Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

हैनी बाबू: एक प्रोफ़ेसर का कार्यकर्ता के रूप में चित्रण

मैंने ऐसे समय में एक रिमाइंडर ईमेल भेजने के लिए उनसे माफ़ी मांगी जब एनआईए ने उन्हें तलब किया था। उन्होंने मेल का जवाब दिया ‘आपकी इस समझ के लिए धन्यवाद..., देखते हैं कि वे इसे कहां तक ले जाते हैं।’
हैनी बाबू
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैनी बाबू। फोटो साभार : द न्यूज़ मिनट

कला संकाय, नॉर्थ कैंपस, दिल्ली विश्वविद्यालय का नज़ारा था: 2014 की सर्दियों की दोपहर थी- एक क्लास रूम में कम से कम दो सौ छात्र मौजूद थे जिस कमरे में शायद सौ ही लोग आ सकते थे। कुर्सियां जर्जर हालत में थी; कुछ खिड़कियों के सहारे बैठे थे, कुछ फर्श पर, कुछ दरवाजे और कुछ उस मंच के आस-पास जहां से हैनी बाबू सार्वभौमिक व्याकरण (universal grammar) के बारे में लेक्चर दे रहे थे। उन्होंने अभी संज्ञा वाक्यांश (noun phrase ) और सहायक क्रिया (auxiliary verb) के डायाग्राम को समाप्त ही किया था, और, शायद, हमसे यह पूछने के लिए मुड़े कि यहां क्रिया वाक्यांश क्या होगा।

तभी वे अपनी बाईं ओर देखते हैं और खिड़कियों के सहारे बैठे लोगों को नोटिस करते है। “जो कमरे के आख़िरी छोर पर खिड़की के सहारे बैठे हैं, वे उन्हे सावधान कराते हैं कि कहीं वे गिर न जाएँ, ”। फिर वे अपनी बाईं ओर देखते हैं और कहते हैं: "मैं आप लोगों के बारे में बहुत चिंतित नहीं हूं।" इस बात पर हम सब हंस पड़े। लेकिन हैनी ने ऐसा नहीं किया। वे केवल मुस्कुराए। वे हमेशा मुस्कुराते रहते थे। कक्षा पहली मंजिल पर लगी थी। बाईं ओर की खिड़कियों वाली दीवार एक गलियारे की ओर ले जाती है; दाईं ओर की खिड़कियों वाली दीवार एक अद्भुत दोपहर की हवा का एहसास कराती है और नीचे बगीचे की तरफ ले जाती है।

दिल्ली विश्वविद्यालय का अंग्रेजी विभाग–जहां मास्टर्स की कक्षा लगती हैं-उसका भाषा विज्ञान पर भी एक अनिवार्य पाठ्यक्रम था, और उन पिछड़े हुए छात्रों के लिए जो कक्षाओं में शामिल नहीं होते थे उनके लिए इसमें आना अनिवार्य था, ताकि वे क्रिया वाक्यांशों से संज्ञा वाक्यांशों को सही ढंग से समझ सकें। कक्षा के कुछ समय बाद, कला संकाय गेट के बाहर से वे अक्सर वहाँ चल रही भूख हड़ताल की झलक भी देखते थे। हैनी को वहां देखना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।

पिछले सेमेस्टर में, मैंने जी.एन. साईबाबा को दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस में कक्षा के बाहर इंतजार करते देखा था। वे राम लाल आनंद कॉलेज में पढ़ाते थे और मास्टर्स के छात्रों के लिए भारतीय साहित्य पर एक वैकल्पिक पेपर पर अतिथि के रूप में व्याख्यान देते थे (ये अतिथि व्याख्यान अक्सर बिना वेतन या न्यूनतम वेतन के साथ होते हैं, यहां विश्वविद्यालय- स्नातकोत्तर स्तर पर- सफलतापूर्वक बिना भुगतान के श्रम को लागू करने में कामयाब था) जब तक मैंने अपना दूसरा सेमेस्टर समाप्त किया और जीएन साईबाबा द्वारा पढ़ाए जाने वाले भारतीय साहित्य पाठ्यक्रम को पढ़ने का समय आया तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

तीसरे सेमेस्टर में भाषाविज्ञान पर अनिवार्य पेपर था और मुझे जल्द ही पता चल गया कि हैनी बाबू, जीएन साईबाबा की रिहाई और उनकी सुरक्षा के लिए बनी समिति के साथ सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं। अगले कुछ वर्षों में जी.एन. साईबाबा को दोषी ठहरा दिया गया। न्यायालय के निर्णय में तर्क में कमियों पर अप्रैल 2017 में दिल्ली के प्रेस क्लब में एक संवाददाता सम्मेलन में एक पुस्तिका को समिति की तरफ से जारी किया गया। मैं तब तक मीडिया में काम करने लगा था और उस समाचार का फीचर लिख रहा था।

