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कोविड-19: मोदी सरकार की आपराधिक लापरवाही और बदइंतज़ामी के बाद, अब सर्वोच्च न्यायालय से उम्मीद

अब तो सर्वोच्च न्यायालय से ही उम्मीद है कि वो इच्छाशक्ति जुटाएगा और संविधान की धारा 14 तथा 21 के अंतर्गत प्रदत्त जीवन (तथा स्वास्थ्य) के अधिकार के आधार पर इस सरकार को अपनी नीति को बदलने का आदेश देगा।
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कोविड-19 की दूसरी विनाशकारी लहर को आए हफ्तों गुजर चुके हैं, पर मोदी सरकार अपने तौर-तरीकों की गलती को समझने और उन्हें सुधारने के लिए अब तक तैयार नहीं है।

कोविड महामारी के मुद्दे पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने वाजिब सवाल उठाए हैं और केंद्र सरकार की टीका नीति के संबंध में असहमतियां जतायी हैं। न्यायमूर्ति डी वीइ चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय बेंच ने, सरकार से अपनी मौजूदा टीका नीति पर पुनर्विचार करने के लिए कहा था और यह सुझाव दिया था कि केंद्र सरकार ही राज्यों के लिए टीकों के आवंटन तथा उनकी आपूर्ति की समय-सूची को तय करे और दो टीका निर्माताओं से टीकों की खरीद वार्ताएं करने का जिम्मा राज्यों पर नहीं छोड़ा जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि इसका जिम्मा राज्यों पर छोड़ना तो, ‘अफरातफरी तथा अनिश्चितता’ ही पैदा करेगा।

इससे भी महत्वपूर्ण यह कि अदालत ने, टीके के मूल्य निर्धारण की नीति पर भी अपनी असहमतियां जतायी थीं। उसने कहा था कि टीके की अलग-अलग कीमतें रखा जाना, 18 से 44 वर्ष तक आयु वर्ग के लोगों के साथ और खासतौर पर इस आयु वर्ग के कमजोर हैसियत के लोगों के साथ भेदभाव करेगा। अदालत ने कहा था कि प्रथम दृष्टया, संविधान की धारा 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार के अनुरूप, जिसमें स्वास्थ्य का अधिकार भी शामिल है, काम करने का तार्किक तरीका तो यही होगा कि केंद्र सरकार ही सारे टीके खरीदे और टीका निर्माताओं से सौदा कर इनकी कीमत तय करे। अदालत ने यह भी कहा कि टीकों की खरीद के इस तरह के केंद्रीयकरण के बाद, राज्यों व केंद्र शासित क्षेत्रों के अंदर टीकों के वितरण का विकेंद्रीकरण किया जा सकता है।

लेकिन अदालत की तार्किक सलाह पर अपने जवाब में सरकार ने क्या किया? उसने अपनी नीति को ही सही ठहराने की कोशिश की। उसने दावा किया कि यह तो कार्यपालिका के ही निर्णय का क्षेत्र है और अदालत को इस क्षेत्र में दखल नहीं देना चाहिए। सरकार ने इसका भी दावा किया कि उसकी टीका नीति, ‘न्यायपूर्ण, समतापूर्ण और आयु समूहों के बीच समझ में आने वाले विभेदकारी कारक पर आधारित है।’

इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय में केंद्र सरकार द्वारा दिया गया एफिडेविट, इन दावों के झूठे होने को ही दिखाता है। केंद्र सरकार ने दावा किया है कि टीके मुफ्त लगाए जाएंगे और सभी राज्य सरकारों ने एलान किया है कि 18 से 44 वर्ष तक आयु के लोगों को टीके मुफ्त लगाए जाएंगे। लेकिन, सच्चाई यह है कि केंद्र ने, राज्य सरकारों को इन दो टीका निर्माताओं से, बढ़े-चढ़े दाम पर, जो कि वास्तव में मुनाफाखोरी किए जाने का मामला है, टीके खरीदने का बोझ उठाने के लिए मजबूर कर दिया है। केंद्र सरकार इसके लिए राज्यों को कोई आर्थिक मदद भी नहीं दे रही है जबकि संघीय बजट में टीकों के लिए 35,000 करोड़ रु का आवंटन किया गया था। राज्यों को अपने स्वास्थ्य बजट का एक बड़ा हिस्सा टीकों पर खर्च करना होगा और इसकी कीमत स्वास्थ्य पर उनके आम खर्चे को चुकानी पड़ेगी। इस तरह, राज्यों को इसके लिए मजबूर किया गया है कि वे टीके की भेदभावपूर्ण कीमतें भरें और उसके बाद लोगों को टीका मुफ्त मुहैया कराएं।

पुन:, जैसा कि प्रो. आर रामकुमार ने Scroll.in में एक लेख में रेखांकित किया है, यह एफिडेविट बताता है कि राज्यों तथा निजी अस्पतालों के लिए टीका उत्पादन का जो 50 फीसद हिस्सा रखा गया है, उसे भी इन दोनों के बीच 50:50 के हिसाब से बांटा जाएगा यानी कुल टीका उत्पादन का 25 फीसद ही राज्यों को मिलेगा। और इतना ही हिस्सा (25 फीसद), अनाप-शनाप दाम पर बाजारों में तथा निजी अस्पतालों में जा रहा होगा। यह तो साफतौर पर निजी मुनाफों को, सार्वजनिक हित के ऊपर रखे जाने का ही मामला है।

अब जबकि इस नीति के अपनाए जाने के बाद से टीकाकरण बैठ ही गया है और पिछले एक पखवाड़े में राज्यों में टीकाकरण में 60 फीसद तक की गिरावट आयी है, किसी भी होशमंद सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से मिले मौके का फायदा उठाया होता और अपने टीकाकरण कार्यक्रम को दुरुस्त कर लिया होता। लेकिन, इस सरकार को होश ही कहां है—इसे तो नवउदारवाद तथा हिंदुत्व की कॉकटेल ने मदहोश कर रखा है।

अब तो यही उम्मीद है कि सर्वोच्च न्यायालय ही इच्छाशक्ति जुटाएगी और संविधान की धारा-14 तथा 21 के अंतर्गत प्रदत्त जीवन (तथा स्वास्थ्य) के अधिकार के आधार पर इस सरकार को अपनी नीति को बदलने का आदेश देगा।

कोविड की लहर को संभालने में इस सरकार के बुरी तरह से विफल रहने की एक और वजह यह भी है कि अपने हिंदुत्ववादी रुख के चलते, यह सरकार अपनी नीतियों व निर्णयों के लिए विज्ञान को आधार बनाने में असमर्थ साबित हुई है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री तथा विज्ञान व प्रौद्योगिकी मंत्री, हर्षवर्धन के आचरण को इसके सिवा और तर्क से समझा ही नहीं जा सकता है। अप्रैल के मध्य में, जब कोविड का संक्रमण बहुत तेजी से बढ़ रहा था तब इन मंत्री महोदय ने देसी गायों पर एक शोध कार्यक्रम के संबंध में विभिन्न विभागों के अधिकारियों की बैठक बुलायी। ‘साइंटिफिक यूटिलाइजेशन थ्रू रिसर्च ऑगमेंटेशन--प्राइम प्रोडक्टस फ्रॉम इंडिजिनस काऊज़’ (एसयूपीआरए-पीआइसी)’ के बेतुके नाम  वाले इस कार्यक्रम के तहत, पंचगव्य (गाय के गोबर, मूत्र, दूध, दही तथा घी के मिश्रण) की वैज्ञानिक वैधता साबित करने समेत, विभिन्न परियोजनाएं चलायी जा रही हैं। इन परियोजनाओं के लिए 100 करोड़ रु आवंटित किए गए हैं।

इस बैठक में मंत्री महोदय ने इन परियोजनाओं को आगे बढ़ाने में हो रही देरी पर अपनी नाराजगी जताई और कहा कि इस मिशन की धीमी प्रगति के लिए, महामारी का बहाना नहीं लिया जा सकता है। स्वास्थ्य तथा विज्ञान मंत्री यह सब तब कर रहा था, जब लोग ऑक्सीजन की कमी के चलते तड़प-तड़प कर दम तोड़ रहे थे।

काश, इन मंत्री महोदय ने इतना ही समय पिछले एक साल में यह सुनिश्चित करने पर लगाया होता कि 150 जिला अस्पतालों में, सिर्फ 200 करोड़ रु की लागत से जो 150 ऑक्सीजन उत्पादन संयंत्र लगने थे, वे सचमुच लगे कि नहीं!

वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय में दिए गए एफिडेविट में सरकार ने जो वैज्ञानिक राय तथा विशेषज्ञों पर भरोसा करने का दावा किया है, वह गंभीर सवालों के दायरे में है। वर्ना यह कैसे संभव था कि स्वास्थ्य मंत्रालय के दिशानिर्देशों में अब तक कोविड के मरीजों के उपचार के लिए हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन, रेमडेसिवीर तथा आइवरमेक्टिन जैसी दवाओं के उपयोग की सिफारिश मौजूद है? विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा अन्य स्वास्थ्य विशेषज्ञ तो बहुत पहले ही, कोविड-19 के मरीजों के उपचार में इन दवाओं का उपयोग न करने की सिफारिश कर चुके हैं। जहां तक रेमडेसिविर का सवाल है, वह भी मरीजों के  एक छोटे से उप-समूह के लिए ही उपयोगी है। लेकिन, भारत में ये दवाएं बड़े पैमाने पर दी जा रही हैं, जिससे दवा कंपनियां अंधाधुंध मुनाफे बना रही हैं और इन दवाओं की खूब कालाबाजारी भी हो रही है।

लेकिन, इस सरकार के विज्ञान तथा स्वास्थ्य विशेषज्ञों की राय से चलने के दावे की गंभीरता के बारे में इसके बाद कुछ भी कहने की जरूरत ही कहां रह जाती है कि कोविड-19 के लिए गठित नेशनल टास्क फोर्स की इस साल फरवरी तथा मार्च के महीनों में एक बैठक तक नहीं हुई थी, जबकि इस दौरान दूसरी लहर जोर पकड़ रही थी!

गाय के प्रति हिंदुत्ववादी अंधभक्ति के नतीजे अब ऐसे उटपटांग दृश्यों में सामने आ रहे हैं कि गुजरात में लोग गोशालाओं में जा रहे हैं और वायरस के लिए अपनी रोगप्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने के लिए अपनी देह पर गोबर और गोमूत्र का लेप करवा रहे हैं। क्यों न हो, गुजरात ही तो हमारे देश में हिंदुत्व की पहली प्रयोगशाला है!

उत्तर प्रदेश की आदित्यनाथ सरकार की प्राथमिकताएं भी एकदम स्पष्ट हैं। पिछले ही सप्ताह इस सरकार ने हरेक जिले में गोरक्षा के लिए ‘‘हेल्पडेस्क’’ स्थापित करने का निर्देश दिया है। गोशालाओं में वहां काम करने वाले कर्मचारियों के लिए ऑक्सीमीटर तथा थर्मल स्कैनर भी लगाए जाएंगे। यह सब तब किया जाना है, जब राज्य भर में गांवों में हजारों लोग बिना किसी उपचार तथा मदद के दम तोड़ रहे हैं।

इस अमानवीय हिंदुत्ववादी नाटक का उपसंहार गंगा में उत्तर प्रदेश के विभिन्न हिस्सों से बहकर चली आती सैकड़ों लाशों के रोंगटे खड़े कर देने वाले और विचलित करने वाले दृश्यों के रूप में सामने आया है।

यही इस देश और जनता की त्रासदी है कि यह सरकार न तो सीखने के लिए राजी है और न अपने तौर-तरीके दुरुस्त करने के लिए।

(प्रकाश करात सीपीआई-एम के वरिष्ठ नेता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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