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फ़र्क़ साफ़ है- अब पुलिस सत्तासीन दल के भ्रामक विज्ञापन में इस्तेमाल हो रही है

पिछले कुछ सालों से देश के शीर्ष नेतृत्व द्वारा अपने ही देश के नागरिकों को ‘कपड़ों से पहचानने’ की जो युक्ति ईज़ाद की है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पूरी मंशा से भाजपा ने इस विज्ञापन में दंगाई व्यक्ति दिखलाने के लिए मुस्लिम युवा की धज का इस्तेमाल किया है।
fark saaf hai
उत्तर प्रदेश भाजपा द्वारा जारी विज्ञापन का स्क्रीन शॉट।

उत्तर प्रदेश भाजपा के ट्विटर हैंडल से सबसे पहले जारी हुए एक विज्ञापन वीडियो की तरफ ध्यान देने की ज़रूरत है जो अब देश के समस्त इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर चल रहा है। यह वीडियो विज्ञापन भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपनी प्रशस्ति और पूर्ववर्ती समाजवादी सरकार की आलोचना के लिए जारी ‘फर्क साफ है’ सीरीज में शामिल है। जो यह बतलाने का प्रयास है कि 2017 तक यानी जब तक प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार सत्तासीन थी तब तक प्रदेश में दंगाई बेखौफ होते थे और 2017 के बाद अब वो या तो सरेंडर कर चुके हैं या डरे और घबराए हुए हैं। इस आशय का एक विज्ञापन कुछ रोज़ पहले देश के सभी दैनिक अखबारों में पहले पेज पर प्रकाशित हो चुके हैं और जिन्हें लेकर भाजपा के सांप्रदायिक संदेश की आलोचनाएँ भी हुई हैं।

वजह बहुत साफ है क्योंकि इस विज्ञापन में जिन्हें दंगाई कहा गया है वो ज़ाहिर तौर पर एक मुस्लिम युवा की तस्वीर है। संभव है कि लोगों का ध्यान इस तरफ नहीं भी जाता क्योंकि दंगाई होना किसी एक मजहब का मामला नहीं है बल्कि वह एक प्रवृत्ति है और कोई भी व्यक्ति दंगाई हो सकता है लेकिन पिछले कुछ सालों से देश के शीर्ष नेतृत्व द्वारा अपने ही देश के नागरिकों को ‘कपड़ों से पहचानने’ की जो युक्ति ईज़ाद की है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पूरी मंशा से भाजपा ने इस विज्ञापन में दंगाई व्यक्ति दिखलाने के लिए मुस्लिम युवा की धज का इस्तेमाल किया है।

इसी आशय का वीडियो देखने पर यह बात और अधिक स्पष्ट हो जाती है कि यह विज्ञापन क्यों और किसे निशाने पर लेने के लिया बनाया गया है? इस वीडियो विज्ञापन में वही युवा है जो अखबारों के पहले पन्नों पर छाया रहा। यहाँ वो एक पुलिस थाने में खड़ा है और गिड़गिड़ा रहा है। वह इस वीडियो में कहते हुए सुना जा सकता है कि मम्मी कहती थीं कि मेरे बेटे का फोटो अखबार में छपेगा, इन्होंने तो पोस्टर छपवा दिये। फिर वो आगे कहता है कि -आंदोलन के नाम पर एक बस ही तो फूंकी थी, पहले की सरकारों में तो पूरे मोहल्ले तक जला देते थे तब भी कोई कुछ नहीं कहता था?