हैनी, यहां भी इस भाग-दौड़ में व्यस्त थे, शायद यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी को चाय मिल जाए। अब तक, मेरे लिए हैनी को विभिन्न भूमिकाओं में देखना असामान्य बात नहीं थी, और उनके द्वारा उन भूमिकाओं को निभाने का उनका अनथक तरीका था। (अफवाह यह थी कि शाम को वे एक छात्र के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय से सटे विधि संकाय में कानून की कक्षा लेते हैं। यह अफवाह सच थी)।

अगर मैंने यह लेख तब लिखा होता जब मैं मास्टर्स का छात्र था तो मैं शायद इस तथ्य को सामने ला पाता कि 2012 में, दिल्ली विश्वविद्यालय का अंग्रेजी विभाग, साथ ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विभाग के साथ, यह दुनिया के शीर्ष 100 अंग्रेजी विभागों में से एक था। सार्वजनिक शिक्षा में सरकारी हस्तक्षेप ने धीरे-धीरे डीयू में अंग्रेजी विभाग को नष्ट कर दिया। प्रत्येक सेमेस्टर में, कोई न कोई फेकल्टी छोड़ते गए।

छोड़ने वालों की सूची में रोशेल पिंटो और बैदिक भट्टाचार्य (जो सीएसडीएस में चले गए); उदय कुमार और वृंदा बोस (जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चले गए); नंदिनी चंद्रा (जो मनौआ में हवाई विश्वविद्यालय में चली गई); और संबुद्ध सेन (जो शिव नादर विश्वविद्यालय चले गए) शामिल हैं। शैक्षिक संस्थानों की गिरावट ने जेएनयू को बहुत अधिक प्रभावित किया है; डीयू में अंग्रेजी विभाग जेएनयू पर हमला शुरू होने से पहले ही एक धीमी मौत मर रहा था।

हैनी, हालांकि, एक "महान संस्थान" की मृत्यु के खिलाफ चेतावनी देते थे, और हमेशा विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा फेकल्टी या छात्रों के खिलाफ हुए उत्पीड़न के खिलाफ खड़े होते थे, और उसे गहराई से महसूस करते थे। वे पूछते, हमारे विरोध की शर्तें क्या हैं। क्या यह विरोध ‘महानता या विरासत के क्षरण के लिए है; आदेश के शब्दों में, योग्यता के अनुसार है? ’उन्होंने यह तब पूछा जब छात्रों ने 2014 में नियुक्तियों के साथ-साथ अंग्रेजी विभाग में पदोन्नति के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया, जो उन लोगों की नियुक्ति कर रहा था जो विश्वविद्यालय प्रशासन के प्रति वफादार थे या चाटुकार थे। (टाइम्स ऑफ इंडिया ने इन विरोध प्रदर्शनों को रिपोर्ट किया था)

कई प्रगतिशील आंदोलनों की तरह, हालांकि, हमारा नेतृत्व भी उच्च जाति के छात्रों द्वारा किया जा रहा था। हैनी ने एक फेसबुक नोट में अपने विरोध इस या भाव का उल्लेख किया था। मुझे उनका भ्रम याद है, एक जवाब की तलाश में हमारी आंतरिक बहस चलती, साथ ही साथ हमारे आंदोलन की अंबेडकर रीडिंग ग्रुप द्वारा आलोचना। हमने आपस में बहस की, एक-दूसरे के खिलाफ तर्क दिए, जैसे कि हमारी स्वतंत्रता की कल्पना ही दांव पर लगी थी। दूसरे शब्दों में, हम खुद को और दूसरों को राजनीतिक प्राणी के रूप में खोज पा रहे थे; हम यह देख सकते थे कि किसी ज्ञान के बिना हम दूसरों को नज़रअंदाज़ कर सकते थे।

हैनी ने अपनी असहमति के बावजूद उस प्रक्रिया को शुरू किया। हालांकि, छात्रों के दबाव में, विभाग के तत्कालीन प्रमुख ने 2015 में एक छात्र-संकाय निकाय बनाने की सहमति दे दी थी। हैनी ने चुनाव के नियमों का मसौदा तैयार किया और एक समावेशी नीति तैयार करने का शांत कार्य लिया। उन्होने इसमें  छात्र समुदाय के सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित किया। (छात्र-संकाय समिति के चुनाव 2015 से नहीं हुए हैं।)

हैनी कानून में विश्वास करते थे, और समावेशी संस्थागत नीतियों की जरूरत को भी महसूस करते थे। मुझे एहसास हुआ कि जब वे भारत में भाषा नीति पर बहस कर रहे थे, जब मैं अपनी एम. फिल कर रहा था, वह भी उसी विभाग से। हैनी का अपनी कक्षा से संबंध गहरा था और उनके शैक्षणिक अभ्यास, अम्बेडकराइट विचार से सब बहुत प्रभावित थे। वे संविधान की परिवर्तनकारी क्षमता पर विश्वास करते थे और हमें न केवल संविधान को पढ़ने के लिए कहते, बल्कि उसके प्रागितिहास को भी पढ़ने के लिए कहते थे। हमारे शुरुआती सेमिनारों में, हमने भाषा नीति की बहस को पढ़ा और उस पर चर्चा की थी जब संविधान की प्रारूप समिति हमारे राष्ट्र की भाषा नीति तैयार करने के लिए बैठक कर रही थी।

