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CAA तो नागरिकता देने का कानून है, तो विरोध क्यों?

आइए इसी सवाल के जवाब से इस पूरे कानून की पड़ताल करते हैं।
शाहीन बाग़

नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) तो नागरिकता देने का कानून है, नागरिकता लेने का नहीं?

CAA को लेकर चल रही बहस का ये सबसे पहला और सबसे भोला सवाल है। तो आइए इसी सवाल के जवाब से इस पूरे कानून की पड़ताल करते हैं। फिलहाल राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) को इस पड़ताल से बिल्कुल अलग रखते हैं। क्योंकि बहुत लोगों को ये वहम है कि CAA अकेला तो बुरा नहीं है, लेकिन NRC के साथ मिलकर ख़राब हो जाता है। ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि CAA अकेला भी ग़लत है और NRC के साथ मिलकर बहुत ग़लत हो जाता है। कैसे आइए यही समझने की कोशिश करते हैं।

शुरुआत इसी सवाल से कि नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (CAA) तो नागरिकता देने का कानून है, नागरिकता लेने का नहीं? तो आपको बता दें कि किसी को भी नागरिकता देने को लेकर किसी का कोई विरोध नहीं है। बिल्कुल भी नहीं। विरोध तो इस बात का है कि आप छह लोगों को तो नागरिकता देंगे लेकिन सातवें को नहीं और वो भी धर्म के आधार पर!

विरोध इसी बात का है। क्योंकि ये हमारे संविधान की मूल भावना का उल्लंघन है। वरना नागरिकता देने का कानून हमारे पास पहले से है। सभी देशों के पास होता है। हमारे पास इसके लिए कानून है- नागरिकता अधिनियम, 1955. आप जानते हैं नया कानून इसी में संशोधन करके बनाया गया है।

नागरिकता अधिनियम, 1955 यह रेगुलेट करता है कि कौन भारतीय नागरिकता हासिल कर सकता है और किस आधार पर। एक व्यक्ति भारतीय नागरिक बन सकता है, अगर उसने भारत में जन्म लिया हो या उसके माता-पिता भारतीय हों या एक निश्चित अवधि से वह भारत में रह रहा हो, इत्यादि।

इसके तहत एक अवैध प्रवासी द्वारा भारतीय नागरिकता हासिल करना प्रतिबंधित है। एक अवैध प्रवासी वह विदेशी है जो: (i) वैध यात्रा दस्तावेजों, जैसे पासपोर्ट और वीजा के बिना देश में प्रवेश करता है, या (ii) वैध दस्तावेजों के साथ देश में प्रवेश करता है लेकिन अनुमत समयावधि के बाद भी देश में रुका रहता है।

लेकिन ये संशोधित नागरिकता कानून कहता है कि तीन देशों बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई समुदाय को लोगों को यानी मुस्लिमों को छोड़कर सभी को बिना वैध दस्तावेज़ के भी नागरिकता दी जाएगी।

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सरकारी भाषा कुछ इस तरह है

" 2. In the Citizenship Act, 1955 (hereinafter referred to as the principal Act), in section 2,

in sub-section (1), in clause (b), the following proviso shall be inserted, namely:—

"Provided that any person belonging to Hindu, Sikh, Buddhist, Jain, Parsi or

Christian community from Afghanistan, Bangladesh or Pakistan, who entered into India on or before the 31st day of December, 2014 and who has been exempted by the Central Government by or under clause (c) of sub-section (2) of section 3 of the Passport (Entry into India) Act, 1920 or from the application of the provisions of the Foreigners Act, 1946 or any rule or order made thereunder, shall not be treated as illegal migrant for the purposes of this Act;".


इसे हिन्दी में कुछ यूं कहा गया है- “ नागरिकता अधिनियम, 1955 (जिसे इसमें इसके पश्चात मूल अधिनियम कहा गया है) की धारा 2 की उपधारा (1) के खंड (ख) के पश्चात निम्नलिखित परन्तुक अंत:स्थापित किया जाएगा, अर्थात :- परंतु अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान के हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई समुदाय के ऐसे व्यक्ति को जो 31 दिसंबर, 2014 को या उसके पूर्व भारत में प्रविष्ट हुआ और जिसे केंद्रीय सरकार द्वारा पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920 की धारा 3 की उपधारा (2) के खंड (ग) द्वारा या उसके अधीन अथवा विदेशियों विषयक अधिनियम, 1946 या उसके अधीन बनाए गए किसी नियम के उपबंधों या उसके अधीन किए गए किसी आदेश के लागू होने से छूट प्रदान की गई है, इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए अवैध प्रवासी के रूप में नहीं माना जाएगा।"

इस तरह यह नया संशोधन, संविधान की मूल भावना ख़ासकर आर्टिकल यानी अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।  

मूल अधिकारों के तहत आने वाला संविधान का आर्टिकल 14 क्या कहता है? आर्टिकल-14 कहता है- "Equality before law- The State shall not deny to any person equality before the law or the equal protection of the laws within the territory of India."

