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''घर में घुस के मारेंगे'' धमकी का भूमंडलीकरण

मोदी, नेतन्याहू और ट्रम्प ने जनता की राय को भरमाने के लिए अपने ढीठपने और हिंसक प्रवृत्ति के जहरीले मिश्रण का नशा तैयार किया है।
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अपने 2019 के चुनावी सफर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अभियान के बयानों में एक पटकथा सबसे शीर्ष पर छाई रही। और वह थी राष्ट्र की सुरक्षा। उनके भाषणों और ट्वीट में जो बात मुहावरे के रूप में सबसे अधिक बार दोहराया गया उनमें से एक था “घर में घुस के मारेंगे।" पुलवामा हत्याकाण्ड और इसी साल फरवरी में हुए बालाकोट में सैन्य बमबारी की घटना को दोबारा जीवंतता देते हुए मोदी के अभियान की प्रमुख पटकथा में पाकिस्तान जाना और आतंकियों के खात्मे का किस्सा छाया रहा, जिसे लगभग हर चुनावी भाषणों में और दैनिक ट्वीट में मूल संदेश के रूप में दोहराया जाता रहा।

“नया भारत क्या चाहता है?” गरजते हुए मोदी ने पश्चिम बंगाल के राजघाट के अपने 24 अप्रैल के भाषण में सवाल किया था, “भारत को एक ऐसे मजबूत नेता की आवश्यकता है, जो आतंकवादियों से उसकी रक्षा कर सके।” उत्तर प्रदेश के बहराइच में अपने 30 अप्रैल के भाषण में उनका कहना था, "आज हर आतंकवादी खड़ा होने से पहले डरता है कि अरे सत्ता में तो मोदी है।" इसी तरह अपने 3 मई के कालाबुरागी, कर्नाटक के भाषण में भी इसी तरह के मिलते जुलते दावे को दोहराया, "गरीबों के लिए यदि कुछ बेहतर करना है तो, आतंकवाद से छुटकारा पाना परम आवश्यक है। यह नया भारत है, घर में घुसकर मारेंगे और कोई आतंकवादी मोदी से नहीं बच सकता।''  संदेश पूरी तरह से साफ़ था: मोदी जैसा मजबूत नेता ही भारत को आतंकवादियों से बचा सकता है, जो हिंसा का बदला लेने के लिए प्रतिबद्ध है। जैसा कि मोदी ने 1 मई के अपने ट्वीट में कहा, “भारत अब फिर कभी कमजोर साबित नहीं होगा।"

अप्रैल 2019  के चुनावों से पहले, इज़राइल के लंबे समय तक प्रधान मंत्री रहे बेंजामिन नेतन्याहू जो कि भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रहे थे और जिन्हें, चौंकाने वाले तौर पर बेनी गैंट्ज़ के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन से कड़ी चुनावी चुनौती मिल रही थी, ने कई पड़ोसी मुल्कों पर हवाई हमले कर डाले। अंतरराष्ट्रीय गलियों  में अपनी कठोर छवि होने के बावजूद अभी तक नेतन्याहू बल प्रयोग के मामलों में बेहद सावधानी बरतते देखे गए थे। इसके बावजूद 24 घंटों के भीतर इज़राइली विमानों ने ईरान से जुड़े ठिकानों सीरिया, लेबनान और इराक को अपना निशाना बना डाला। अपने चुनावी अभियान के दौरान नेतन्याहू ने सीरिया के भीतर सैकड़ों हमले करने की डींग हाँकते हुए दावा किया कि उन्होंने अपने पड़ोस में ईरान के “सैन्य खन्दक” हमले को पहले से ही रोकने में कामयाबी हासिल कर ली है: जिसमें इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड के जवान, शिया मिलिशिया के लड़ाके, और सटीक हमले करने वाले मिसाइल जैसे उन्नत हथियार शामिल थे।

