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चुनाव 2019 : एग्ज़िट पोल के विरोधाभास और उससे उपजी चिंताएं

यूं तो समझदार लोग कहेंगे कि एग्ज़िट पोल केवल मनोरंजन के लिए हैं, और होना भी ऐसा ही चाहिए, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है?
सांकेतिक तस्वीर

यूं तो समझदार लोग कहेंगे कि एग्ज़िट पोल केवल मनोरंजन के लिए हैं, और होना भी ऐसा ही चाहिए, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है

इसके सही-ग़लत होने या इसके नफ़ा-नुकसान को जांचने-परखने से पहले इसके कुछ विरोधाभासों की बात कर लेते हैं। उन फांकों की, उन दरारों की जो इन एग्ज़िट पोल में साफ तौर पर दिखाई दे रही हैं।

सबसे पहले बात उस अंतर की जो नंगी आंखों से बिना कोई जोड़-घटाए दिखाई दे रहा है, वो है एक एग्ज़िट पोल से दूसरे एग्ज़िट पोल के बीच एक ही पार्टी की सीटों के बीच करीब 90 सीटों का फर्क़।

जिस देश में एक वोट से सरकार बनी और गिरी हो वहां एक ही पार्टी और वो भी सत्तारूढ़ पार्टी की सीटों में 90 का अंतर चौंकाता भी है और एग्ज़िट पोल करने वाले चैनलों और एजेंसियों की पद्धति पर भी सवालिया निशान लगाता है। अब दो एजेंसियों को मिले रुझान इतने अलग कैसे हो सकते हैं जबकि दोनों ही एक बड़ा सैंपल लेने का दावा कर रहे हों।  

आइए पहले देख लेते हैं कि चुनाव ख़त्म होते ही सबसे पहले हम-सबसे सटीक हम के दावे के साथ भविष्यवाणी करने को आमादा न्यूज़ चैनलों और एजेंसियों ने चुनाव 2019 के क्या रुझान दिए हैं। जिन्हें वे अपनी विशिष्ट और आक्रमक शैली के साथ लगभग नतीजों के तौर पर पेश करते हैं।

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(तालिका साभार)

ये वो तालिका या एग्ज़िट पोल है जिसमें बीजेपी+ और कांग्रेस+ के अलावा सभी को अन्य के खाने में डाल दिया गया है। ये हमारा नया लोकतंत्र है जहां तीसरी ताकतें अन्य में गिनी जाती हैं। और सहयोगी दल + में। इन्हें एनडीए और यूपीए की तरह भी कम ही चैनल या एजेंसियां दर्शाती हैं।

अब इस फर्क़ को देखा जाए। एबीपी-नीलसन का एग्ज़िट पोल बीजेपी+ यानी एनडीए को 277 सीट दे रहा है जबकि आज तक-एक्सिस माय इंडिया सबसे ज़्यादा 339 से 365 सीट दे रहा है। इन दोनों दावों या अनुमानों के बीच 62 सीट से लेकर 88 सीट तक का फर्क़ है। यूपीए के बीच इन दोनों पोल का अंतर 22 से लेकर 53 तक है। इसी तरह अन्य के लिए 42 से 68 तक है। अब इतने बड़े अंतर को क्या कहेंगे?

आज तक-एक्सिस माय इंडिया तो अपने ही आंकडों में बहुत गुंजाइश लेकर चल रहा है। ये एग्ज़िट पोल एनडीए को 339 से 365 सीट दे रहा है। इसमें ही 26 सीट का अंतर है। यानी स्विंग का मार्जिन अच्छा-ख़ासा है। इसी तरह यूपीए को 77 से 108 सीट का अनुमान है जिसके बीच 31 सीटों का अंतर आता है। अन्य के लिए भी यह अंतर 26 सीटों का है। मतलब आज तक-एक्सिस माय इंडिया की कोशिश है कि चित भी मेरी-पट भी मेरीरहे। इतनी सीटों का अंतर खेल बना भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है।  

इसके अलावा भी कुछ और एग्ज़िट पोल हुए हैं।

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एक पोल ऐसा है जिसने खुद को एग्ज़िट पोल नहीं कहा है बल्कि पोस्ट पोल कहा है। और बिना किसी दावे के विस्तार के साथ इसका ब्योरा दिया है। ये शायद इसलिए है कि ये किसी आर्थिक या अन्य लाभ के लिए नहीं किया गया है, बल्कि अकादमिक उद्देश्यों से किया गया है। इस पर भी एक नज़र डाल लीजिए।

ओपनियन पोल या एग्ज़िट पोल आज एक बड़ा बिजनेस बन गया है। इसमें अरबों-खरबों के वारे न्यारे होते हैं। न्यूज़ चैनल-एजेंसियों से लेकर सट्टा बाज़ार तक इसमें बड़ा पैसा लगा होता है। इसलिए इन्हें इतनी बड़ी तादाद में और बार-बार किया जाता है और इस आक्रमता से पेश किया जाता है, इस अंदाज़ में बहस आयोजित की जाती हैं कि बस यही सही हैं।  