यहाँ आकर इस विज्ञापन की स्क्रिप्ट यह स्पष्ट कर देती है कि थाने में गिड़गिड़ाता हुआ वह युवा किस मज़हब से जुड़ा है और किस आंदोलन का ज़िक्र कर रहा है? नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ 2019 की सर्दियों में हुए आंदोलन की यादें अभी ऐसे कई युवाओं को लेकर ताज़ा हैं जिन्हें लगातार उत्पीड़ित किया जा रहा है। ज़ाहिर इनमें से अधिकांश युवा मुस्लिम हैं जिन्हें इन ज़्यादतियों का सामना करना पड़ रहा है।  

आगे वह पुलिस से यह गुहार लगा रहा है कि उसके घर की कुर्की होने से बचा लीजिये। वह अपने साथ एक कपड़े की पोटली में कुछ धन भी लाया है और हर्जाना भर रहा है। लेकिन उसे पता है जैसे कि इतनी रकम काफी नहीं है इसलिए वह गिड़गिड़ा रहा है कि उसके घर की कुर्की न हो। वह बहुत घबराया हुआ है और परेशान है।

इस वीडियो विज्ञापन में दिखलाए गए पुलिस थाने में कुल तीन पुलिस कर्मी मौजूद हैं जिनमें एक महिला पुलिस कर्मी भी है। जब वह युवक एक पुलिस कर्मी को अपनी पोटली में लायी रकम सौंप रहा है और दूसरे पुलिसकर्मी की तरफ देख रहा है जो शायद थाना प्रभारी है, तभी कैमरा उस बड़े अधिकारी की तरफ ज़ूम इन होता है और वह अधिकारी पूरी स्क्रीन पर छा जाता है। फिर वो इस विज्ञापन की पंच लाइन नाटकीय अंदाज़ में दोहराता है- ‘फर्क साफ है’। 2017 के पहले तक इन दंगाइयों के हौसले बहुत बुलंद थे लेकिन अब कानून के कठोर डंडे के सामने दंगाई घबराये हुए हैं।

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आंदोलनकारियों से ही हर्जाना वसूलने और उन्हें समाज और राज्य का दुश्मन बताते हुए उनकी तस्वीरों को बड़े बड़े पोस्टर बनाकर सार्वजनिक जगहों पर लगाने को लेकर गंभीर आलोचनाएँ हुई हैं और इन्हें गैर-वैधानिक तक बताया गया है लेकिन इस विज्ञापन के जरिये पुलिस के लिए बना दी गयी नयी आचार संहिता का भी प्रचार किया जा रहा है। एक गैर-वैधानिक कार्रवाई का महिमामंडन ही किया जा रहा है।

सवाल अब ये है कि क्या एक राजनैतिक दल के चुनावी विज्ञापन में पुलिस का इस्तेमाल इस तरह किया जा सकता है? लेकिन यह सवाल आचार संहिता से जुड़ा हुआ है और इस पर चुनाव आयोग को ध्यान देना होगा लेकिन अभी तक चूंकि आचार संहिता लागू नहीं हुई है तो यह कहा जा सकता है कि अभी चुनाव आयोग की कोई भूमिका नहीं है। तो क्या पुलिस किसी राजनैतिक दल की सरकार के समर्थन और विज्ञापन में खुद का इस्तेमाल होने देना चाहती है?

क्या यह विज्ञापन पुलिस की नाकामी का कुबूलनामा नहीं है? 2017 से पहले अगर तथाकथित दंगाइयों के हौसले इतने ही बुलंद थे तो उस दौरान पुलिस क्या कर रही थी? क्या यह अपने महकमे पर किसी सत्तासीन राजनैतिक दल के दबदबे का इज़हार है? अगर ये दोनों ही बातें सही हैं तब पुलिस महकमे के वजूद पर ही गंभीर सवाल खड़े होते हैं।