सवाल उठा कि हम एक क्रांतिकारी दस्तावेज पर कैसे पहुंच सकते हैं जो सभी के लिए समानता की बात करता हो, और उन संभावनाओं को मसौदा समिति के भीतर विभिन्न समूहों ने विफल कर दिया था? जब मैं यह लिख रहा था, तो मुझे एहसास है कि हमें केवल संविधान के वादों के प्रति विश्वासघात नहीं करना चाहिए। हैनी शायद इस बात को पसंद करते हैं कि हम इस दस्तावेज़ की प्रक्रिया को देखें, एक ऐसा दस्तावेज जिसमें एक इतिहास छिपा है, और जिसे नागरिकों द्वारा पुन: हासिल किया जाना चाहिए।

हैनी से मैंने यह भी सीखा कि कैसे एक शिक्षक, अपने छात्रों के साथ असहमत होने के बावजूद कैसे खुद को उनके साथ जोड़े रख सकता है। जब 2014 का विरोध शुरू हुआ था तो वह अपने छात्रों की तुलना में अधिक मज़बूत स्थिति में थे, लेकिन उन्होंने अपने ज्ञान या अपनी राजनीति को उन पर नहीं थोपा। वे हमें यह समझाना चाहते थे कि जाति अदृश्य तरीकों से मौजूद रहती है, और यह अदृश्य बनी हुई है, या यह एक दमनकारी प्रणाली बन गई है,और यह दमन वही लोग कर सकते हैं जो इसके द्वारा उत्पीड़ित नहीं हैं। क्या योग्यता के सवाल को उठाने से एक "महान" संस्था में पहले से मौजूद संरचनात्मक असमानताएं मिट जाती हैं। वास्तव में, ये असमानताएं तब भी बनी हुई थी जब अंग्रेजी विभाग ने इसे प्रभावशाली विश्वविद्यालय रैंकिंग को पाया था।

मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद, दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग, ओबीसी आरक्षण को लागू करने में विफल रहा था। (दिल्ली विश्वविद्यालय में ओबीसी आरक्षण के मुद्दे को प्रकाश में लाने के लिए हैनी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी) इसके अलावा, संकाय के दो सदस्यों को भारतीय शिक्षाविदों की 2017 की सूची में कथित यौन शिकारियों के रूप में नामित किया गया था। बावजूद रैंकिंग के, यह कहने की जरूरत नहीं है कि डीयू के अंग्रेजी विभाग ने सीखने के सुरक्षित माहौल की पेशकश नहीं की।

जैसा कि अक्सर अकादमिया में होता है, जहां संकाय सदस्य बौद्धिक मैत्री (और एहसान) के लिए एक धड़े को बनाना पसंद करते हैं, हमें पता था कि हैनी की मदद लेने के लिए हमें उसकी पसंद या समर्थक होना जरूरत नहीं था। उनके ऐसे समर्थक नहीं थे। यही कारण है कि, इतने वर्षों के बाद भी, मैं उनसे एक पत्रिका के लिए एक निबंध की समीक्षा करने को कह सकता था। एनआईए का समन उसी समय आया था जब मैं उनसे उनका जवाब सुनने वाला था। मैंने कुछ दिनों के बाद ईमेल किया, जब  महामारी के दौरान उन्हे एनआईए ने समन किया था तो मैंने एक रिमाइन्डर ईमेल भेज कर माफी मांगी। उन्होंने लिखा, "आपकी समझ के लिए धन्यवाद"। उन्होंने मुझे सूचित किया कि वे शीघ्र ही उनसे मिलेंगे। उन्होंने कहा कि "देखते हैं कि वे इसे कहाँ तक ले जाते हैं"। खैर, अबहम देख सकते हैं कि एनआईए इसे कहां तक ले गई है।

जब मैं यह लेख लिख रहा हूँ तो मैं चाहता हूँ कि हैनी बाबू फिर से अपनी कक्षा लें। शोर के इस क्षण में, मैं उनकी शांत, निश्छल मुस्कान और 2014 की दिल्ली की सर्दी की शांत दोपहर को याद करना चाहता हूं। लेकिन यह तब होगा जब हम अपनी राजनीतिक लड़ाई जारी रखेंगे।

लेखक पूर्व में भारतीय राइटर्स फोरम और अशोका यूनिवर्सिटी में काम कर चुके हैं। उन्होंने 2015 में अंग्रेजी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय से एम. फिल की है। @ souradeeproy19।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित आलेख को पढ़ने के लिए आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर सकते हैं-

Hany Babu: Portrait of a Professor as an Activist

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest