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बाबरी मस्जिद के विनाश की 25वीं वर्ष गांठ

आइए हम अपनी सर्वोत्तम क्षमता के ज़रिये जिन तक भी हम पहुँच सकते हैं उन्हें भारतीय राष्ट्र के लोकतांत्रिक मूल्य के बारे में बताये.
बाबरी मस्जिद

वाल्मीकि की रामायण में आज जो स्थान अयोध्या कहलाता है, इसे ब्रिटिश-पूर्व काल में अवध के नाम से जाना जाता था. अपने रामचरित मानस में तुलसीदास ने भी इसे अवध-पूरी कहा है. यह एक बड़ा शहर था, उस राज्य की राजधानी थी जिसे अवध कहा जाता था. इसलिए, यहाँ एक बड़ी मुस्लिम आबादी थी. जब बाबर ने 1526 में भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना की, और अवध या अयोध्या उसकी गिरफ्त में आ गई, तो उसके गवर्नर मीरबकी ने वहां एक बड़ी मस्जिद बनाई, जिसे बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाने लगा. इसके निर्माण के तथ्य को दो फारसी शिलालेखों में घोषित किया गया, एक पुलपिट पर लिखा था और दूसरा, बड़े अक्षरों में गेट पर लिखा था. इन दोनों शिलालेखों में लिखित कोई भी लेख प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से यह नहीं कहता है कि यह मस्जिद किसी मंदिर के विनाश से बनायीं गयी है. अगर ऐसा हो तो इसके बारे में मीरबकी जिम्मेदारी जरूर लेते: क्योंकि ऐसा कोई कारण नज़र नहीं आता की वे इस पर खामोश रहते.

तथ्य यह है कि अयोध्या को भगवान राम की जन्मस्थली के रूप में काफी देर से जाना गया, बाबरी मस्जिद बनने के बाद. अयोध्या में स्थापित संस्कृत के शिलालेखों या फिर पहली बीसी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी ईसा तक इस बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता है खासतौर पर भगवान् राम के बारे में, जिनका उल्लेख किसी भी शिलालेख में नहीं किया गया है, जबकि विष्णु, शिव और वासुदेव (कृष्ण) जैसे अन्य देवताओं/भगवान् के बारे में उल्लेख मिलता है. अयोध्या के इलाके में भगवान राम के जन्म स्थान को स्थापित करने वाला पहला ज्ञात संस्कृत पाठ स्कंद पुराण में आंतरिक सबूत के साथ मिलता है जोकि विभिन्न संस्करणों में से है, लेकिन 1600 सदी से पहले नहीं मिलता है. अयोध्या में 30 से अधिक पवित्र स्थलों में से, इसे एक रामजनम के रूप में नाम दिया गया है. यह केवल अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उभरता है जब हम इसे यूरोपीय यात्री टीफ़ेंथलर के यात्रा के आलेखों में पढ़ते हैं, जिन्होंने 1765 से पहले कुछ समय पहले ही अयोध्या का दौरा किया था, अपने आलेख में उन्होंने आरोप लगाया कि मस्जिद का निर्माण बाबर या औरंगजेब द्वारा मंदिर को ध्वस्त कर किया गया. चूँकि दोनो शिलालेखों में बाबर के शासनकाल के बारे में बताया गया है, मुसलामानों की बड़ी तादाद भी यह विश्वास करती है कि बाबर ने मंदिर तोड़ कर ही मस्जिद बनायी (जबकि मस्जिद का निर्माण मीरबकी ने किया था).

यह हमेशा के लिए सांप्रदायिक संघर्ष की जड़ बन गयी, जिसकी शुरुवात 1855 में हुई थी. यह जगह तब अवध के नवाब के अधीन थी, और उनके अधिकारियों ने मस्जिद के बाहर मूर्तियों को रखकर इस मुद्दे का हल निकाला, और जिसे बाद में सीता-की-रसोई के नाम से जाना जाने लगा. मस्जिद के लिए एक ट्रस्ट (वक्फ) भी बनाया गया.

1884 में पहला मामला हरकिशन, उप-न्यायाधीश, फैजाबाद, के सामने आया और फिर 1885 में, डब्लू यंग, न्यायिक आयुक्त, अवध के सामने अपील के जरिए आया. दोनों ने मस्जिद के मुस्लिम कब्जे के पक्ष में फैसला किया, जबकि यंग ने सीता-की-रसोई को भी हिंदुओं को बनाए रखने की अनुमति दी. इस प्रकार संपत्ति की समस्या कानून की आंखों में तय हो गयी थी.

मामले का समाधान हो ही गया होता, लेकिन 1930 के दशक में सांप्रदायिक तनाव ने इसे पुनर्जीवित कर दिया, एक हिंदू भीड़ मस्जिद में घुस गई और पौधों को क्षति पहुंचाई, और उस पर स्थापित फारसी शिलालेख को नष्ट कर दिया. हालांकि, मुस्लिमों ने मस्जिद को अपने कब्ज़े में ले लिया,  और दिसंबर 1949 तक मस्जिद में इबादत जारी रखी.

