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चुनावी बॉन्ड : चंदा या काली कमाई का ‘कट’!

इलेक्टोरल यानी चुनावी बॉन्ड से चुनाव में कालेधन के इस्तेमाल को रोकने का दावा किया गया था। मगर, यहां तो कालेधन से ज्यादा कालाधन कुबेरों को संरक्षण देने की मंशा झलक रही है।
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: Naidunia

अरुण जेटली ने देश को इलेक्टोरल (चुनावी) बॉन्ड के बारे में 2017 में पहली बार बताया था कि इसका मकसद राजनीतिक चंदे को पारदर्शी बनाना है। मगर, जब इसके नतीजे सिर्फ और सिर्फ सत्ताधारी दल बीजेपी को 95 फीसदी गोपनीय चंदे के रूप में सामने आए, तो ऐसा लगा मानो राजनीतिक चंदे के चारों ओर ऐसा शीशा लगा दिया गया हो जिसके अंदर से बाहर का सबकुछ दिखता हो, लेकिन अंदर क्या हो रहा है इसे बाहर वाले समझ न सकें।

सुप्रीम कोर्ट ने अंदर क्या हो रहा है इसे बताने के लिए कुछ रोशनी की है। सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राजनीतिक दलों को आदेश दिया है कि वे 30 मई तक सीलबंद लिफाफे में चुनाव आयोग को इलेक्टोरल बॉन्ड के रूप में मिले चंदे की जानकारी सीलबंद लिफाफे में दे। इसमें चंदा देने वाले, चंदे की राशि और बॉन्ड से जुड़ी बाकी जानकारियां भी शामिल हैं।

चुनावी बॉन्ड या इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदा देने वाले धनकुबेर दुनिया से जरूर अपना चेहरा छिपाना चाहते हों, लेकिन जिस राजनीतिक दल को वे लाभ पहुंचा रहे हैं उससे वे पर्दा करें, इसका कोई तर्क नहीं बनता। लिहाजा राजनीतिक दल के पास इलेक्टोरल बॉन्ड के रूप में सभी दान देने वालों का पूरा ब्योरा जरूर होगा। फिर भी यह तमाशा होना अभी बाकी है जिसमें वे कहते दिख सकते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड उन्हें कूरियर से आया, या किसी व्यक्ति से भेजा गया या फिर ऐसे तरीके से, जिसमें वे सबका ब्योरा नहीं रख पाए।  

विपक्षी दलों से दूर क्यों रहे इलेक्टोरल बॉन्ड?

95 फीसदी चंदा सिर्फ सत्ताधारी दल को मिलना ही यह  बताता है कि चंदा देने वाले मानते भी हैं और जानते भी हैं कि यह जानकारी सत्ताधारी दल से छिपी नहीं रह सकती कि किसने इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे। यह सबसे बड़ी वजह हो सकती है कि बीजेपी को छोड़कर दूसरे दलों को चंदा देने के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड से परहेज किया गया। मगर, इस आशंका का आधार क्या है?

पहली बात ये है कि इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाले की पहचान बैंक के पास सुरक्षित करानी होती है। इसका खरीदार व्यक्ति, कंपनी, फर्म या अविभाजित हिन्दू परिवार हो सकता है। बॉन्ड के खरीददार चाहें तो इसका फायदा टैक्स डिडक्शन में भी ले सकते हैं। ये बॉन्ड 1000, 10 हज़ार, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ के रूप में होते हैं। जाहिर है कि बेचे गये हर बॉन्ड का लेखा बैंक रखता है।

इससे जुड़ी दूसरी और महत्वपूर्ण बात जो एक मीडिया संस्थान के खुलासे से सामने आयी है वो यह कि इलेक्टोरल बॉन्ड में कई तरह के नम्बर अंकित होते हैं जो नंगी आंखों से नहीं देखे जा सकते। फॉरेंसिक लैब में जांच के बाद इसका पता चला। जाहिर है कि इस तरह से प्राप्त सूचना का इस्तेमाल एक दल किसी दूसरे दल के दानदाताओं की जानकारी लेने में कर सकता है।

इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक चंदे का ऐसा माध्यम बनकर उभरा है जो सत्ताधारी दल को धनकुबेरों से चंदा दिलाता है और यह भी सुनिश्चित करता है कि विरोधी दलों को चंदा न मिले या कम से कम मिले। 2017 के बजट में इलेक्टोरल बॉन्ड को लाने के पीछे भी 2019 के आम चुनाव में इसका फायदा उठाना अधिक लगता है। हालांकि यह आगे भी जारी रहने वाला है।

पारदर्शिता की कीमत पर है इलेक्टोरल बॉन्ड

चोरी-छिपे चंदा देने में पारदर्शिता क्या है जिसकी चर्चा केंद्र सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड की योजना शुरू करते समय की थी। इलेक्टोरल बॉन्ड से चुनाव में कालेधन के इस्तेमाल को रोकने का दावा किया गया था। मगर, यहां तो कालेधन से ज्यादा कालाधन कुबेरों को संरक्षण देने की मंशा झलक रही है। राजनीतिक दलों के पास बैंक के माध्यम से रकम जाए, इतने भर से सबकुछ ठीक नहीं हो जाता।

दरअसल चंदे के तौर पर कालाधन लेने का तरीका ही रिवर्स कर दिया गया है। राजनीतिक दल पहले कालाधन कुबेर को टारगेट करें, उन्हें मोटे चंदे का आदेश दें और फिर कहें कि जाओ हमारे लिए इलेक्टोरल बॉन्ड खरीद लो। किस कालाधन कुबेर की मजाल होगी जो ऐसा नहीं करेगा, खासकर तब जब यह आदेश ताकतवर राजनीतिक दल की ओर से आए। राजनीति में ताकत के लिए सत्ता से बड़ी कोई चीज नहीं होती। 95 फीसदी इलेक्टोरल बॉन्ड एक ही दल के लिए खरीदे जाने का मतलब यहां साफ हो जाता है।

चंदे का ब्योरा जनता से क्यों छिपाया जाए

सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों को सीलबंद लिफाफे में जो जानकारी चुनाव आयोग से साझा करने का आदेश दिया है उसका औचित्य तब तक जनहितकारी नहीं होगा जब तक कि यह जानकारी जनता को न दी जाए। अन्यथा चुनाव आयोग के रूप में एक और राजदार तो पैदा हो जाएगा, मगर राजनीति में कालाधन का उपयोग नियंत्रित नहीं किया जा सकेगा।

चोरी छिपे चंदा पहले भी राजनीतिक दल लेते थे। अब उसे वैधानिक और व्यवस्थित तरीके से लेने का रास्ता खोज निकाला गया है। इसे चंदे के बजाये काली कमाई का कट कहा जाए, आप चाहें तो काली कमाई में हिस्सेदारी भी कह सकते हैं। सूचना सार्वजनिक नहीं करने की कीमत भी कह सकते हैं। इसे सत्ता में रहने वाली पार्टी का जजिया भी कह सकते हैं। आप चाहें इसे जो कहें लेकिन चंदा लेने-देने की यह नयी व्यवस्था और नया स्वरूप छोटे व क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के साथ भेदभाव भी है और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कालेधन कुबेरों की दौलत से कब्जा करने की एक कोशिश भी।

इसे भी पढ़ें : चुनावी बॉन्ड का विवरण 30 मई तक चुनाव आयोग को सौंपने का आदेश

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