यानी " विधि के समक्ष समता- राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।"


आर्टिकल 14 के साथ ही आर्टिकल-15 जुड़ा है। इसमें कहा गया है, " धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध- (1) राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई भेद नहीं करेगा।"

इस तरह भारत का संविधान हर व्यक्ति को एक समान अधिकार देता है, हिन्दुओं को भी, मुस्लिमों को भी और अन्य को भी, इसलिए संशोधित नागरिकता कानून इसका उल्लंघन माना जा रहा है।

इसलिए हम इसे मुसलमान विरोधी नहीं बल्कि संविधान विरोधी और देश विरोधी कानून कहते हैं।

 

धार्मिक तौर पर प्रताड़ित अल्पसंख्यक

इसी के साथ दूसरा तर्क दिया जाता है कि ये संशोधित कानून तो पड़ोसी देशों में धार्मिक तौर पर प्रताड़ित अल्पसंख्यकों की नागरिकता की बात करता है। और इन तीन देशों बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में मुस्लिम तो अल्पसंख्यक नहीं हैं। ये तीनों तो इस्लामी गणराज्य हैं।

ये दलील भी गले नहीं उतरतीं।

इसमें पहला तर्क है पड़ोसी देश, तो श्रीलंका, म्यांमार, भूटान और नेपाल भी पड़ोसी देश हैं।

दूसरा तर्क है अल्पसंख्यक तो फिर श्रीलंका, म्यांमार, भूटान भी बौद्ध देश हैं। श्रीलंका में तमिल हिन्दू और म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमान धार्मिक तौर पर अल्पसंख्यक हैं। नेपाल भी 2008 से पहले हिन्दू राष्ट्र रहा। और ये कानून तो 1955 का संशोधन है तो फिर केवल तीन देशों के अल्पसंख्यकों की चिंता क्यों।

इसके बाद यह दलील आती है कि धार्मिक पहचान की वजह से उत्पीड़ित तो फिर श्रीलंका में तमिल हिन्दू और म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमान भी धार्मिक पहचान की वजह प्रताड़ित हुए।

और सबसे बड़ा झूठ तो यही धार्मिक प्रताड़ना की बात है, क्योंकि संशोधित नागरिकता कानून में धार्मिक प्रताड़ना (Religious persecution) का जिक्र ही नहीं किया गया है। कानून के साथ जुड़े अतिरिक्त पेज यानी "उद्देश्यों और कारणों का कथन" में ज़रूर धार्मिक प्रताड़ना का जिक्र किया गया है, लेकिन ये मूल अधिनियम में शामिल नहीं है।

कुछ लोग तर्क देंगे कि हमारे पूर्वजों गांधी, नेहरू, पटेल ने बंटवारे के समय ये आश्वासन दिया था कि जब भी पाकिस्तान में रह गए हिन्दू या अन्य अल्पसंख्यक ये चाहेंगे कि वे भारत में आकर रहे तो उन्हें स्वीकार किया जाएगा, लेकिन ये दलील भी थोथी है, क्योंकि बांग्लादेश और पाकिस्तान तो अविभाजित भारत के हिस्सा थे। लेकिन अफगानिस्तान तो हमारा हिस्सा नहीं था।

और यहां ये भी पूछा जाना चाहिए कि हमारे देश में जब कथित तौर पर इतनी मजबूत बीजेपी की सरकार है तो उसके होते हुए बांग्लादेश और पाकिस्तान या अफगानिस्तान जैसे छोटे देश अल्पसंख्यकों ख़ासकर हिन्दुओं का कैसे उत्पीड़न कर पा रहे हैं। ये तो बेहद शर्म की बात है। इस मामले में तो हमारी सरकार को वहां के अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने से पहले वहां की सरकारों की ख़बर लेनी चाहिए। भारत में उनके हाई कमिश्नर/राजदूत ही नहीं सीधे उनके प्रधानमंत्रियों से बात करनी चाहिए कि ऐसा कैसे और क्यों हो रहा है। और इसे तुरंत बंद किया जाना चाहिए।

ऐसे कैसे कोई भी पड़ोसी देश अपने अल्पसंख्यक हिन्दू, सिख व अन्य समुदाय का उत्पीड़न कर पा रहा है। नरेंद्र मोदी जी के होते हुए उनकी इतनी जुर्रत! वो मोदी जी जिनकी छाती 56 इंच की बताई जाती है!!

इतना ही नहीं अगर इस कथित राष्ट्रवादी सरकार के नज़रिये से देखा जाए तब भी यह संशोधन देश की सुरक्षा को नये तरीके से ख़तरे में डालता है, क्योंकि गृहमंत्री के शब्दों में " कागज़ है, नहीं है, आधा है, अधूरा है" के बावजूद सब शरणार्थियों (घुसपैठियों) को नागरिकता प्रदान की जाएगी तो क्या होगा? इस तरह तो देश की सुरक्षा और कानून-व्यवस्था के लिए एक नई चुनौती पेश नहीं आएगी?

और अंत में अगर हम सीएए को एनआरसी के साथ जोड़े देते हैं तो समझिए कि बेहद ख़तरनाक है। CAA अकेला बम है तो NRC के साथ मिलकर यह एटम बम बन जाता है। और दोनों वाकई में जुड़े हुए हैं, क्योंकि इसकी क्रोनोलॉजी कई बार हमारे माननीय गृहमंत्री अमित शाह समझा चुके हैं। कुछ लोग कहेंगे कि प्रधानमंत्री तो इससे इंकार कर चुके हैं तो उन्हें समझना चाहिए कि गृहमंत्री ने ये बात सदन में भी कही है जो रिकॉर्ड में है, जबकि प्रधानमंत्री ने अपनी बात एक राजनीतिक रैली में की है। जैसे 15 लाख की कही थी, जिसे बाद में जुमला बता दिया गया। और अगर प्रधानमंत्री के शब्दों पर ध्यान दें तो साफ हो जाता है कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा कि हम एनआरसी नहीं लाएंगे, उन्होंने कहा कि अभी इस पर बात नहीं हुई है। विचार नहीं हुआ है। कैबिनेट नहीं हुई है। आज बढ़ते विरोध की वजह से वह ऐसा कह रहे हैं, कल इससे मुकर भी सकते हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय जनगणना रजिस्टर (NPR) इसी से जुड़ा है। 2003 में अटल बिहारी सरकार के ज़माने में इसमें जो संशोधन किया गया उसके अनुसार इसका डेटा NRIC (NRC) में प्रयोग हो सकता।

नागरिकता अधिनियम 1955 में संशोधन करके तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने इसमें ''अवैध प्रवासी'' की एक नई श्रेणी जोड़ी। 10 दिसंबर, 2003 को गृह मंत्रालय की ओर से जारी किए गए नोटिफ़िकेशन में साफ़ बताया गया है कि कैसे एनआरआईसी यानी एनआरसी, एनपीआर के डेटा पर निर्भर होगा। बीबीसी की एक ख़बर कहती है कि मोदी सरकार ने पहले कार्यकाल में संसद में कम से कम नौ बार ये कहा है कि देश भर में एनआरसी, एनपीआर के डेटा के आधार पर की जाएगी।

कुछ लोग कहते हैं कि सबसे पहले NPR मनमोहन सरकार ने 2010 में बनाया जिसे 2015 में अपडेट किया, लेकिन उस समय किसी ने विरोध नहीं किया। तो एक उत्तर तो यही कि उस समय न CAA और न NRC की बात सामने आई थी। न ही असम का उदाहरण हमारे सामने था। साथ ही बताया जा रहा है कि अब NPR के लिए कई सवाल बढ़ाए गए हैं, जिससे साफ आशंका है कि NPR के जरिये ही NRC की तरफ़ जल्द बढ़ा जाएगा। और आशंका ही क्या मोदी सरकार की दूसरी पारी की शुरुआत में संसद के संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति अपने अभिभाषण में NRC के प्रति अपनी सरकार की प्रतिबद्धता जता चुके हैं और आप सब जानते हैं कि राष्ट्रपति सरकार का ही लिखा हुआ अभिभाषण पढ़ते हैं। यानी राष्ट्रपति का अभिभाषण सरकार की ही मंशा और कार्यक्रम होता है।

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