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ग्राउंड रिपोर्ट: बाढ़ का पानी तो गया, मगर दुश्वारियों का दलदल नहीं

बिहार : सरकारी मशीनरी के लिए बाढ़ के पानी का उतर जाना ही बाढ़ से घिरे लोगों की समस्याओं का हल हो जाना है। मगर, बाढ़ पीड़ितों के लिए असल समस्या तब शुरू होती है, जब बाढ़ का पानी उतर जाता है। बाढ़ का पानी उतर जाने के बाद जब वे घरों में लौटते हैं, तो वहां कुछ नहीं बचता है। बाढ़ के पानी में बर्तन तक बह जाते हैं और बीमारियों का हमला शुरू हो जाता है।
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महेंद्र सदा ने कहा कि कर्ज भी लेते हैं, तो इसी उम्मीद से कि पंजाब कमाने जाएंगे, तो चुका देंगे। (फोटो: उमेश कुमार राय)

सुपौल (बिहार): 75 वर्षीय राजेंद्र सदा को तारीख ठीक-ठीक पता नहीं है, लेकिन जुलाई महीने का दूसरा हफ्ता रहा होगा, इतना उन्हें याद है। वह रात को अपनी झोपड़ी में सोए हुए थे। घर के बाहर गाय व बकरियां बंधी हुई थीं। रात में अचानक बकरी मिमियाने लगी, तो राजेंद्र की नींद खुल गई। उन्होंने बिस्तर से पांव नीचे रखा, तो पाया कि घर में घुटनाभर पानी है।

वह कहते हैं, “दिन में पानी स्थिर था, इसलिए हमलोग निश्चिंत थे। रात को लगभग 8 बजे खाना खाकर सो गए थे। बकरी की आवाज से जब जगे तो, देखा पानी बढ़ता जा रहा है। हमलोगों ने पहले लकड़ी को जमा कर बनाए गए मचान पर शरण ली, लेकिन पानी मचान तक पहुंच गया, तो बाल-बच्चे समेत झोपड़ी की छत पर चले गए। पूरी रात और पूरा दिन हमलोग छत पर रहे। शाम से पानी धीरे-धीरे कम होने लगा, तो नीचे उतरे, लेकिन घर में कई दिनों तक पानी था।”

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राजेंद्र सदा को बाल-बच्चों के साथ छत पर शरण लेनी पड़ी थी।

चूंकि पानी अचानक रात में आ गया था, इसलिए नीचे रखा अनाज भीग गया। अलबत्ता चार-पांच किलोग्राम चावल राजेंद्र सदा ने बचा लिया था। राजेंद्र ने न्यूजक्लिक को बताया, “छत पर 24 घंटे हमलोग भूखे प्यासे रहे। चांपाकल भी डूब गया था, तो बाढ़ के पानी को ही बाल्टी में भर कर रखते थे और उसकी मिट्टी नीचे जम जाती, तो ऊपर का साफ पानी निकाल कर पीते थे। जो चावल बचा सके थे, उसे खिचड़ी बना-बना कर खाए।”

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बाढ़ का पानी तो उतर गया है, लेकिन नदी का कटाव जारी है।

बाढ़ का पानी अब उतर गया है, तो राज्य की नीतीश सरकार भी राहत महसूस कर रही है। सरकारी मशीनरी के लिए बाढ़ के पानी का उतर जाना ही बाढ़ से घिरे लोगों की समस्याओं का हल हो जाना है, इसलिए पानी उतरने के बाद सरकारी अधिकारी प्रभावितों का हाल जानने नहीं जाते हैं। मगर, बाढ़ पीड़ितों के लिए असल समस्या तब शुरू होती है, जब बाढ़ का पानी उतर जाता है। बाढ़ का पानी उतर जाने के बाद जब वे घरों में लौटते हैं, तो वहां कुछ नहीं बचता है। बाढ़ के पानी में बर्तन तक बह जाते हैं और बीमारियों का हमला शुरू हो जाता है।

राजेंद्र सदा से जहां मेरी मुलाकात हुई थी, उस टोले को मुसहरी टोला कहा जाता है, क्योंकि राजेंद्र दलित बिरादरी से आते हैं। यह टोला खोखनाहा गांव में स्थित है, जो सुपौल जिले के कोसी तटबंध के भीतर पड़ता है। सुपौल में कोसी पतली-पतली कई धाराओं में बंट जाती है। मुसहरी टोला इन्हीं धाराओं से घिरा हुआ है। करीब एक घंटे तक नाव से सफर कर हम इस 150 घरों वाले टोले में पहुंचे थे। टोले में सारे घर फूस के बने हुए थे। इनमें से कुछ झोपड़ियां गिरी हुई थीं और गड्ढों में अब भी पानी भरा हुआ था, जो बता रहा था कि सैलाब आकर लौट गया है।

