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बीच बहस: तमिलनाडु की राजनीति में भाजपा की कोई जगह नहीं!

तमिलनाडु की सियासत का इतिहास तो यही बताता है कि भारतीय जनता पार्टी की ब्राह्मणवादी राजनीति के लिए राज्य में कोई स्कोप नहीं है।
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तमिलनाडु की राजनीति भारत में ब्राह्मणवाद और उत्तर भारत के वर्चस्व के खिलाफ लड़ी गई लड़ाई के इतिहास का नाम है। इसीलिए भारतीय राजनीति की मुख्यधारा की पार्टी कांग्रेस और भाजपा का तमिलनाडु में अपनी पैठ बना पाना अभी तक नामुमकिन रहा है। 

 साल 1930 से 50 के दौरान दक्षिण भारत,  ब्राह्मणों के वर्चस्व को तोड़ने की लड़ाई लड़ रहा था। दलितों को मंदिर में प्रवेश देना, छुआछूत को दूर करना, जातिगत भेदभाव को खत्म करने को लेकर दक्षिण भारत आंदोलित हो रहा था। तमिलनाडु में  हिंदी भाषा की जगह तमिल भाषा और तमिल राष्ट्रवाद की लहर चल रही थी।

अंधविश्वास सामाजिक भेदभाव से लड़ने के लिए तर्कवाद का इस्तेमाल किया जा रहा था। पेरियार रामास्वामी इन सभी आंदोलनों में एक प्रमुख नेता के तौर पर अपने संगठन द्रविड़ कषगम के साथ अगुवाई कर रहे थे। पेरियार का मानना था कि सामाजिक आंदोलन को राजनीति में शामिल नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा होगा तो चुनावी राजनीति आगे हो जाएगी और सामाजिक आंदोलन से जुड़े मुद्दे पीछे चले जाएंगे। जो धड़ा पेरियार के इस राय से असहमत था। उसी के अगुवाई में साल 1950 के बाद की राजनीति की शुरुआत हुई। और इस धड़े का राजनीतिक नाम पड़ा द्रविड़ मुनेत्र कषगम यानी द्रमुक अंग्रेजी में कहा जाए तो डीएमके।

 इस दल की अगुवाई नाटककार और लेखक सी अन्नादुरई कर रहे थे। उच्च जाति से चलने वाले भारतीय समाज में आजादी के बाद के हर बड़े संस्थानों और संगठनों की अगुवाई स्वाभाविक तौर पर ऊंची जातियों में ही सिमट रही थी। उस समय की कांग्रेस का भी यही हाल था। कांग्रेस भी ब्राह्मण और ऊंची जातियों की अगुवाई से पटी पड़ी थी। सी अन्नादुरई का विरोध कांग्रेस के इसी ब्राह्मणवाद से था। सी अन्नादुरई ने अपने जमाने में इसका खूब विरोध किया। दक्षिण भारत में कांग्रेस के पैर पसरने नहीं दिए। 

 
साल 1967 में अन्नादुरई के शिष्य एम करुणानिधि की अगुवाई में डीएमके ने तमिलनाडु का विधानसभा चुनाव जीत लिया। इसके बाद से लेकर अब तक तमिलनाडु की राजनीति में द्रविड़ राजनीति हावी रही है।

 
साल 1967 के बाद की द्रविड़ राजनीति ने केंद्र की इंदिरा गांधी को अपने से बहुत दूर रखा। कांग्रेस से विरोध जारी रहा। चूंकि द्रविड़ राजनीति के सभी नेता समाज के हाशिए पर मौजूद समूह से आए थे, इसलिए इन सबके प्रशासन में हाशिए पर मौजूद लोगो तक सरकारी मदद पहुंचाना केंद्र में रहा। राजनीति की तकनीकी शब्दावली में कहा जाए तो द्रविड़ राजनीति से जुड़े हर दल इसी वजह से पापुलिस्ट सरकार के तौर पर जाने जाते हैं। यानी गरीब लोगों तक फ्री में कई सारी सरकारी योजनाएं पहुंचाना ही अब तक की द्रविड़ राजनीति की खूबी रही है। करुणानिधि की सरकार ने इसकी शुरुआत गरीबों को मुफ्त में चावल मुफ्त में परिवहन और सरकार की तरफ से घर देने के जरिए की।

 
करुणानिधि के दौर में ही द्रविड़ राजनीति में एक और मोड़ आया। यह मोड़ था द्रविड़ राजनीति में सिनेमा से जुड़े लोगों का शामिल होना। सिनेमा से जुड़े लोगों की पहुंच आम लोगों तक जबरदस्त थी। डीएमके को इसका खूब फायदा मिला। इसी समय दक्षिण भारत के सुपरस्टार एमजीआर का तमिल राजनीति में आगमन हुआ। एमजीआर की लोकप्रियता गजब की थी। इस लोकप्रियता की वजह से डीएमके का पोलिटिकल प्रोपेगेंडा आम लोगों तक पहुंचता रहा। आगे चलकर एमजीआर और करुणानिधि में आपसी मतभेद हुए। एमजीआर ने करुणानिधि पर भ्रष्टाचार और तानाशाह होने के आरोप लगाए। 