यह आम तौर पर लागू इजरायली नीति के पूरी तरह उलटबांसी थी, जैसा कि इजरायली पत्रकार रोनेन बर्गमैन अपनी किताब, राइज एंड किल फर्स्ट: द सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ इजराइल टार्गेटेड अससिनेशन्स," में कहते हैं, एक “उद्देश्यपूर्ण अस्पष्टता"। इसके अनुसार जब कभी सीमा पार रहस्यमयी तरीके से विस्फोट जैसा कुछ घटित होता है, तो इस बात की जिम्मेदारी इजराइल अपने ऊपर लेने से इंकार करता आया है और इस प्रकार अपने दुश्मनों को सीमा पर बदले की कार्यवाही से हमेशा रोककर रखने की चतुराई दिखाता रहा है। नेतन्याहू से पूर्व के इजराइली नेता बेहद सौम्य भाषा में अपनी बात को रखते थे और हमेशा एक दूरी बनाकर रखते थे और बेहद प्रभावी ढंग से अपने क्षेत्रीय विरोधियों से निपटते थे। लेकिन इस चुनावी अभियान के दौरान नेतन्याहू ने ईरान के इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड के मेजर जनरल कासिम सोलेमानी के विरुद्ध सार्वजनिक तौर पर अपमानजनक टिप्पणियाँ करने से लेकर और हमला करने और हत्या तक की खुली धमकियाँ देने से नहीं चूके।

आइये अब तेजी से घटनाक्रम में आगे बढ़ते हैं और 3 जनवरी 2020  के घटनाक्रम पर नजर दौड़ाते हैं। दुनिया को इस बात का पता चलता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने उसी सोलेमानी को “पापी”, “दुष्टात्मा” और “संयुक्त राज्य अमेरिका के हितों के लिए आसन्न संकट” के रूप में चिन्हित कर ईराक में उसकी हत्या करने के लिए अधिकृत किया है। सोलेमानी की हत्या से ट्रम्प के कट्टर समर्थक तक दुविधा में हैं और इस कदम को समझ नहीं पा रहे, क्योंकि 2016 में जबसे वे सत्ता में आये हैं तो उनका सारा जोर मध्य पूर्व में चल रहे अंतहीन युद्धों से हाथ खींचने का रहा है। जबकि विद्वानों का खेमा ट्रम्प के इस कदम से भौंचक्का हैं और हत्या की टाइमिंग को लेकर सवाल खड़ा कर रहे हैं।

 सोलेमानी कोई आज से नहीं बल्कि पिछले 20 से अधिक वर्षों से इस क्षेत्र में सक्रिय था और खुल्लम-खुल्ला शिया लड़ाकों को संगठित कर रहा था। इराक, ईरान और सीरिया के बीच उसका आना-जाना बिना किसी सजा की परवाह के होता रहता था और ऐसा कोई काम छिप-छिपाकर नहीं कर रहा था। लेकिन याद करें तो 3 जनवरी से पहले अमेरिका के समाचारों में ट्रम्प के खिलाफ महाभियोग के मुकदमे की खबरें ही प्रमुखता से देखने सुनने को मिल रही थीं जिसकी तारीख मध्य जनवरी के लिए निर्धारित की गई थी। हालाँकि राष्ट्रपति चुनाव नवंबर 2020 तक नहीं होने जा रहे हैं लेकिन इन खबरों के चलते डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रमुख दावेदार टेलीविजन समाचारों का अधिकतर समय खा जा रहे थे और अपने चुनाव अभियानों के लिए काफी दान-राशि जुटाने में कामयाब होते दिख रहे थे। ऐसी परिस्थिति में सोलेमानी की हत्या की घटना को महाभियोग के 24x7 मीडिया कवरेज को अवरुद्ध करने की एक कोशिश के रूप में देखा जा सकता है।
जहाँ एक ओर भारत, इज़राइल और संयुक्त राज्य अमेरिका की विदेश नीति के रास्ते विशिष्ट तौर पर भिन्न हैं, इसके बावजूद इन सभी व्यक्तियों में क्या साम्यता है?

एक तो यह कि ये सभी बड़े लोकतंत्रों के शीर्ष पर बैठे लोग हैं, और चुनावी प्रक्रिया के द्वारा निर्वाचित हैं, और इन तीनों ने नीतियों और राजनीति के सन्दर्भ में अपनी दबंगई का परिचय दिया है। इसके अलावा हमला करने, बमबाजी और हत्याओं का इस्तेमाल अपने चुनावी बयानबाजी के रूप में इस्तेमाल करने में भी ये पीछे नहीं हैं। हो सकता है कि चुनावी नतीजों के रूप में इन नेताओं में से प्रत्येक का प्रदर्शन एक दूसरे से भिन्न हो, जैसे कि मोदी को भारी सफलता हासिल हुई है, लेकिन नेतन्याहू और ट्रम्प अपनी सत्ता बरक़रार रखने में सफल हो भी सकते हैं और नहीं भी, लेकिन जनता की राय और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए इन सभी ने अपनी शक्ति और सुरक्षा का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया है।