इस टोले में बाढ़ का पानी जाने के बाद कोई अधिकारी नहीं आया है। सरकार से मदद के नाम पर 6-7 मीटर लंबा पॉली शीट और डेढ़ से दो किलोग्राम चूड़ा दिया गया। बाढ़ का पानी घुसने से कंगाल हो चुके लोगों के लिए ये मदद ऊंट के मुंह में जीरा से ज्यादा नहीं।

राजेंद्र जब हमसे अपनी व्यथा सुना रहे थे, तो उनका गला रुंध गया था और आंखें डबडबा गई थीं। उन्होंने कहा, “सर, बहुत कष्ट से रह रहे हैं हमलोग, लेकिन सरकार ने कोई मदद नहीं की। जब छत पर शरण लिए हुए थे, तो पानी पिला-पिला कर बच्चों को रखे। पानी उतरा तो नीचे आए और बचे-खुचे चावल से खिचड़ी बनाकर खाए। बहुत बाद में सरकार ने चूड़ा दिया, लेकिन 11 सदस्यों के परिवार में दो किलोग्राम चूड़ा कितने दिन चलता!”

राजेंद्र भूमिहीन हैं। हालांकि, पहले उनके पास जमीन थी, लेकिन कोसी के कटाव में जमीन चली गई। अभी वह दूसरे के खेतों में मजदूरी करते हैं और कई दफे पंजाब भी जाते हैं काम करने। राजेंद्र की कमाई उतनी नहीं है कि खा-पीकर कुछ पैसा बच जाए, इसलिए जब बाढ़ का पानी उतरा और खाने के लाले पड़ने लगे, तो वह दौड़े-भागे महाजन की शरण में पहुंचे और प्रति 100 रुपये पर 5 रुपये ब्याज की दर पर 5 हजार रुपये कर्ज लिया। उन्होंने बताया, “कर्ज के पैसे से अनाज खरीदे हैं। उसी से परिवार चल रहा है। पंजाब जाकर काम करेंगे, तो कर्ज की रकम चुका सकेंगे।”

बाढ़ से उबरने को कर्ज का सहारा

मैंने बाढ़ के बाद के हालात जानने के लिए एक दर्जन से ज्यादा लोगों से मुलाकात की। आर्थिक रूप से मजबूत लोगों को छोड़ दें, तो ज्यादातर लोगों ने स्वीकार किया कि घर-परिवार चलाने के लिए उन्हें कर्ज लेना पड़ा।

सुपौल की कमलपुर पंचायत के धरहरा गांव निवासी 32 देव कुमार मेहता उन मुट्ठीभर लोगों में हैं, जिन्हें कर्ज लेने की नौबत नहीं आई। उनका घर भी कोसी के तटबंध के भीतर ही है। बाढ़ आई, तो वह अपने परिवार के साथ एक रिश्तेदार के यहां रहने चले गए और एक हफ्ते बाद लौटे। उन्होंने तीन बीघा खेत में धान रोपने के लिए बिचरा गिराया था। बाढ़ बिचरा निगल गई। मेहता ने न्यूजक्लिक से कहा, “नेपाल से मोटी रकम चुका कर धान का बिचरा लाना पड़ा। तीन बीघे का लक्ष्य रखा था, लेकिन बाढ़ के कारण महज 15-16 कट्ठा में ही धान रोपना पड़ा।”

उन्होंने आगे कहा, “बाढ़ के कारण ढाई क्विंटल से ज्यादा चावल बर्बाद हो गया। हमलोगों को कर्ज नहीं लेना पड़ा, क्योंकि हमलोग पैसा बचा कर रखे हुए थे। उसी से खरीदकर अभी खा रहे हैं।”

मुसहरी टोला के 70 वर्षीय सत्तो सदा की खुशनसीबी देव कुमार मेहता जैसी नहीं थी। बाढ़ में सत्तो दास के घर का बर्तन तक बह गए। 50 किलो गेहू बर्बाद हुआ और एक बकरी भी मर गई। उन्होंने चार हजार रुपये कर्ज लिया और अनाज खरीदा, जिससे अभी चूल्हा जलता है। उन्होंने कहा,” सरकार से बाढ़ के वक्त भी मदद नहीं मिली और अब बाढ़ का पानी चला गया है, तब भी मदद नहीं मिल रही है।”

