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सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट: क्या मौजूदा हुकूमत दिल्ली के क्रूर इतिहास से बच पाएगी?

पहले भी कई महान राजधानी शहर बनाए गए हैं, मगर स्मारकीय वास्तुकला के माध्यम से किसी भी  हुकूमत द्वारा सत्ता का प्रदर्शन शहर के इतिहास में लंबे समय तक नहीं टिक पाया है।
सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट
Image Courtesy: Indian Express

"जिसने भी दिल्ली में नए शहर बनाए, उसने हमेशा दिल्ली को खो दिया।" - विलियम डेलरिम्पल, द सिटी ऑफ़ जिन्स।

हालांकि, उपरोक्त फ़ारसी भविष्यवाणी या कथन का वास्तविक संदर्भ और निहितार्थ बहस का विषय हो सकती है, लेकिन इसकी एक बड़ी व्याख्या यह हो सकती है कि जिसने भी दिल्ली को नष्ट किया है और उसका पुनर्निर्माण किया, वह कभी भी दिल्ली पर शासन करने में सक्षम नहीं हो सका। कुछ दुर्भाग्य कहिए या कुछ सामाजिक बदलाव जिनके चलते हमेशा व्यवस्था बदली है और इसके निर्माण करने वाले को हमेशा अलविदा कहने को मजबूर होना पड़ा था। 

कहा जाता है कि वर्तमान शहर जिसमें हम आज रह रहे हैं वह सात महान राजधानी शहरों का नतीज़ा है, जिसमें नवीनतम शहर नई दिल्ली है जिसका उद्घाटन 1931 में ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की शाही राजधानी के रूप में किया गया था।

दिल्ली के सभी शासकों ने अपने शासनकाल के दौरान शहर में आलीशान स्मारकीय  भवनों/महलों का निर्माण किया, जिसके ज़रीए उन्होने सत्ता का प्रदर्शन करने के साथ-साथ उनके द्वारा स्थापित नई राजधानी की रणनीतिक जरूरत के हिसाब से किलेबंदी भी की। शानदार प्राचीन और मध्यकालीन स्थापित वास्तुकला के अवशेष उस समय की खोई हुई महिमा को बयां करते हैं। लेकिन, विडंबना यह है कि, जिन संरचनाओं के ज़रीए शहरों का निर्माण किया गया था उन संरचनाओं के अवशेष समय के कहर से बच गए हैं, लेकिन उन शासकों का शासन अल्पकालिक था।

किला राय पिथौरा, पृथ्वीराज चौहान की राजधानी, दिल्ली का पहला शहर, (सी॰ 1180 ईस्वी) उनके दादा के किले की दीवारों की किलेबंदी के ज़रीए बनाया गया था। उसने इसके चारों ओर विशाल पत्थर की दीवारें खड़ी कीं और इसकी मूल सीमाओं का विस्तार किया था। दिल्ली के पहले शहर के पूरा होने की तारीख बहुत स्पष्ट नहीं है, क्योंकि अधिकांश इतिहासकारों ने इसे 12वीं शताब्दी के अंत में किसी समय में हुई इस घटना को दर्ज़ किया था। दुर्भाग्य से, 1192 में तराइन की दूसरी लड़ाई में मुहम्मद गोरी के हाथों उनकी अंतिम हार ने दिल्ली में चौहान शासन को समाप्त कर दिया - महान राजा केवल 12 वर्षों तक शासन कर पाए। 

"या बसे गूजर, या रहे उजर (या इसमें चरवाह बस्ते है या फिर यह उजड़ा रह सकता है)" - यह प्रसिद्ध पूर्वाभास या भविष्य-ज्ञान जाने-माने सूफी संत निजामुद्दीन औलिया ने तुगलक वंश के संस्थापक गयासुद्दीन तुगलक को दिया था, जिन्होंने दिल्ली में अपनी नई राजधानी की स्थापना की थी। और इसे तुगलकाबाद कहा गया था।

इस शहर को बनने में चार साल लगे और महज 15 साल बाद इसे छोड़ दिया गया। इतिहासकारों का कहना है कि क्षेत्र में पानी की कमी के कारण इसका परित्याग किया गया था।  एक और दिलचस्प विकल्प की पेशकश से पता चलता है कि गयासुद्दीन के निजामुद्दीन औलिया के साथ मूर्खतापूर्ण झगड़ा करने के कारण तुगलकाबाद तबाह हो गया था। अब चाहे जल हो, संत हो या दिल्ली की भविष्यवाणी, तुगलकाबाद छोड़ दिया गया और गयासुद्दीन ने कुल चार वर्षों तक यहाँ शासन किया था।

दूसरे मुगल बादशाह हुमायूँ ने वर्ष 1533 ई. में दीनपनाह (भक्तों का आश्रय) शहर की स्थापना की थी। स्वप्ना लिडल की पुस्तक, दिल्ली: 14 हिस्टोरिक वॉक्स में, नींव रखने के समारोह का वर्णन इस प्रकार किया गया है: "सभी महान मुशाईख (धार्मिक पुरुष), सम्मानित सैय्यद (उनकी बेटी फातिमा के माध्यम से मुहम्मद के वंशज), विद्वान व्यक्ति, और राजा के साथ शहर दिल्ली के सभी बुजुर्ग मौके पर पहुंचे। बादशाह ने अपने पवित्र हाथ से मिट्टी में एक ईट डाली, उसके बाद महापुरुषों की उस मण्डली में से हर एक ने भूमि पर एक पत्यर रखा।” हालाँकि, 1540 में कन्नौज की लड़ाई में शेर शाह सूरी ने दौलतमंद और महान बादशाह को पराजित कर दिया और उन्हे निर्वासित होने पर मजबूर कर दिया था।

उसके बाद शेर शाह सूरी आए जो मुगल सेना के निचले रैंक से उठकर सम्राट बने थे। उसने कुशलतापूर्वक सेना का संचालन किया, कर संग्रह की देखभाल की, अपने लोगों के लिए सड़कों, विश्राम गृहों और कुओं का निर्माण किया। 1540 में कन्नौज की लड़ाई में हुमायूँ को हराने के बाद, शेर शाह सूरी ने दिल्ली में एक और शहर बनाने का फैसला किया, क्योंकि उस समय एक शहर का निर्माण जीत का अंतिम संकेत माना जाता था। शेर शाह ने दीनपनाह को धराशायी कर दिया और वास्तुकला में अलंकृत/सजीले तत्वों को पेश करते हुए अपनी राजधानी बनाना शुरू कर दिया था। उसने अपने नए शहर का नाम शेरगढ़ रखा था। हालाँकि, एक बार फिर, उनका शासन तब अल्प हो गया जब 1545 में एक बारूद विस्फोट में उनकी मृत्यु हो गई थी।

गर फिरदौस बार रु-ये जमीं अस्त, हमीं अस्त-ओ हमीं अस्त-ओ हमीं अस्त (अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो यही है, यही है, यही है) – ये दिल्ली के लाल किले के दीवान-ए खास की दीवारों पर खुदी हुई इबारत हैं। इसके निर्माता, सम्राट शाहजहाँ ने दिल्ली के अंतिम प्राचीन शहर का निर्माण किया था जब उन्होने राजधानी को आगरा से दिल्ली स्थानांतरित करने का फैसला किया था।

शाहजहाँ को वास्तुकला का शौक था और शुरू से ही शाहजहाँनाबाद एक सुनियोजित शहर था। शहर और उसका भव्य किला 1648 में बनकर तैयार हुआ था। शाहजहाँ 47 वर्ष के थे जब उन्होंने अपने दरबार को आगरा से दिल्ली स्थानांतरित करने का फैसला किया था। उन्होने हाल ही में अपनी पत्नी को खो दिया था; उनके बच्चे अब बड़े हो गए थे। एक नए शहर के निर्माण में अधेड़ उम्र के सम्राट की अमरता (जिन्न्स का शहर) की सोच का इस्तेमाल किया गया था।

उसका साम्राज्य समृद्ध था और सीमाएँ सुरक्षित थीं। उसकी नई राजधानी फल-फूल रही थी और उनकी अमन की प्रतीक मुगल की पुरानी कहावत पूरे साम्राज्य में फैल गई थी। उनका भी भविष्य ये रहा कि वे भी अपनी नई राजधानी पर 10 साल से अधिक समय तक शासन नहीं कर पाए, और उनके अपने बेटे ने उन्हे उसे तबाह कर दिया और उन्हे शेष कुदरती जीवन के लिए आगरा के किले में कैद कर दिया गया था।

लगभग ढाई शताब्दी बाद - भारत - ब्रिटिश साम्राज्य के ताज का गहना बन गया था। इस साम्राज्य को भव्यता की जरूरत थी – इसके लिए नई दिल्ली को चुना गया था, और इसके निर्माण की ज़िम्मेदारी दुनिया के सबसे बड़े वास्तुकारों, एडविन लुटियंस और हर्बर्ट बेकर को दी गई थी - लंदन के एक अखबार में इस पर एक शीर्षक इस तरह से दिया गया, "द नई दिल्ली: पेरिस और वाशिंगटन का एक प्रतिद्वंद्वी शहर"। इस प्रकार, लुटियंस और बेकर के नेतृत्व में दो दशकों का लंबा रोमांस शुरू हुआ, जिन्होंने संसद भवन, उत्तर और दक्षिण ब्लॉक, राजपथ, राष्ट्रपति भवन और इंडिया गेट का निर्माण किया था। 1931 में नई दिल्ली शहर का उदघाटन/अनावरण किया गया था।

यह अंग्रेज थे, जो सत्ता और वैभव में मस्त थे। प्रथम विश्व युद्ध के बाद, ब्रिटिश साम्राज्य महान मंगोल शासक - चंगेज खान को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का अब तक का सबसे बड़ा साम्राज्य बन गया था। यह कहा जाता था कि "ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज कभी नहीं डूबता था।“ नई दिल्ली अंग्रेजों की महिमा और लगातार बढ़ती शक्ति का एक वसीयतनामा था।

लेकिन दिल्ली की भविष्यवाणी क्रूर और नामाफ़ी का आयना थी – क्योंकि इसके बनाने के केवल 15 वर्षों के भीतर अंग्रेजों ने भारत साम्राज्य को खो दिया था।

लगभग एक सदी के बाद, केंद्र सरकार ने भारत के 'सत्ता के गलियारे' को एक नई पहचान देने के लिए पुनर्विकास परियोजना की घोषणा की है। इस योजना में 10 बिल्डिंग ब्लॉक्स के साथ नई संसद, प्रधानमंत्री और उपराष्ट्रपति निवासों का निर्माण शामिल है जो सभी सरकारी मंत्रालयों और विभागों को समायोजित करेगा।

सेंट्रल विस्टा के विचार में लोकतंत्र के एक नए त्रिकोणीय मंदिर की परिकल्पना की गई है, जिसमें 900 से 1,200 सांसदों के बैठने की क्षमता का निर्माण करना है, जिसका निर्माण अगस्त, 2022 तक किया जाना है - भारत की स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष के समय में ये समाप्त होगा। 

वास्तुकला हमेशा सत्ता और प्राशासनिक ताक़त की अभिव्यक्ति के प्रति सत्तारूढ़ व्यवस्था का पसंदीदा साधन रहा है। भविष्य की पीढ़ियों के लिए सरकार या व्यक्तित्व की विरासत को यादगार बनाने के लिए अक्सर स्मारकों, इमारतों और मूर्तियों का निर्माण किया जाता है। किसी स्थान को नष्ट करना या उसका पुनर्निर्माण करना एक खास राजनीतिक व्यवस्था का सत्ता की ताक़त दिखाने का एक साधन होता है।

बर्लिन को हज़ार साल तक राईक के लिए एक आदर्श राजधानी के पुनर्निर्माण का हिटलर और अल्बर्ट स्पीयर का डिज़ाइन हाल के दिनों के कई उदाहरणों में से एक है। दिलचस्प बात यह है कि मुगल सम्राटों ने अपने शासन के दौरान केंद्रीय विचारों को संप्रेषित करने के लिए कला और वास्तुकला का जानबूझकर इस्तेमाल किया था। उन्होंने अपने शासन के स्रोत और वैधता को ठहराने के साथ-साथ अपने विशाल साम्राज्य के सभी क्षेत्रों में सत्ता की ताक़त दिखाने, शक्ति और प्रशासनिक सत्ता का प्रदर्शन करने के लिए इस सब का प्रतीकात्मक रूप से इस्तेमाल किया था।

क्या वर्तमान शासन का हश्र भी वही होगा जो सत्ता में वास्तुकला के माध्यम से अपनी ताक़त दिखाने वाले दिल्ली के शाही सम्राटों का हुआ था। क्योंकि, इतिहास इस बात का गवाह है कि स्मारकीय वास्तुकला के माध्यम से व्यक्त की गई शक्ति या सत्ता का प्रदर्शन शहर के इतिहास में लंबे समय तक जीवित नहीं रह सकता है।

(लेखक, दिल्ली उच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

Central Vista Project: Will Ruling Regime Survive the Prophecy of Delhi?

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