नेताओं के ख़िलाफ़ लंबित पड़े आपराधिक मामलों के बारे में भी नहीं पता होगा, जिसमें आडवाणी भी शामिल थे, जिन पर बाबरी मस्जिद को गिराने की साज़िश रचने का आरोप है। यह मामला अभी भी मुक़दमेबाज़ी में फंसा है, भले ही सुप्रीम कोर्ट अब यह तय करने वाला है कि बाबरी मस्जिद स्थल हिंदुओं या कि मुसलमानों का है या नहीं।

इस विडम्बनापूर्ण स्थिति के पीछे के नतीजे को न्यायमूर्ति एम एस लिब्रहान ने स्पष्ट किया था जिनके जाँच आयोग ने निष्कर्ष निकाला था कि बाबरी मस्जिद विध्वंस "सावधानीपूर्वक बनाई गई योजना के तहत हुआ था।" 2017 में, जस्टिस लिब्रहान ने कहा, "अगर यह तय हो जाए कि यह [बाबरी मस्जिद] वक़्फ़ की संपत्ति है, तो एक पक्ष को विध्वंस के दोषी के रूप में स्थापित किया जा सकता है। और अगर हिंदू पक्ष इसे हासिल कर लेता है, तो विध्वंस का कार्य 'न्यायसंगत’ माना जाएगा और अपनी संपत्ति को पुनः हासिल करना माना जाएगा।”

आरएसएस का आज का तर्क उसके पुराने आचरण के विपरीत है, फिर भी यह स्वागत योग्य है। यह परिवर्तन सांप्रदायिक हिंसा को फैलाने के आरोप से बचाने के अलावा एक महत्वपूर्ण उद्देश्य भी पेश करता है: उस कथन को झुठलाना जिसमें आरएसएस दोपहर के समय अंधेरे का प्रतीक मानी जाती थी।

एजाज़ अशरफ़ एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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