स्थानीय लोगों ने बताया कि कोसी तटबंध के भीतर ऐसे ठेकेदार भी सक्रिय हैं, जो इस मुश्किल वक्त में पीड़ित लोगों को कर्ज देने को तैयार हो जाते हैं, लेकिन इसमें उनका अपना स्वार्थ है। ये ठेकेदार दरअसल पंजाब, हरियाण जैसे राज्यों में सस्ता मजदूर मुहैया कराते हैं। बाढ़ के वक्त जरूरतमंदों को वे लोग कर्ज इस शर्त पर दे देते हैं कि बाढ़ खत्म हो जाने पर कर्ज चुकाने के लिए वे उनके साथ पंजाब या हरियाण में जाकर उनके अधीन कंपनियों या बड़े जमींदारों के खेतों व गौशालाओं में मजदूरी करेंगे।

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कोसी तटबंध के भीतर रहनेवाले लोग कमोबेश हर साल बाढ़ झेलते हैं।

बाढ़ का पैटर्न बदला

नेपाल से आनेवाली कोसी नदी कमोबेश हर साल बिहार में बाढ़ लेकर आती है। ऐसा नहीं है कि ऐसा बीते कुछ दशकों में हो रहा है, बल्कि बिहार और कोसी से बाढ़ का रिश्ता सदियों पुराना है। लेकिन बाढ़ का जो पैटर्न अभी दिख रहा है, वो पहले नहीं था। स्थानीय बुजुर्ग रामलखन साव इसे विस्तार से बताते हैं, “पहले कोसी को तटबंधों से बांधा नहीं गया था। इससे होता ये था कि इसका पानी कई किलोमीटर में फैल जाता था। इस वजह से नुकसान कम होता था। 60 के दशक में जब तत्कालीन सरकार ने कोसी को दो तटबंधों में कैद कर दिया। तब से बाढ़ का प्रकोप बढ़ा है क्योंकि इसका फैलाव क्षेत्र सिकुड़ गया है।”

जब तटबंध बन रहा था, तटबंध के भीतर जो गांव आ रहे थे, उनके लोगों को तटबंध के बाहर रहने लायक जमीन देने का वादा किया था, लेकिन तटबंध के बाहर जमीन के बंटवारे में घपला हो गया। मुट्ठी भर लोगों को तटबंध के बाहर रहने के लिए जमीन मिली और बाकी जमीन पर दबंगों ने कब्जा जमा लिया। इसका नतीजा ये निकला कि लाभ से वंचित लाखों लोगों को बेबसी में तटबंध के भीतर ही घर बना कर रहने पड़ा।

एक अनुमान के मुताबिक, कोसी तटबंध के भीतर करीब 380 गांव हैं, जो कई जिलों में फैले हुए हैं। आबादी तकरीबन 10 लाख होगी। इन गांवों के लोगों की भी हालत कमोबेश वैसी ही है, जैसी हालत मुसहरी टोले के लोगों की है।

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महंगू सदा को 10000 हजार रुपये कर्ज लेकर अनाज खरीदना पड़ा है।

सरकार से क्या मिला बाढ़ पीड़ितों को

इस बार की बाढ़ ने बिहार के 13 जिलों की 88.40 लाख आबादी को प्रभावित किया है। बाढ़ में 160 लोगों की मौत भी हो गई। बाढ़ से हुए नुकसान की भरपाई के लिए बिहार सरकार ने केंद्र से 2700 करोड़ रुपये की मांग की है। राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग के प्रधान सचिव अमृत प्रत्यय ने बताया, “2700 करोड़ के नुकसान का आकलन किया गया और उसी आकलन के आधार पर केंद्र सरकार से आर्थिक मदद की मांग की गई है।”

बाढ़ आने पर पीड़ितों को राहत देने के लिए सरकार ने राहत केंद्र बनाए थे और खाद्य सामग्री भी वितरित की। साथ ही प्रभावित परिवारों के खाते में 6000 रुपये जमा करने की भी बात कही गई, लेकिन ये मदद नाकाफी रही। जहां तक बैंक अकाउंट में 6 हजार रुपये जमा करने की बात है, तो बहुत सारे पीड़ित परिवार ऐसे हैं, जिन्हें अब तक ये रुपये नहीं मिले हैं। कई गांवों तक राहत सामग्री भी नहीं पहुंच सकी, ऐसे भी दावे हैं।

बाढ़ का पानी उतरने के बाद कोसी नवनिर्माण मंच ने जनसंवाद नौका यात्रा निकाल कर कोसी तटबंध के भीतर के कम से कम 30 गांवों का दौरा किया और सरकारी मदद के बारे में जानकारी ली। न्यूज़क्लिक के साथ बातचीत में मंच से जुड़े महेंद्र यादव कहते हैं, “बहुत सारे गांवों में बाढ़ की पूर्व सूचना नहीं पहुंची और न ही उन्हें सरकार ने नाव ही मुहैया कराई। इतना ही नहीं, इन गांवों तक अब भी राहत टीम नहीं पहुंची है।”

उन्होंने आगे कहा, “बाढ़ पीड़ितों को 5 किलो चावल, दाल वगैरह मिलने की बात है, लेकिन अब तक किसी को नहीं मिली है। जिनके घर गिर गए, उनका सर्वेक्षण नहीं हुआ है। लोग लौट रहे हैं, तो वे घर भी अपने खर्च से बना रहे हैं। घर बनने के बाद अगर टीम पहुंचेगी भी, तो उन्हें मुआवजा कैसे मिलेगा? प्रभावित इलाकों में दवाइयां नहीं पहुंचाई गई है। स्कूलों की हालत बदतर है। बहुत परिवारों के खाते में 6 हजार रुपये नहीं पहुंचे हैं।”

इस संबंध में न्यूजक्लिक ने राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग के मंत्री लक्ष्मेश्वर रॉय से संपर्क किया, तो उन्होंने कहा कि 6 हजार रुपये तत्काल मदद के लिए है और जिन लोगों के खाते में अब तक ये राशि नहीं पहुंची, उनके पास जल्द पहुंचेगी।

पलायन जीवनरेखा

बिहार सरकार भले ही यह कह कर अपनी पीठ थपथपा लेती हो कि बिहारी कामगार दूसरे राज्यों में जाकर उन राज्यों को समृद्ध करते हैं, लेकिन सच तो ये है कि पलायन मजबूरी में होता है। कोसी तटबंध के भीतर रहनेवाले लोग हर साल बाढ़ से जूझते हैं, फिर भी उठ खड़े होते हैं, तो इसमें बड़ी भूमिका पलायन की भी है। हमारे साथ नाव पर सवार खोखनाहा गांव के एक अन्य बुजुर्ग मो. सदरूल इसे समझाते हैं, “बाढ़ आती है, तो सरकारी मदद कितनी मिलती है, ये किसी से छिपा नहीं है। यहां रहनेवाले परिवारों के सदस्य अगर दूसरे राज्य में जाकर मजदूरी न करे, तो परिवार भूखों मर जाएगा। मेरे ही घर में बाढ़ आई, तो पूरा अनाज खराब हो गया था। मेरे तीन बेटे बाहर रहते हैं। उन्होंने पैसा भेजा है, उसी से अभी हमलोग खा रहे हैं।”

60 वर्षीय महेंद्र सदा पंजाब में रहते हैं, जहां खाना-पीना खिला कर उन्हें 4000 हजार रुपये मिलते हैं। बाढ़ जिस वक्त आई थी, उस वक्त वह पंजाब में थे। घर पर पत्नी और बच्चे अकेले थे। सरकारी बोट पर उन्होंने अपने बच्चों को हाईवे पर भेज दिया और खुद घर पर रहीं।

बाढ़ का पानी खत्म हो गया, तो महेंद्र पंजाब से लौटे हैं। उन्होंने न्यूजक्लिक कहा, “कर्ज भी लेते हैं, तो इसी उम्मीद से कि पंजाब कमाने जाएंगे, तो चुका देंगे।”

मुसहरी टोले के महंगू सदा के घर में तीन दिन तक पानी था। उनके घर का सारा अनाज भी सड़ गया। महंगू की उम्मीद भी बाहर से आनेवाले पैसे पर ही टिकी हुई ही। उन्होंने कहा, “10 हजार रुपये कर्ज लेकर अनाज खरीदे हैं। बेटा बाहर रहता है। वो पैसा भेजेगा तो कर्ज चुकाएंगे। हमलोग तो जंगल में रहते हैं, हमें कोई नहीं देखता है।”

(सभी फोटो : उमेश कुमार राय)

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