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चुनाव विशेष : मध्य प्रदेश में जातिगत राजनीति की दस्तक!

मध्य प्रदेश की राजनीति में कभी भी उत्तर प्रदेश और बिहार की तरह जातिगत मुद्दे हावी नहीं रहे हैं लेकिन कुछ परिस्थितियों के चलते इस बार इसमें बदलाव देखने को मिल रहा है।
मध्य प्रदेश में बदलती राजनीति। (सांकेतिक तस्वीर)

चुनाव से ठीक पहले मध्य प्रदेश के सियासी मिजाज में बदलाव देखने को मिल रहा है। यहां राजनीति में कभी भी उत्तर प्रदेश और बिहार की तरह जातिगत मुद्दे हावी नहीं रहे हैं लेकिन कुछ परिस्थितियों के चलते इस बार इसमें बदलाव देखने को मिल रहा है। दरअसल एससी-एसटी संशोधन विधेयक पारित होने का सबसे तीखा विरोध मध्य प्रदेश में ही देखने को मिला है जिसके घेरे में कांग्रेस और भाजपा दोनों हैं।

इस साल 20  मार्च को सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी अत्याचार निरोधक कानून को लेकर दिये गये फैसले को लेकर दलित संगठनों द्वारा तीखा विरोध किया गया था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ दलित संगठनों ने 2 अप्रैल को 'भारत बंद' किया था, इस दौरान सबसे ज्यादा हिंसा मध्य प्रदेश के ग्वालियर और चंबल संभाग में हुई थी। इन हिंसक झड़पों के 6 से अधिक लोगों की मौत हो गयी थी।

दलित संगठनों की प्रतिक्रिया और आगामी चुनावों को देखते हुये केंद्र सरकार द्वारा कानून को पूर्ववत रूप में लाने के लिए एससी-एसटी संशोधन बिल संसद में पेश किया था जिसे दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया। इसके बाद से लगातार स्वर्ण संगठनों की प्रतिक्रिया सामने आ रही है। 6 सितम्बर को सवर्ण संगठनों द्वार सरकार के इस फैसले के खिलाफ भारत बंद का आयोजन किया गया जिसका मध्य प्रदेश में अच्छा-ख़ासा असर देखने को मिला। चुनाव के मुहाने पर खड़े मध्य प्रदेश में सवर्ण संगठनों की तीखी प्रतिक्रिया से सियासी दल हैरान हैं। भाजपा-कांग्रेस दोनों ही दलों के नेताओं को जगह-जगह सवर्णों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है।

चूंकि भाजपा को बुनियादी तौर पर सवर्णों की पार्टी माना जाता रहा है, यही उसका मूल वोटबैंक है लेकिन आज उसका मूल वोट ही खार खाये बैठा है। देश और प्रदेश में भाजपा ही सत्ता में है इसलिये एससी-एसटी अत्याचार निरोधक कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने का सबसे ज्यादा विरोध भी भाजपा और उसके नेताओं का ही हो रहा है। जगह-जगह भाजपा नेताओं और मंत्रियों के बंगले का घेराव  किया गया था और काले झंडे दिखाए गये हैं।

लेकिन अकेले एससी-एसटी अत्याचार निरोधक कानून ही नहीं है जो भाजपा के गले की हड्डी बन गया है, मध्य प्रदेश में सवर्णों के इस गुस्से की एक पृष्ठभूमि है, दरअसल दिग्विजय सिंह की सरकार द्वारा 2002 में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण देने को लेकर कानून बनाया गया था, जिसे बाद में  शिवराज सरकार द्वारा भी लागू रखा था। बाद में पदोन्नति में आरक्षण को लेकर हाईकोर्ट में चुनौती दी गई, जिस पर 30 अप्रैल 2016 को जबलपुर हाईकोर्ट द्वारा मध्य प्रदेश लोक सेवा (पदोन्नति) नियम 2002 को निरस्त कर दिया था और साथ ही 2002 से 2016 तक सभी को रिवर्ट करने के आदेश दिए थे जिसके बाद इस नियम के तहत करीब 60 अजा-जजा (एससी-एसटी) के लोकसेवकों की पदोन्नति पर सवालिया निशान लग गया था। हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद अजा–जजा वर्ग के संगठन अजाक्स ने भोपाल में एक बड़ा सम्मेलन किया था जिसमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बिना बुलाए पहुँच गए थे जहां उन्होंने मंच से हुंकार भरी थी कि “हमारे होते हुए कोई ‘माई का लाल’ आरक्षण समाप्त नहीं कर सकता।” इसके बाद मध्य प्रदेश सरकार ने हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पीटिशन लगा दिया था और साथ ही शिवराज सिंह ने ऐलान भी किया था कि सुप्रीम कोर्ट में केस नहीं जीत पाए तो भी प्रमोशन में आरक्षण जारी रखेंगे भले ही इसके लिये विधानसभा में नया कानून बनाना पड़े। फिलहाल यह मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है।