 यहीं से डीएमके से टूटने वाला धड़ा एमजीआर की अगुवाई में साल 1972 में एआईडीएमके यानी अन्ना द्रमुक मुनेत्र कषगम के तौर पर स्थापित हुआ। यहां से तमिलनाडु की राजनीति में डीएमके बनाम एआईडीएमके की लड़ाई शुरू हुई।

 साल 1977 में एमजीआर ने जबरदस्त जीत हासिल की। जब तक एमजीआर इस दुनिया में मौजूद रहे तब तक यानी साल 1987 तक उनके जीतने का यह सिलसिला भी जारी रहा।  एमजीआर की राजनीति भी लोकलुभावन राजनीति थी। राज्य के वित्त पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। वित्त प्रबंधन के ऊपर गरीबों तक योजनाएं पहुंचाने को तवज्जो दी गई। एमजीआर के काल में राजनीति में गरीब लोगों की भागीदारी और बढ़ी। लेकिन भ्रष्टाचार और तानाशाही के आरोप एमजीआर पर भी जमकर लगे। एमजीआर की राजनीति व्यक्ति पूजा वाली राजनीति थी। साल 1981 में कानून बना कि अगर सरकार के खिलाफ कुछ भी अशोभनीय बात लिखी जाएगी तो लिखने वालों को पांच साल की सजा होगी। साल 1987 में जब एमजीआर की मौत हुई तो उनके प्रति दीवानगी इस हद तक थी कि तकरीबन 29 लोगों ने अपनी जान दे दी। 

 
एमजीआर ही साल 1982 में जे जयललिता को राजनीति में लाए। एमजीआर की पत्नी जानकी और जयललिता के बीच अन्नाद्रमुक का उत्तराधिकारी कौन होगा? इस पर कुछ साल जंग चली। अंत में विरासत की हकदार जे जयललिता बनीं। जिन्हें अम्मा के नाम से पुकारा गया। जे जयललिता का काल भी लोकलुभावन राजनीति का ही था। भ्रष्टाचार और पैसे के लेनदेन सब जारी रहा लेकिन कुछ योजनाएं ऐसी भी बनी जिनका लाभ गरीबों को मिलता रहा। जे जयललिता के प्रति भी लोगों की दीवानगी गजब की थी। भ्रष्टाचार के आरोप लगे, जे जयललिता जेल भी गईं। लेकिन इस दीवानगी में कोई कमी नहीं आई। जब जे जयललिता का देहांत हुआ तब भी तमिलनाडु के लोगों ने गजब की भावुकता का प्रदर्शन किया।

 तमिलनाडु में इस बार का पहला ऐसा विधानसभा चुनाव होगा जिसमें उसके राजनीतिक इतिहास के दो कद्दावर नेता करुणानिधि और जे जयललिता मौजूद नहीं होंगे। यानी लंबे समय बाद तमिलनाडु की राजनीति चेहरों के लिहाज से एक बड़ी करवट लेने वाली है। पिछले 10 सालों से तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक का शासन चल रहा है। मौजूदा समय में मुख्यमंत्री के तौर पर पलानिस्वामी राज गद्दी संभाल रहे हैं। अब यह गद्दी मखमली भी नहीं रह गई है। 

 
पिछले 10 सालों से राज करने के चलते एआईडीएमके के खिलाफ लोगों के मन में सत्ता विरोधी लहर चल रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में एआईएडीएमके को 39 में से महज एक सीट मिली थी, 38 सीटें डीएमके के खाते में गई थी। इस बार की चुनावी लड़ाई में डीएमके गठबंधन की तरफ से एम करुणानिधि के बेटे एमके स्टालिन और एआईडीएमके के गठबंधन की तरफ से मौजूदा मुख्यमंत्री ई के पलानीस्वामी के बीच है। डीएमके की गठबंधन में कांग्रेसी शामिल है और एआईएडीएमके गठबंधन में भाजपा। 

 
ई पलानीस्वामी राज्य में जगह-जगह जयललिता की प्रतिमाएं बनवा रहे हैं ताकि इसका इस्तेमाल चुनाव में किया जा सके। एआईडीएमके की तरफ से जयललिता के चले जाने के बाद विरासत कौन संभालेगा? इस पर भले ही इस समय ई पलानीस्वामी की सत्ता चल रही हो लेकिन अभी भी कई सारे मोहरे इस लड़ाई में मौजूद हैं। एक का नाम है शशिकला। इनके बारे में राजनीतिक जानकारों का कहना है कि वह इस समय चुनाव में इसलिए नहीं शामिल हो रही हैं क्योंकि उन्होंने भी डीएमके की तरफ जाने वाले चुनावी माहौल को भांप लिया है। वह शायद इस बात का इंतजार कर रही हैं कि एआईडीएमके चुनाव हार जाए उसके बाद वह पहली लड़ाई ई पलानीस्वामी से एआईडीएमके की विरासत हासिल करने में लगाएं। इस तरह से एआईडीएमके का अंदरूनी धड़ा बहुत सारे कलह से भी गुजर रहा है।