देश की संवैधानिक व्यवस्था में पुलिस का काम देश में कानून के राज को बनाए रखना है। किसी भी दबाव या प्रलोभन के बावजूद उसे केवल कानून व्यवस्था को मजबूत बनाए रखने का ज़िम्मा दिया गया है। जिसके लिए आचार संहिता है और जिसे इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि देश या प्रदेश में चुनाव हैं या नहीं हैं। उसका काम हर समय कानून की रक्षा करना है। इस विज्ञापन के जरिये खुद एक पुलिस अधिकारी से यह कहलवाना एक नाटकीय रोमांच पैदा कर सकता है उसकी कीमत बहुत बड़ी है जो पुलिस महकमे को उसकी अनिवार्य सैद्धान्तिक और कानूनन भूमिका यानी निष्पक्षता से चुकानी पड़ सकती है। हालांकि ऐसे मौके पर मौजूदा पुलिस महकमे की निष्पक्षता पर बात करना इतना गैर-ज़रूरी प्रसंग हो चुका है कि कुछ भी कहना महज़ दोहराव होगा।

हमने पिछले कुछ सालों में पुलिस की साम्प्रादायिक होती छवि को ही देखा है। सत्तासीन दलों के द्वारा पुलिस का इस्तेमाल भी नयी परिघटना नहीं है लेकिन जिस तरह से उत्तर प्रदेश में कथित अपराधियों को सबक सिखाने के नाम पर कार्रवाइयां हो रही हैं उन्हें लेकर यह आम समझ बन चुकी है कि इस वक़्त की पुलिस न तो देश की महिलाओं के साथ उनकी सुरक्षा को लेकर प्रतिबद्ध है और न ही अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों के लिए।

फिर भी एक राजनैतिक दल के प्रचार अभियान का हिस्सा बनना आखिर पुलिस की किस आचार संहिता के तहत आता है यह ज़रूर पूछा जाना चाहिए। पूछा तो यह भी जाना चाहिए कि ऐसे विज्ञापन बनाते समय क्या पुलिस विभाग से अनुमति ली गयी? क्या पुलिस महकमे की रजामंदी के बिना ऐसा विज्ञापन सार्वजनिक हुआ है? अगर हुआ है तब क्या वाकई पुलिस को इस विज्ञापन पर कोई एतराज़ नहीं है? इस विज्ञापन को सार्वजनिक हुए कई दिन बीत चुके हैं लेकिन ऐसी कोई आपत्ति या एतराज़ जताए जाने की कोई खबर नहीं है। और अब इस तरह के कई और विज्ञापन भी जारी किए जा रहे हैं।

उत्तर प्रदेश सरकार का विज्ञापन

ऐसा माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश सरकार के पास अपने पाँच साल की उपलब्धियों में सबसे बड़ी उपलब्धि कानून व्यवस्था ही बतलाई जा रही है। हालांकि इस कानून व्यवस्था की पोल लगभग हर रोज़ प्रदेश में बढ़ते अपराधों की खबरों में खुल रही है लेकिन एक राज्य की अपने नागरिकों के प्रति ठोंको नीति को कानून व्यवस्था का स्थानपन्न बनाने की कोशिश में ऐसे विज्ञापन शायद असरकारी हैं जिसमें कथित अपराधी के मजहब को पहचानने की खुली स्क्रिप्ट लिखी गयी है।

दिलचस्प ये है कि ये वीडियो विज्ञापन एक फिल्मांकन है जिसे किसी पेशेवर फिल्ममेकर ने ही बनाया है। जो कलाकार इस वीडियो में अभिनय कर रहे हैं वो भी पेशेवर अभिनेता हैं और ज़ाहिर है इस वीडियो को बनने और इसके प्रसारण में निवेश किया गया है। अगर यह निवेश उत्तर प्रदेश की सरकार ने अपने काम और उपलब्धियों के लिए जनसम्पर्क विभाग की ओर से किया गया है तब फिर यह बात सोचना बहुत ज़रूरी हो जाता है कि जनता के दिये कई तरह के करों का इस्तेमाल किस तरह एक जमात को दुश्मन बनाने और पुलिस को एक राजनैतिक दल की सेना में बदले जाने में खर्च हो रहा है। हालांकि अब इस तरह के सवाल जनता के मन में उठना बंद से हो गए हैं लेकिन फिर भी सोचना तो चाहिए ही।

(लेखक पिछले डेढ़ दशकों से जन आंदोलनों से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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