30 जनवरी, 1948 को हिंदू महासभा और आर.एस.एस. के अनुयायी नथुराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या कर दी थी और इसके नतीजे के रूप में आर.एस.एस. पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था. उसके बाद संघ के नेता गोलवलकर ने कुछ स्पष्ट रूप से निंदित आश्वासन दिए, जिसकी वजह से जुलाई 1949 में संघ पर से प्रतिबन्ध हटा दिया गया. तत्पश्चात्, आर.एस.एस. और हिंदू महासभा ने अपने आधार को जीवित करने के लिए मुद्दे की तलाश के लिए खोज की. और उन्होंने ऐसे एक मुद्दे के रूप में बाबरी मस्जिद को पाया.

22-23 दिसंबर, 1949 की रात के दौरान मस्जिद के ताले टूट गए थे और सीता-की-रसोई की मूर्तियां को मस्जिद के भीतर स्थानांतरित कर दिया गया, जिसकी वजह से वहां मुस्लिम नमाज या धार्मिक पूजा नहीं हो सकी. इस पूरी घटना का वर्णन पुलिस रिपोर्ट में मिलने के बावजूद, भारतीय न्यायपालिका को यह मानने के लिए 61 वर्ष लगे कि मस्जिद में मूर्तियाँ खुद उड़ान भर कर नहीं गयी थी, बल्कि मानव हाथों से मस्जिद में रखी गयी थी (यह मान्यता 30 सितंबर, 2010 दिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा एक सहायक फैसले के माध्यम से हुई).

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृह मंत्री सरदार पटेल द्वारा इस मुद्दे पर लिए गए मजबूत फैंसलों के बावजूद, उत्तर प्रदेश के प्रिमियर पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने मूर्तियों को अपनी मूल स्थिति में लौट कर मुसलमानों के लिए मस्जिद बहाल करने के लिए और कानून की व्यवस्था को स्थापित करने का कोई तत्परता नहीं दिखायी. स्थानीय जिला कांग्रेस समिति के सचिव अक्षय कुमार ब्रह्मचारी ने मुसलमानों के लिए मस्जिद को बहाल करने के लिए और अधिकारियों पर दबाव बनाने के 22 अगस्त से 22 सितम्बर 1950 तक 31 दिन की भूख हड़ताल की, उन्होंने भूख हड़ताल तभी तोड़ी जब मुस्लिम नेताओं ने उन्हें तत्काल अपील कर ऐसा करने को कहा.

इस मामले में फिर तीन दशकों तक विराम लग जाता है और कोई सक्रियता नज़र नहीं आती. मस्जिद मुसलमानों और हिंदुओं दोनों के लिए बंद रही, और मूर्तियों को अंदर छोड़ दिया गया था. 1980 के चुनाव में,  भाजपा, जो पुराने जनसंघ से निकली थी को चुनाव में बड़ी हार का सामना करना पड़ा. इसके नेता अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा गांधीवादी समाजवाद का नारा भी निराशाजनक साबित हुआ. इसलिए फिर से राजनैतिक सांप्रदायिकता के मुद्दे को एजेंडे पर ले आई. 1984 में विश्व हिंदू परिषद का गठन किया गया, और उसने बाबरी मस्जिद के स्थान पर ही राम मंदिर बनाने के नारे को अपने एजेंडे के शीर्ष शामिल किया.

इसलिए इस मुद्दे को फिर से पुनर्जीवित किया गया और 1 फरवरी 1986 को जिला न्यायाधीश के.एम. पांडे ने मस्जिद में प्रवेश करने और मूर्तियों की पूजा करने के लिए मस्जिद का ताला खोलने का आदेश पारित कर दिया जबकि मुसलमानों को इमारत में प्रवेश करने पर रोक लगा दी. हमारे विद्वान् जज साहब ने अपनी स्मृति में लिखा था कि एक बंदर (संभवतः भगवान हनुमान या उसके दूत) विशेष रूप से मेरे फैसले को सुनने के लिए और मेरा शुक्रिया अदा करने के लिए आए थे!

इस फैसले को लागू करने की जिम्मेदारी स्व. राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार पर आन पडी, और बाबरी मस्जिद वास्तव में एक मंदिर में बदल गई, और  सभी मुसलमानों को मस्जिद से दूर कर दिया गया. इस प्रकार, भाजपा और विश्व हिंदू परिषद ने अब बाबरी मस्जिद को शारीरिक रूप से नष्ट करने और उसी जगह पर एक राम मंदिर बनाने के लिए अभियान चलाया. इसे शिलान्यास आंदोलन के रूप में जाना गया, और 9 नवंबर 1989 को मंदिर की बुनियाद रखने के लिए ईंटों को लाया गया. अगले वर्ष, सितंबर से नवंबर 1990 के दौरान लालकृष्ण आडवाणी द्वारा की गयी रथ यात्रा के दौरान मस्जिद को कार-सेवकों द्वारा नष्ट करने का शारीरिक प्रयास किया गया. मस्जिद के विध्वंश को उस समय उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार की निर्धारित कार्रवाई से ही रोका गया, जिससे कुछ कार सेवकों की पुलिस गोलीबारी में मौत हो गई थी.

1986 से ही, देश में सी.पी.आई. (एम), लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों की लगातार यह मांग रही कि बाबरी मस्जिद को उचित सुरक्षा दी जाए. भारतीय इतिहास कांग्रेस ने अपने वार्षिक सत्रों में लगातार मांग की कि मस्जिद को प्राचीन स्मारक अधिनियम 1958 के तहत भारत सरकार द्वारा एक संरक्षित ढांचा घोषित किया जाए, लेकिन उन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा. इस तरह की कार्रवाई की कमी के चलते मस्जिद के विनाश का दरवाजा खोल दिया.

जब जून 1991 में, भाजपा की अगुवाई वाली सरकार यू.पी. में स्थापित हुई तब से ही बाबरी मस्जिद को नष्ट करने की योजना को ठोस रूप देना शुरू हुआ. बावजूद खुली घोषणा के कि उनका इरादा बाबरी मस्जिद को नष्ट करना है, लालकृष्ण आडवाणी और अन्य भाजपा नेताओं के नेतृत्व में हजारों कार-सेवक को अयोध्या में इकट्ठा करने की अनुमति दी गई और 6 दिसंबर, 1992 को सेना तो दूर की बात है, बिना पुलिस के हस्तक्षेप के, बाबरी मस्जिद को तबाह करने के लिए 24 घंटे से भी अधिक समय दे दिया गया और मूर्तियों को फिर से वहीँ पर स्थापित कर दिया गया.

शायद, न तो भाजपा और न ही नर्सिमहा राव की कांग्रेस सरकार सार्वजनिक तौर पर इसे अपराध बताने के लिए तैयार थी. कई दिनों तक संसद की कार्यवाही स्थगित होती रही. मीडिया ने आम तौर पर इसे राष्ट्र नाम पर एक काला धब्बा बताया और निंदा की. केंद्र सरकार को सभी बीजेपी राज्य सरकारों को खारिज करने के लिए मजबूर होना पडा, ज़ाहिर है, उत्तर प्रदेश की सरकार को भी. यद्यपि 25 वर्ष बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद से गुजर गए हैं, यह विध्वंश न केवल कानून का उल्लंघन था बल्कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के आदेशों की अवहेलना भी थी लेकिन इसके किये आज तक एक भी अपराधी को सज़ा नहीं मिली.

6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के भौतिक विनाश के बाद स्थल पर राम मंदिर बनाने के लिए नए आंदोलन के अगले चरण की शुरूवात हुयी. यह विदित है कि बाबरी मस्जिद के अधीन के कब्जे की भूमि व उसके परिसर विवादों के घेरे में है, और मुख्य बिंदु यह होना चाहिए था कि 22-23 दिसंबर, 1949 को हिंसक घुसपैठ से पहले 12 साल से अधिक समय तक यह किसके कब्जे में थी. हालांकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की (लखनऊ पीठ) के जज ने 2010 के अपने फैंसले में इस मुद्दे को इतिहास और पुरातत्व की गलती बताते हुए फैसला किया भूमि के उस  दो-तिहाई हिस्से को जिसे 6 दिसंबर, 1992 को आपराधिक कृत्य से पूरी तरह से खाली कर दिया गया हिन्दू पार्टी को दे दिया. तीन महीने के भीतर मस्जिद के इतिहास को हाईकोर्ट ने किस तरह की बीमार मंशा और गलत ढंग से पढ़ा, के बारे में दिसंबर 2010 में लोकतांत्रिक बुद्धिजीवियों और कलाकारों के संगठन SAHMAT द्वारा प्रकाशित विस्तृत खंडन (इतिहास और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले) में देखा जा सकता है.

अब अपील सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है. न्यायपालिका का अपमान किये बिना, यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि इसके अब तक के प्रदर्शन को देखते हुए कोई अंतिम निर्णय होगा ऐसा आत्मविश्वास पैदा नहीं करता है. लेकिन हमारे लिए अंतिम मध्यस्थ भारतीय लोग हैं. बाबरी मस्जिद के विनाश की 25 वीं वर्षगांठ के अवसर पर, किसी को भी बाबरी मस्जिद विवाद के संबंध में धर्मनिरपेक्ष मज़बूत स्थिति पर विश्वास रखने वाले कॉमरेड ज्योति बसु की पक्की और मज़बूत प्रतिबद्धता को याद करना चाहिए. आइए हम अपनी सर्वोत्तम के जरिए जिन तक भी हम पहुँच सकते हैं उन्हें भारतीय राष्ट्र के लोकतांत्रिक मूल्य उनके आदर के बारे में बताये.

 

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