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भारत
राजनीति
भारतीय उदारवादियों की पहेली 
महुआ मोइत्रा संयुक्त राज्य अमेरिका में एक निवेश बैंकर थीं। वह भारत लौट आई और कुछ ही समय बाद चुनावी राजनीति में प्रवेश कर गई। उन्होंने पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ काम किया क्योंकि वे इसे आजमाना चाहती थी– कांग्रेस भारतीय उदारवादियों का सुनहरा ख्वाब है।
सैमुएल मैथ्यू
02 Jul 2019
Translated by महेश कुमार
फाइल फोटो

अगर शशि थरूर 16 वीं लोकसभा की अवधि के दौरान भारतीय उदारवादी की आंख के तारे थे, तो ऐसा लगता है कि वह इस 17 वीं लोकसभा में अपने पैसे के लिए भाग रहे हैं। 

एक सांसद के रूप में अपने पहले भाषण में, अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा ने भारतीय समाज, उसकी विविधता, लोकतांत्रिक प्रणाली, संवैधानिक निकायों और धर्मनिरपेक्ष लोकाचार पर संघ परिवार के हमलों का विरोध करके उदारवादियों के सपने को फिर से ज़िंदा कर दिया है।

मोइत्रा इंटरनेट पर छा गईं और उन्होंने ट्विटर पर हमारी टाइमलाइन पर, फेसबुक पर और व्हाट्सएप पर आगे बढ़ाना का अपना रास्ता खोज लिया है। किसी को इस तथ्य से आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए कि वह रातोंरात इंटरनेट की सनसनी बन गई है। 

वास्तव में, उसके पास अपने पक्ष में वे सारे कार्ड हैं, जिन से भारतीय उदारवादी घंटे भर में नायक के रूप में उभर आते है। थरूर की तरह, मोइत्रा पश्चिम में शिक्षित हुई हैं और उन्होंने वहां काम किया है। वह बेदाग अंग्रेजी भी बोलती हैं, जो कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय उदारवादी की रक्षक बनने की भी एक शर्त है।

निस्संदेह, उन्होंने जो किया उसके लिए उन्हें श्रेय मिलना चाहिए और खासकर जहां तक उनके भाषण का संबंध है। वह सशक्त और भावनात्मक भाषण है। वह बहुत अच्छी तरह से 'तर्कवादी भारतीय' (अमर्त्य सेन) हो सकती हैं। यह सब सच है। लेकिन, क्या यह आरएसएस और भाजपा के खिलाफ होने के लिए पर्याप्त है?

जिस किसी को भी यह पता है कि संघ कैसे काम करता है, वह अपने कैडर और अपने संसाधनों को कैसे लागू करता है, उसे पता होगा कि उससे लड़ने के लिए एक अच्छा भाषण पर्याप्त नहीं है। फिर भी, हो सकता है कि भारतीय उदारवादी शायद यह नहीं जान सकते क्योंकि, अनिवार्य रूप से उदारवादियों को इस बात की सीमित समझ है कि चीजें जमीन पर कैसे काम करती हैं।

उदारवादी और बेगूसराय 

हाल के संसदीय चुनाव में, एक चुनिंदा निर्वाचन क्षेत्र और एक विशिष्ट उम्मीदवार को दिन-प्रतिदिन मीडिया प्लेटफार्मों के जरिए प्रकाश में लाया गया। हज़ारों भारतीय उदारवादियों ने उस निर्वाचन क्षेत्र में इस उम्मीदवार के लिए समर्थन और पैसा भी खर्च किया और अभियान में सहायता भी की। फिर भी, परिणाम क्या निकला? भारतीय उदारवाद के 'उद्धारकर्ता' को संघ परिवार ने 400,000 से अधिक मतों के अंतर से हराया था।

उनके लिए जो अभी भी सोच रहे हैं कि मैं किसके बारे में बात कर रहा हूं, मुझे आपके भ्रम को दूर करने दें। वह निर्वाचन क्षेत्र बिहार में बेगूसराय था और उम्मीदवार कोई और नहीं बल्कि कन्हैया कुमार थे जिन्होंने संघ परिवार और नरेंद्र मोदी के खिलाफ विशेष रूप से अपने वक्तव्य कौशल की बदौलत आग बरसाई थी।