युद्धोपरान्त अल सल्वाडोर में चुनावी पैटर्न का अध्ययन करने के बाद राजनैतिक विज्ञानी सारा ज़ुकरमैन डाली का निष्कर्ष है कि "युद्धोन्मादी नेता अक्सर शांति कायम रखने के श्रेय का दावा करने में कामयाब रहे हैं जिसका अर्थ यह निकाला जाता है कि सुरक्षा के मामलों में उनकी दक्षता के दावों पर मुहर लग जाती है।"

इस वजह से नेताओं में खुद को सुरक्षा मामलों के संयोजक साबित करने की प्रवत्ति दिखाई देती है और मतदाताओं को अपने पक्ष में झुकाने की प्रवत्ति विकसित होती है। इस बात की व्याख्या करते हुए कि क्यों लोग सहज बोध को समझते हुए भी विपरीत मतदान करते हैं। डाली “सुरक्षा के लिए मतदान” की ओर इशारा करते हुए बताती हैं कि जो नेता हिंसात्मक गतिविधियों के जरिये शक्ति प्रदर्शन करते हैं। अक्सर मतदाता ऐसे लोगों के प्रति रुझान रखते हैं। यहाँ तक कि अल सल्वाडोर जैसी जगह पर सेना के ही लोग चुनकर सत्ता में आये, जिन्होंने इससे पहले साल्वाडोर के लोगों की हत्याओं को अंजाम दिया था। वे आगे लिखती हैं यह सहज ज्ञान के विपरीत की क्रिया है, क्योंकि अक्सर देखा गया है कि हिंसक गतिविधिया प्रतिवाद के बजाय विभाजन पैदा करने का काम करती हैं।

मोदी, नेतन्याहू और ट्रम्प ने चुनावों में जीत ताकत और हिंसा की वकालत के आधार पर हासिल की थी। जहाँ हिंसा का लक्ष्य कभी-कभी क्षणभंगुर और आकार-परिवर्तन के लिए किया जाता है।  मोदी के लिए यह पाकिस्तान और अल्पसंख्यकों से जुड़ा है।  नेतन्याहू के लिए फिलिस्तीनी और हिजबुल्लाह और वहीँ ट्रम्प के लिए यह आप्रवासियों और वैश्विक मुसलमानों के सन्दर्भ में समझा जा सकता है। इन तीनों ने गैर-जिम्मेदारी और प्रतिशोधात्मक तौर पर हिंसा की वकालत की है। और इनमें से हरेक ने इसके लिए तब तक इन्तजार किया है, जब तक इसमें शामिल होने के लिए उनके सबसे घरेलू और राजनीतिक रूप से कमजोर क्षण नहीं आ गए।

 मोदी के लिए वह क्षण तब था जब अर्थशास्त्रियों ने 45 साल के सबसे उच्च स्तर पर पहुँच चुकी बेरोजगारी की दर और आर्थिक विकास के अवरुद्ध हो जाने के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था के औंधे मुहँ गिरते जाने के खतरे पर हो-हल्ला मचाना शुरू कर दिया था। नेतन्याहू के लिए यह तब था जब उन्हें और उनकी पत्नी को रिश्वत और धोखाधड़ी के मामले की जांच चल रही थी और ट्रम्प के लिए यह उनके द्वारा प्राप्त शक्तियों के दुरुपयोग के लिए चलाए जाने वाले महाभियोग के नगाड़ों की गूंज थी, जिसका अंत संयुक्त राज्य अमेरिका की सीनेट में सार्वजनिक (और राष्ट्रीय तौर पर लाइव टेलीकास्ट) मुकदमे के रूप में होने जा रहा था।

घर में घुस के मारेंगे के वैश्वीकरण से पता चलता है कि किस प्रकार से लोकतांत्रिक नेतागण, चुनावों की खातिर जनता की राय को भरमाने के लिए अपने ढीठपने और हिंसक प्रवत्ति के जहरीले मिश्रण वाले नशे का इस्तेमाल कर रहे हैं। और यह कारगर भी है। 

(लेखिका संचार अध्ययन विभाग, न्यूयॉर्क के राज्य विश्वविद्यालय, प्लेट्सबर्ग में शिक्षिका के तौर पर कार्यरत हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
 

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