शिवराज सरकार के इस रवैये से अनारक्षित वर्ग के कर्मचारियों में नाराजगी पहले से ही बनी हुयी थी। करीब दो साल पहले शिवराज द्वारा दिया गया “माई का लाल” बयान अब उनके ही गले की हड्डी बनता जा रहा है। 2016 में शिवराज सरकार के दलितों को पुरोहित बनाने के फैसले को लेकर भी विवाद की स्थिति बनी थी जिसमें अनुसूचित जाति, वित्त एवं विकास निगम द्वारा राज्य शासन को भेजे गये प्रस्ताव में कहा गया था कि ‘अनुसूचित जाति की आर्थिक व सामाजिक उन्नति और समरसता के लिए “युग पुरोहित प्रशिक्षण योजना” शुरू किया जाना प्रस्तावित है जिसमें दलित युवाओं को अनुष्ठान, कथा, पूजन और वैवाहिक संस्कार का प्रशिक्षण दिया जाएगा। इसको लेकर  ब्राह्मण समाज द्वारा इसका प्रदेश भर में तीखा विरोध किया गया जिसके बाद मध्यप्रदेश के संसदीय कार्यमंत्री नरोत्तम मिश्रा को बयान देना पड़ा था कि 'मध्य प्रदेश में दलितों को कर्मकांड सिखाने की कोई योजना प्रस्तावित नहीं है।'

मध्य प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों का जाति के आधार पर विभाजन हो गया है जिसमें एक तरफ सपाक्स (सामान्य पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक कल्याण समाज संस्था) के बैनर तले सामान्य, पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वर्ग के कर्मचारी हैं तो दूसरी तरफ अजाक्स (अनुसूचित जाति जनजाति अधिकारी कर्मचारी संघ) के बैनर तले अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के कर्मचारी हैं। प्रदेश में करीब 7 लाख सरकारी कर्मचारी हैं जिसमें अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के कर्मचारियों की संख्या करीब 35 फीसदी और सामान्य, पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वर्ग के कर्मचारियों की संख्या 65 फीसदी बतायी जाती है। यानी सपाक्स से जुड़े कर्मचारियों की संख्या ज्यादा है।

हालांकि पिछड़ा वर्ग के कर्मचारी किसके साथ हैं इसको लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुयी है। सपाक्स और अजाक्स दोनों दावा कर रहे हैं कि पिछड़ा वर्ग उनके साथ है जबकि दूसरी तरफ पिछड़ा वर्ग के सामाजिक संगठनों में इसको लेकर एकराय देखने तो नहीं मिल रही है। पिछड़ा वर्ग के कुछ सपाक्स को समर्थन दे रहे हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो अजाक्स के साथ होने की बात कह रहे हैं। बहरहाल  सपाक्स की नाराजगी शिवराज और भाजपा पर भारी पड़ सकती है। सपाक्स चित्रकूट, मुंगावली और कोलारस विधानसभा के उपचुनाव में सरकार के खिलाफ अभियान चला चुका है। इन तीनों जगहों पर भाजपा की हार हुई थी जिसमें सपाक्स अपनी भूमिका होने का दावा कर रहा है। सपाक्स ने 2 अक्टूबर 2018, गांधी जयंती के मौके पर अपनी नयी पार्टी लॉन्च करते हुए सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है।

जानकार मानते हैं कि सर्वणों के गुस्से का सबसे ज़्यादा नुकसान तो भाजपा का ही होना है, लेकिन कांग्रेस के लिये भी यह कोई राहत वाली स्थिति नहीं है, पिछले कुछ महीनों से वो जिन मुद्दों पर शिवराज सरकार को घेरने की कोशिश कर रही थी वो पीछे छूटते हुये नजर आ रहे हैं, किसान, भ्रष्टाचार, नोटबंदी, जीएसटी और कुपोषण जैसे मुद्दे फिलहाल नेपथ्य में चले गये लगते हैं। ऐसे में कांग्रेस को नये सिरे से सियासी बिसात बिछाने की जरूरत महसूस हो रही है। शायद इसी वजह से कांग्रेस द्वारा बहुत सधे हुये तरीके से सवर्णों के साथ सहानुभूति का संदेश दिया जा रहा है। बहरहाल सवर्ण आन्दोलन की वजह से दोनों पार्टियों के चुनावी समीकरण बिगड़े हैं।

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