पिछले कुछ वर्षों में चुनाव और प्रचार अभियान के दौरान, किसी अन्य उम्मीदवार ने संघ और मोदी के खिलाफ इतनी मुखरता से बात नहीं की थी। हिंदी और अंग्रेजी में उनके भाषणों ने देश भर में हजारों- हजार नहीं बल्कि लाखों दिल और दिमाग जीते थे।

वोटों की अंतिम गिनती में, कन्हैया कुमार 422,217 वोटों से हार गए। ऐसा लगता है कि उनके दिल और दिमाग ने उनके मूल निर्वाचन क्षेत्र पर बहुत कम प्रभाव डाला। उनकी उम्मीदवारी और अभियान को काफी मीडिया कवरेज मिला; ऐसा लगभग लग रहा था जैसे वह विपक्ष के संयुक्त प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे। 

मुझे आश्चर्य है कि उदारवादी वहां थे या नहीं जब गिनती खत्म हुई - जिन्होंने इस बात की कसम खाई थी कि कन्हैया इस चुनाव का मुख्य आदमी होगा - कभी इस बात पर विचार किया कि ऐसा क्यों या कैसे हो सकता है; वह इस तरह के अपमानजनक मार्जिन से कैसे हार सकता है?

संघ का लेविथान (समुद्र का अदृश्य राक्षस)

कन्हैया कुमार क्यों और कैसे हार गए, इसका एक सबसे महत्वपूर्ण कारण संघ का संगठन है। संघ परिवार ने इस देश की लंबाई और चौड़ाई के लिए जो विशाल नेटवर्क बनाया है, वह एक लाख कांटों वाले ऑक्टोपस की तरह है। संघ के रूप में इस तरह के पौराणिक समुद्र राक्षस, लेविथान की तरह है। किसी ने भी इसे पूरी तरह से नहीं देखा है, और शायद, कोई भी इसे पूरी तरह से नहीं समझ सकता है। लेकिन, एक बात निश्चित है: यह एक संगठनात्मक मशीनरी है जो कभी नहीं सोती है। यह भारतीय साम्राज्य है जिस पर सूरज कभी अस्त नहीं होता है। इसका टर्नअराउंड समय गूगल के खोज इंजनों को शर्मसार कर सकता है।

अगर भारत में कहीं भी कुछ भी घटने या घट गई घटना के बारे में किसी भी (गलत) सूचना की जरूरत है, तो संघ परिवार आपको कुछ ही मिनटों में इसे दे सकता है। मान लीजिए कि उत्तर प्रदेश में तमिलनाडु के किसी व्यक्ति द्वारा किसी मुद्दे के बारे में जानकारी मांगी गई है, तो यह आपके लिए तमिल में जानकारी हासिल कर सकता है। 

और, देश भर में अपने गुर्गों के जरिए मलयालम, कन्नड़, तेलुगु, ओडिया, बंगाली, गुजराती, मराठी और इसी तरह की जानकारी उपलब्ध कराई जा सकती है। यह इस सुव्यवस्थित और शक्तिशाली नेटवर्क के खिलाफ भारत अपने धर्मनिरपेक्ष लोकाचार और लोकतांत्रिक साख को बनाए रखने के लिए लड़ रहा है। मुझे संदेह है कि क्या भारतीय उदारवादी वास्तव में इस स्थिति की गंभीरता को समझते हैं।

ज़मीन पर संगठन 

महुआ मोइत्रा संयुक्त राज्य अमेरिका में एक निवेश बैंकर थीं। वह भारत लौट आई और कुछ ही समय बाद चुनावी राजनीति में प्रवेश कर गईं। उन्होंने पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ काम किया क्योंकि वे इसे आज़माना चाहती थी – कांग्रेस भारतीय उदारवादियों का सुनहरा ख्वाब है। उन्हें जल्दी ही पता चल गया कि कांग्रेस के पैर उनके गृह राज्य पश्चिम बंगाल में ज़मीन पर नहीं है। 

एक वर्ष के भीतर, मोइत्रा आईएनसी छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) में शामिल हो गई। उन्हें समझ आ गया कि उनके लिए राजनेता के रूप में कैरियर बनाना कांग्रेस के मुकाबले टीएमसी में आसान होगा, क्योंकि उनके पास पश्चिम बंगाल में जमीन पर पैदल चलने वाले सैनिक थे। इसके अलावा, यह वैचारिक रूप से भी उनके लिए यह अच्छा विचार था, क्योंकि टीएमसी की किसी भी मामले पर कोई ठोस राय नहीं है।

चुनावी राजनीति में अपनी पहचान बनाने के लिए, मोइत्रा ने सोचा कि एक ऐसी पार्टी में शामिल होना सबसे अच्छा है, जिसका संगठन जमीन पर हो। उस पार्टी के लिए जमीन पर संगठन बनाना जिसमे ये पहले शामिल हुई थी ऊर्जा बर्बाद करने से ज्याद कुछ नहीं है।

उन्हें कोई दोषी नहीं ठहरा सकता। उन्होंने उन लोगों से सीखा जो भारतीय चुनावी राजनीति के लिए उदारवादी राह पर उनके आगे चल रहे हैं। उदाहरण के लिए शशि थरूर को ही ले लीजिए। विश्वयात्री अपनी पैतृक भूमि पर आए और जमीन पर खड़े एक संगठन वाली पार्टी कांग्रेस में शामिल हो गए। 

यह अलग मुद्दा है कि वे और उनकी पार्टी केरल में दक्षिणपंथ ओर झुकी हुई थी जब सबरीमाला मुद्दा उठा। यहां तक कि अपनी उदार छवि में सेंध लगने के जोखिम के बावजूद, वे सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ खड़े हो गए, जिस फैसले ने भारतीय संविधान की गरिमा को बरकरार रखा और विश्वास के मामलों में लैंगिक समानता का आह्वान किया। ध्यान रखें कि यह वही व्यक्ति है जो अपने भाषणों में दोहराता रहता है कि भारतीय संविधान को संरक्षित किया जाना चाहिए।

लेकिन क्यो? क्योंकि, जब चुनावी खेल की बात होती है तो संगठन मायने रखता है। आपको जमीन पर कार्यकर्ताओं की जरूरत होती है जो आपके लिए तत्काल मछली के स्टॉल लगाए और दादी को आपकी रैलियों में लाएं ताकि आप उन्हें गले लगा सकें और चित्रों के लिए पोज़ कर सकें। थरूर यह सब बहुत अच्छी तरह से जानते हैं, और यही बात मोइत्रा भी जानती है।

और, जब दोनों ने इस बात का प्रदर्शन किया है कि जरूरत पड़ने पर वे मजबूत संगठन के साथ जाएंगे, तो भारतीय धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की रक्षा की उनकी अंतिम परियोजना का क्या होगा? जमीन पर सत्ता के समेकन की बात आते ही उदारवादी मूल्य गायब हो जाते हैं। थरूर और मोइत्रा दोनों जानते हैं। एक उदारवादी उन्हें शायद जब दूर से देखता है तो लगता है शायद वे उदार नहीं है।

पश्चिम बंगाल 

मोइत्रा ने अपने भाषण में मुख्य बिंदुओं में से एक यह कहा कि: असंतोष की भावना भारत के लिए अभिन्न है। पश्चिम बंगाल, मोइत्रा का राज्य, भारत का अभिन्न हिस्सा है। उनकी पार्टी टीएमसी 2011 से सरकार में है। पिछले आठ वर्षों में, टीएमसी ने पश्चिम बंगाल की जनता के असंतोष को दबाने के लिए हमला किया है। उसका कोई उल्लेख नहीं है। 

उस घटना का कोई उल्लेख नहीं है जब टीएमसी नेता ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के रूप में कॉलेज के छात्रों पर माओवादी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) [सीपीआई (एम)] समर्थक होने का आरोप लगाया था। टीएमसी के तहत पश्चिम बंगाल में सैकड़ों वामपंथी कार्यकर्ताओं की हत्या का कोई जिक्र नहीं है? घरों पर हमलों का कोई उल्लेख नहीं है; उनकी आजीविका को तबाह कर दिया गया जो लोग असहमति प्रकट करते हैं। 

टीएमसी सरकार के तहत पुलिस हिरासत में मारे गए 22 वर्षीय छात्र सुदीप्तो गुप्ता का कोई जिक्र नहीं है।

उदारवादी शायद वामपंथ की परवाह नहीं करते। मोइत्रा ने फासीवाद के खतरे के संकेतों की एक श्रृंखला के बारे में कहा। उनमें से एक हमारे चुनाव प्रणाली की स्वतंत्रता का विनाश है। पश्चिम बंगाल में निर्वाचन प्रणाली के विनाश का यहां कोई उल्लेख नहीं है, विपक्षी उम्मीदवारों को उनके नामांकन न करने देना, मतदाताओं को मतदान करने की अनुमति देने से इनकार करना। पिछले साल के स्थानीय स्व-सरकारी चुनावों में हिंसा का कोई उल्लेख नहीं है। पश्चिम बंगाल में व्यापक धांधली का कोई उल्लेख नहीं है।

मोइत्रा ने इन बिंदुओं का उल्लेख नहीं किया। क्योंकि ये बिंदु उनकी छवि को कमजोर करते हैं।

भारतीय उदारवादी की आशा 

उदारवाद के प्रतीक के रूप में मूल्यों के साथ विश्वासघात करने का रिकॉर्ड है। राजीव गांधी, मेनका गांधी, राहुल गांधी, ममता बनर्जी – माइ साईं प्रत्येक को किसी न किसी समय एक आइकन के रूप में उठाया गया है। लेकिन प्रत्येक से निराशा ही हुई है – क्योंकि वे अक्सर नरम हिंदुत्व और मज़बूत हिंदुत्व के बीच की जटिलता में फंसे रहे।

देश में भयानक संकट के खिलाफ किसान और कृषि श्रमिक मार्च कर रहे थे। वन भूमि से जबरन बेदखली के खिलाफ आदिवासी मार्च निकाल रहे थे। दलित आम और नियमित लिंचिंग के खिलाफ धरना दे रहे थे। भारतीय समाज की भयानक घुटन के खिलाफ अल्पसंख्यक समुदाय आंदोलन पर हैं। बच्चे अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों के खिलाफ लड़ रहे हैं। महिलाएं पितृसत्ता के खिलाफ लड़ रही हैं। युवा बेरोजगारी के खिलाफ लड़ रहा हैं। भारत में बहुत से लोग आंदोलन कर रहे है। और फिर भी, इन सैकड़ों लाखों लोगों को बड़े पैमाने पर नजरअंदाज कर दिया जाता है, न केवल उदार प्रतीकों द्वारा, बल्कि उन लोगों द्वारा जो एक उद्धारकर्ता की तलाश में हैं। उद्धारकर्ता जनता में नहीं है, लेकिन सामयिक भाषण में है।

संघ परिवार सत्ता में है क्योंकि उसने जो संगठन बनाया है वह उसकी नींव है। थरूर और मोइत्रा जैसे लोग ऐसे उदार भाषण देने में सक्षम हैं क्योंकि उनके पास - उनके नीचे - एक बुनियादी ढांचा है जो क्रूर और असभ्य है। किसी उदारवादी ने उदार जन संगठन बनाने की कोशिश नहीं की। इससे पहले कि आप एक और उदार राजनेता को पदचिन्ह पर चले, यह पूछना सार्थक है: क्या आप संघ परिवार को चुनौती देने के लिए एक संगठन बनाने के लिए तैयार हैं और इसे जमीन पर नहीं दिखाने के लिए तैयार है?

सैमुअल मैथ्यू केरल में रहते हैं और स्वतंत्र शोधकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
 
 

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