 इस तरह की किसी भी अंदरूनी कलह का सामना करुणानिधि के पुत्र स्टालिन को नहीं करना पड़ रहा है। वह पार्टी के अध्यक्ष और निर्विवादित नेता हैं। पिछले साल के मार्च से ही चुनावी अभियान में जोर शोर से लगे हुए हैं।

 जहां तक छोटी पार्टियों की बात है तो उनके बारे में राजनीतिक जानकार एन सत्यमूर्ति लिखते हैं कि साल 2011 से  छोटी- छोटी पार्टियां बड़ी पार्टियों के कंधे पर सवार होकर आगे बढ़ रही है। हाल के वर्षों में राजनीतिक प्रतिद्वंदिता और अधिक बढ़ी हैं। इसलिए बड़ी पार्टियां इन छोटी पार्टियों को बहुत अधिक गंभीरता से ले रही है। साल 1989 के बाद से चुनावों के विश्लेषण से पता चलता है कि डीएमके और एआईडीएमके को कुल वोट का तकरीबन 60 फीसदी से अधिक वोट मिला है। यानी तमिलनाडु की राजनीति में डीएमके और एआईएडीएमके के बाद ही किसी पार्टी का नंबर आता है। 

 
भले ही द्रविड़ राजनीति ने  जातिविहीन समाज पर बल दिया। लेकिन फिर भी तमिलनाडु के कुछ इलाकों में जाति आधारित राजनीति करने वाली छोटे छोटे दलों का प्रभाव मजबूत है। लेकिन यह सभी मिलकर महज एक प्रतिशत वाले दल ही है। इससे जायदा इनका दबदबा नहीं है।

देश में अपनी चुनावी तिकड़मबाजी पर पीठ थपथपाने वाली भाजपा तमिलनाडु में अभी भी कमजोर पार्टी है। राजनीतिक मामलों के जानकार नरेंद्र सुब्रमण्यम द हिंदू अखबार में लिखते हैं कि भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति तमिलनाडु में पूरी तरह असफल है। पिछले विधानसभा चुनाव भाजपा को महज 3 फ़ीसदी के आसपास वोट मिले थे। इसकी बड़ी वजह यह है कि तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीति की वजह से उस हिंदुत्व का विकास नहीं हुआ जिसमें ब्राह्मण सबसे ऊंचे पायदान पर होते हैं, निचली जातियों को अलग-थलग किया जाता है और मुसलमानों के लिए नफरत पैदा करने वाली संस्कृति पनपती है। बल्कि वैसी संस्कृति का विकास हुआ जिसमें मध्यम जातियों के साथ दूसरी जातियों और मुसलमानों का अच्छा गठजोड़ बना। इस गठजोड़ के खिलाफ भाजपा की अंतर धार्मिक हिंसा वाली रणनीति पूरी तरह से असफल रही। डीएमके के उत्तरी और मध्य तमिलनाडु वाले इलाके में भाजपा पूरी तरह से कमजोर है। जबकि एआईडीएमके के इलाके में धीरे धीरे अंकुरित होने की कोशिश कर रही है।

 
भाजपा की कमजोर स्थिति इससे भी समझी जा सकती है कि एआईडीएमके ने अपने मेनिफेस्टो में सीएए को लागू न करवाने वायदा किया है, जिस CAA पर भाजपा मरने-मारने पर उतारू होकर उत्तर भारत में राजनीति करती है।

 तमिलनाडु की सरकारों पर मुफ्त में खैरात बांटने वाली सरकार का आरोप लगता है। एक लिहाज से आरोप सही भी है क्योंकि सरकारी खजाने पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। राजस्व के प्रबंधन की कोई चिंता नहीं की जाती। लेकिन एक दूसरे लिहाज से यह आरोप गलत है। क्योंकि गरीब लोगों के पास जब रहने और खाने लायक सुविधाएं ही नहीं होंगी तो क्या ही कर पाएंगे? इसलिए सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी बनती है कि बिना किसी दूसरे कारणों पर ध्यान दिए वह गरीब लोगों तक मुफ्त में सुविधाएं मुहैया करवाए। यही वजह है कि 2020 में प्रकाशित हुई 15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट कहती है कि तमिलनाडु राज्य सतत विकास के लक्ष्यों पर दूसरे राज्यों के मुकाबले आगे रहा है। गरीबी उन्मूलन स्वास्थ्य शिक्षा के मामले में तमिलनाडु की स्थिति दूसरे राज्यों के मुकाबले अच्छी रही है।

 द हिंदू के पूर्व संपादक एन राम इस विधानसभा के चुनावी नतीजे पर अनुमान लगाते हुए ट्विटर पर लिखते हैं कि पब्लिक ओपिनियन से लेकर सर्वे तक यह इशारा कर रहे हैं कि आने वाले विधानसभा चुनाव में डीएमके गठबंधन बहुत बड़ी जीत हासिल करने जा रहा है। ऐसा भी हो सकता है कि डीएमके गठबंधन पूरे राज्य की 234 सीट नाम कर ले और सत्ता में बैठी पार्टी को घनघोर हार का सामना करना पड़े।

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