हालांकि हर ओपिनयन या एग्ज़िट पोल के कुछ नियम हैं। आंकड़े जुटाने से लेकर उसके विश्लेषण का एक मेथड है, एक तरीका है। सच्चाई के करीब पहुंचने के लिए बड़े से बड़ा सेंपल लेना होता है और उसमें भी ये ख़्याल रखना ज़रूरी होता है कि समाज के हर हिस्से का उसमें प्रतिनिधित्व हो। यानी हर जाति-संप्रदाय, आय वर्ग के साथ स्त्री-पुरुष का भी बराबर अनुपात हो।

इसका एक पूरा वैज्ञानिक तरीका है फिर भी ज़मीन पर जनता की नब्ज़ पकड़ने में ये पोल बार-बार चूके हैं। उसकी वजह शायद यही है कि नियमों का पूरी ईमानदारी से पालन नहीं किया गया। ओपनियन जानने की बजाय ओपनियन बनाने, गढ़ने और मन-मुताबिक निष्कर्ष निकालने की कोशिश रही।

यही वजह है कि देश-दुनिया की जनता ने बार-बार इन ओपनियन और एग्ज़िट पोल को फेल किया है। झूठा साबित किया है, फिर भी ये खेल (बिजनेस) बढ़ता ही जा रहा है। अभी ऑस्ट्रेलिया चुनाव को लेकर किए गए ओपनियन और एग्ज़िट पोल फेल हो गए हैं। जबकि वहां महज़ दो करोड़ मतदाता भी नहीं थे। सभी पोल वहां लेबर पार्टी की जीत बता रहे थे जबकि जीत मिली स्कॉट मॉरिसन की सत्तारूढ़ गठबंधन सरकार को।

आपको बताएं कि आज जिस तरह हमारे देश में मोदी-मोदी का शोर है और आएगा तो मोदी ही, मोदी के अलावा कौन? जैसे दावों से जनमत बनाने की कोशिश की गई है उसी तरह 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के ज़माने में इंडिया शायनिंग और फील गुड के नारे के साथ भारी-भरकम ख़र्च के साथ चुनाव में उतरा गया था। और एग्ज़िट पोल ने भी आज की तरह ही एनडीए सरकार की वापसी का लगभग ऐलान कर दिया था। लेकिन हुआ उसका उलट था। उस चुनाव में जब असल नतीजे आए तो एनडीए बहुमत से बहुत दूर रह गया था और यूपीए ने तीसरे मोर्चे के समर्थन से सरकार बना ली थी।

देखिए 2004 का एग्ज़िट पोल

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इसी तरह 2009 में यूपीए को बहुमत से काफी दूर बताया गया लेकिन वो फिर बहुमत के करीब पहुंच गया था।

2014 में यूपीए के ख़िलाफ़ स्पष्ट गुस्सा था। अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने यूपीए को काफी नुकसान पहुंचाया था। और बीजेपी और मोदी के पक्ष में एक स्पष्ट लहर थी। उनका अच्छे दिन का नारा चल गया था। विदेशों से काला धन आने और 15 लाख मिलने की भी इच्छा जाग गई थी। उस समय सबने एनडीए की सरकार बनने की उम्मीद जताई थी लेकिन तब भी एग्ज़िट पोल में दिए गए आंकड़ों से ज़्यादा एनडीए ने हासिल किए थे और यूपीए की हालत उम्मीद से ज़्यादा ख़राब हो गई थी।

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इससे अगले ही साल हुए दिल्ली और बिहार विधानसभा के चुनाव में तस्वीर बदल गई और एग्ज़िट पोल पूरी तरह फेल हो गए। सभी एग्ज़िट पोल बिहार विधानसभा में एनडीए को बढ़त देते हुए उसकी सरकार बनने की भविष्यवाणी कर रहे थे लेकिन हुआ उलट और जेडीयू और आरजेडी के गठबंधन ने भारी जीत हासिल कर सरकार बनाई। हालांकि बाद में नीतीश पलट गए और बीजेपी के पाले में चले गए। अब वहां नीतीश के नेतृत्व में एनडीए की सरकार है। 

बिहार विधानसभा चुनाव 2015 : एग्ज़िट पोल और असल नतीजे

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देश की राजधानी दिल्ली जहां 2014 में सातों की सातों लोकसभा सीट बीजेपी की झोली में आईं वहां 2015 में हुए विधानसभा के चुनाव में मोदी का जादू नहीं चला, जबकि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल 2013 में कांग्रेस के समर्थन से बनी अपनी 49 दिनों की अल्पमत सरकार को छोड़ चुके थे और लोग उनसे नाराज़ बताए जा रहे थे, उन्होंने जीत हासिल की। हालांकि एग्ज़िट पोल आप की सरकार बनने का दावा ज़रूर कर रहे थे लेकिन ऐसी बंपर जीत की भविष्यवाणी किसी ने नहीं की थी जितनी हुई। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की कुल 70 सदस्यीय विधानसभा में अभूतपूर्व ढंग से 67 सीटें हासिल कीं और बीजेपी को मात्र 3 सीटों पर पहुंचा दिया। दूसरी बड़ी पार्टी और आप से पहले दिल्ली पर लगातार राज करने वाली कांग्रेस का तो इस चुनाव में खाता ही नहीं खुला।

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अब बात करते हैं 2017 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की। इस पर भी एक नज़र डाल लीजिए। यहां भी एग्ज़िट पोल पूरी तरह सही साबित नहीं हुए। एक-दो के अलावा किसी एजेंसी के एग्ज़िट पोल में बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं था लेकिन उसने सबको चौंकाते हुए 325 सीटें जीतीं। और समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन ने मुंह की खाई। जबकि कई एग्ज़िट पोल उसे हार के बावजूद सम्मानजनक सीट दे रहे थे। बहुजन समाज पार्टी भी इस चुनाव में अच्छा नहीं कर पाई।

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अब आ गया है 2019। जिसका शोर 2015 से ही शुरू हो गया था। करीब ढाई महीने की लंबी थकाऊ कवायद के बाद रविवार 19 मई को सात दौर का चुनाव समाप्त हुआ और अब नतीजों का इंतज़ार है जो 23 मई को आएंगे लेकिन उससे पहले आए एग्ज़िट पोल ने उन सबको ग़लत साबित कर दिया है जिन्होंने ज़मीन पर जनता की नब्ज़ पकड़ने की कोशिश की और बताया कि इन चुनावों में बेरोज़गारी एक प्रमुख मुद्दा है और रोज़गार न मिलने से युवाओं में काफी गुस्सा है। किसान-मज़दूरों में भी गुस्सा है जो लगातार कई आंदोलन में जाहिर भी हुआ। 2018 के अंत में दिल्ली में किसानों ने बड़ा मार्च निकालकर मोदी सरकार को बता दिया कि उसकी उल्टी गिनती शुरू हो गई है। देश भर में 20 करोड़ मज़दूरों की हड़ताल भी सरकार के लिए एक बड़ी चेतावनी थी। छात्र-शिक्षक भी सड़क पर लगातार आंदोलन करते दिखे। महिलाओं ने भी मोर्चा संभाला। और नफ़रत, सांप्रदायिकता के सभी अभियानों की हवा निकाल दी। यही वजह थी कि अयोध्या में मंदिर का मुद्दा फिर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। हालांकि फिर हुआ पुलवामा और उसके जवाब में बालाकोट। इसने देश का सेंटीमेंट काफी बदला। मोदी के प्रचार तंत्र ने राष्ट्रवाद को एक बड़ा मुद्दा बना दिया, लेकिन पहले दो दौर के चुनाव के बाद इसकी भी हवा निकलती दिखाई दी। ज़मीन पर काम कर रहे, देशभर के अलग-अलग हिस्सों में धूल फांक रहे पत्रकार, और अन्य लोग बता रहे थे कि मोदी का जादू नहीं चल पा रहा है। कहीं कोई लहर नहीं है। पाकिस्तान विरोध भी अब उस तरह का उन्माद नहीं जगा पा रहा। कांग्रेस की न्याय योजना भी ने लोगों को आकर्षित किया है और यूपी-बिहार के महागठबंधन बेहद मजबूत हैं जिन्होंने बीजेपी के पांव के नीचे से ज़मीन निकाल दी है इसलिए खड़े रहने के लिए बीजेपी पश्चिम बंगाल और ओडिशा में ज़्यादा ज़ोर लगाए है। लेकिन एग्ज़िट पोल इस सबको झुठला रहे हैं। यानी गली-गली घूम रहे स्थानीय और देश के वरिष्ठ पत्रकार और एक्टिविस्ट वास्तविकता को भांप नहीं पा रहे थे? इन सबके अनुमान झूठे हो सकते हैं लेकिन क्या लोगों का गुस्सा और रोज़ी-रोटी की चिंताएं भी झूठी हैं जो तमाम ज़मीनी आंदोलनों और सोशल साइट्स के माध्यम से झलकती रही हैं।

इसलिए इन एग्ज़िट पोल को लेकर चिंता होती है कि क्या इन्हें केवल दो दिन का मनोरंजन और माथापच्ची समझा जाए या कुछ और जिसकी बड़ी कीमत हमारे लोकतंत्र को चुकानी पड़े।

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